
मार्च की ठिठुरती सुबह के छह बजे 68 साल के गोपाल सिंह अपने पोते के साथ अपने गांव शिहल से लगभग पांच किलोमीटर दूर जंजहैली बाजार आए हैं। वह बाजार में एक दुकान के बाहर रखे बक्सों की ओर बढ़ते हैं। यहां पहले से ही बंटी चौहान खड़े हैं। बंटी चौहान व्यापारी हैं और उन्होंने ये बक्से लगभग 250 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के ऊना से मंगवाए हैं।
गोपाल सिंह अपने पोते को दो बक्से उठाकर गाड़ी में रखने को कहते हैं, लेकिन उससे पहले वह बड़ी सावधानी से बक्से खोलकर देखते हैं। बक्सों में मधुमक्खियां भिनभिना रही हैं। वह तसल्ली की सांस लेते हैं और बंटी चौहान की पीठ थपथपाने लगते हैं। दरअसल मधुमक्खियों के अनोखे सफरनामे का एक पड़ाव हिमाचल प्रदेश भी है।
गोपाल सिंह हिमाचल प्रदेश के सेब बागवान हैं और इन दिनों सेब के पेड़ों पर आ रहे फूलों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। उनके पेड़ों पर गुलाबी कलियां दिखने लगी हैं। इसके साथ ही उन्हें चिंता सताने लगी हैं कि फूलों का परागण किस तरह होगा?
परागण का काम मधुमक्खियां और तितलियां करती हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से न तो मधुमक्खियां उनके बगीचों में आती हैं और ना तितलियां। यही वजह है कि वह इतनी सुबह जंजहैली पहुंच कर ये बक्से अपनी गाड़ी में लदवा रहे हैं। इन बक्सों में बंद हैं मधुमक्खियां।
मधुमक्खियों का यह अनोखा प्रवास मार्च से अप्रैल तक हिमाचल प्रदेश, कश्मीर व उत्तराखंड के उन इलाकों में होता है, जहां सेबों पर फूल आ रहे होते हैं। सेबों में परागण (पॉलीनेशन) का काम 15 दिन तक चलता है। हर 15 दिन बाद ये मधुमक्खियों अपने बक्सों में लदकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पहुंच जाती हैं। मधुमक्खियों का यह प्रवास अरुण चौधरी जैसे लोग करते हैं, जो ऊना में अपना फार्म जमाए थे।
पिछले चार साल से ये मधुमक्खियां गोपाल सिंह के पेड़ों को सेबों से लाद देती हैं। जैसे ही फूल खिलते हैं, मधुमक्खियां बक्सों से निकल कर फूलों का रस चूसने पहुंच जाती हैं। इस प्रक्रिया में वे परागण पूरा करती है, जिसकी बदौलत ही फूल खिलकर फल का रूप लेने लगते हैं।
गोपाल सिंह इस काम के लिए 1,200 रुपए प्रति बक्से का भुगतान करते हैं। लगभग 15 दिन दो बक्से उनके बगीचे में रहेंगे। बक्से में बंद मधुमक्खियां परागण करेंगी। ये मधुमक्खियां पालतू हैं, जिन्हें शहद हासिल करने के लिए पाला जाता है, लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान इन मधुमक्खियों का इस्तेमाल इसके दूसरे प्राकृतिक काम परागण के लिए भी पाला जा रहा है। बल्कि मधुमक्खी पालक कुछ फलों के परागण के लिए बकायदा किराया वसूल रहे हैं।
परागण का संकट
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि परागण का संकट कितना बड़ा हो गया है।
दरअसल, परागणकर्ता कृषि से जुड़ी जैव विविधता का एक अहम हिस्सा होते हैं, और ये प्राकृतिक और कृषि दोनों पारिस्थितिकी प्रणालियों में बहुत जरूरी काम करते हैं। कुछ पौधे हवा से परागित होते हैं, लेकिन हवा के अलावा परागण मधुमक्खियों, तितलियों, मच्छरों, मक्खियों, भृंगों और कुछ कशेरुकी जीवों जैसे चमगादड़, गिलहरी, पक्षी और कुछ परजीवियों से भी होता है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक, करीब 90 प्रतिशत फूलों वाले पौधे ऐसे होते हैं जो जीवों द्वारा परागण के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होते हैं। इनमें से ज्यादातर का परागण करने वाली जीव मधुमक्खियां होती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित एक लेख के अनुसार विभिन्न जीवों का परागण क्षमता अलग-अलग होती है। मधुमक्खियां, जो मुख्य रूप से फसल परागण में मदद करती हैं, 100 से अधिक फलों और सब्जियों का परागण करती हैं। परागणकों का काम पौधों की प्रजनन प्रक्रिया, फल का विकास और उनके फैलाव को सुनिश्चित करना होता है, चाहे वो कृषि का पारिस्थितिकी तंत्र हो या प्राकृतिक। इसके बदले में पौधों का अस्तित्व परागणकों को खाने के लिए जरूरी भोजन मुहैया कराता है।
बीते कुछ सालों में अलग-अलग कारणों से मधुमक्खियों की संख्या कम हुई है, हालांकि घरेलू मधुमक्खियां यानी इंसानेां द्वारा पाली जाने वाली मधुमक्खियों की संख्या बढ़ी है। यही वजह है कि इन मधुमक्खियों का इस्तेमाल सेब जैसे फलों में परागण के लिए किया जाने लगा है।
अरुण चौधरी बताते हैं कि जंजहैली के पूरे इलाके में उनकी कॉलोनियों की खपत होती है। एक कॉलोनी का किराया 1,000 रुपए से लेकर 1,500 रुपए लिया जाता है। इस तरह 20 से 30 दिन में उन्हें एक फॉर्म (लगभग 250 कॉलोनियां) से ढाई से तीन लाख रुपए मिलते हैं, इसमें ट्रांसपोर्ट, लोडिंग-अनलोडिंग के अलावा मधुमक्खियों को फीडिंग का खर्चा घटा दिया जाए तो 1.50 लाख रुपए से अधिक की बचत हो जाती है।
परागण के लिए मधुमक्खियां किराए पर देना मधुमक्खी पालकों के लिए फायदे का सौदा बन गया है। अरुण चौधरी गणित समझाते हुए कहते हैं कि एक कॉलोनी में रहने वाली मधुमक्खियां सामान्य तौर पर साल भर में लगभग 30 किलोग्राम शहद का उत्पादन करती हैं और अगर एक फार्म में 250 कॉलोनियां हैं तो 7,500 किलोग्राम शहद का उत्पादन होता है। इस समय में कच्चे शहद की औसत कीमत 100 रुपए प्रति किलोग्राम है।
इसका मतलब है कि एक फार्म से लगभग 7,50,000 रुपए की आमदनी होगी, जबकि साल भर का खर्चा लगभग 6 लाख रुपए आता है। ऐसे में साल भर की बचत 1,50,000 रुपए की बचत होती है। इसका मतलब है कि हिमाचल प्रदेश में सेब उत्पादकों से मिलने वाला किराया साल भर में शहद से होने वाली आमदनी के बराबर ही होती है।
मधुमक्खी पालक सेब बागवानों से किराया इसलिए लेते हैं, क्योंकि सेब के फूलों में रस (नेक्टर) बहुत कम होता है, जिस कारण मधुमक्खी पालक शहद नहीं निकाल पाते, बल्कि मधुमक्खियों को जीवित रखने के लिए चीनी का घोल या शक्कर इस्तेमाल करना पड़ता है। यही वजह है कि मधुमक्खी पालक सेब बागवानों से किराया लेते हैं।
किराया लेने की एक वजह यह भी है कि सेब के परागण के दौरान बहुत सी मधुमक्खियां दो वजह से मर जाती हैं। एक- बागवानों द्वारा सेब के पेड़ों पर कीटनाशकों का छिड़काव और दूसरा मधुमक्खियों के बक्से रखने का तरीका बागवानों या उनके मजदूरों को नहीं आता।
हालांकि हिमाचल प्रदेश या जम्मू कश्मीर के पहाड़ों पर मधुमक्खियां भेजने की एक वजह यह भी रहती है कि मैदानी क्षेत्रों का तापमान गर्म हो जाता है और गर्म मौसम में मधुमक्खियों का जीवन संकट में पड़ जाता है!
हिमाचल प्रदेश के शिमला के जुब्बल कोटखाई इलाके के रहने वाले निकम चौहान मधुमक्खी पालक भी हैं, लेकिन उन्होंने सेब के बगीचों के लिए अपनी मधुमक्खियां किराए पर देना बंद कर दिया है, क्योंकि सेब परागण के बाद मधुमक्खियों के मरने की वजह से उन्हें नुकसान हो रहा था।
चौहान बताते हैं, “दो साल पहले मार्च माह में अचानक तापमान में गिरावट के कारण बड़ी तादात में मधमुक्खियां मर गई। इसके अलावा सेब किसान परागण के दौरान कीटनाशक का छिड़काव कर देते हैं, जिससे भी मधुमक्खियां मर जाती हैं, इसलिए उन्होंने अब मधुमक्खियां किराए पर देना बंद कर दिया है।” जानकार इसे नए संकट के तौर पर देखते हैं। डॉ. वाईएस परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टीकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के प्रिंसिपल साइंटिस्ट एमएस जांगड़ा कहते हैं, “परागण में अहम किरदार निभा रही मधुमक्खियों के लिए यदि सुरक्षात्मक उपाय नहीं किए गए तो आने वाले समय में संकट गहरा सकता है।”
दो दशक पहले शुरू हुआ कृत्रिम परागण
हिमाचल प्रदेश में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए मधुमक्खियों का उपयोग किया जा रहा है। प्रदेश बागवानी विभाग की वेबसाइट के मुताबिक विभाग की ओर से किसानों को परागण के लिए मधुमक्खी कॉलोनियां प्रदान की जाती हैं और मधुमक्खी पालन को बढ़ावा दिया जाता है। इसका उद्देश्य पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना और शहद तथा अन्य उत्पादों को लोकप्रिय बनाना है।
प्रदेश में आधुनिक मधुमक्खी पालन की शुरुआत 1934 में कुल्लू घाटी और 1936 में कांगड़ा घाटी में हुई थी। राज्य में 1961 तक केवल एपिस सेरेना इंडिका (भारतीय मधुमक्खी) का पालन किया जाता था, लेकिन 1961 में इटली से एपिस मेलिफेरा को राज्य के नागरोटा स्थित मधुमक्खी अनुसंधान केंद्र में लाया गया।
हालांकि 1983-84 तक एपिस मेलिफेरा केवल प्रदेश के उत्तर जोन तक सीमित थी, परंतु 1983-84 के बाद, जब एपिस सेरेना इंडिका की कॉलोनियां थाई सैक ब्रूड वायरस के कारण लगभग नष्ट हो गईं, तब से विभाग द्वारा रखी गई मधुमक्खी कॉलोनियों का 90 फीसदी से अधिक और निजी मधुमक्खीपालकों द्वारा प्रबंधित सभी कॉलोनियां अब एपिस मेलिफेरा प्रजाति की हैं।
हिमाचल प्रदेश बागवानी विकास रणनीति और निवेश योजना 2023-2030 रिपोर्ट में कहा गया है कि यह एक स्थापित तथ्य है कि मधुमक्खियों द्वारा परागण के कारण फलों की पैदावार में वृद्धि का मूल्य सीधे शहद से प्राप्त होने वाले शहद के मूल्य से 14 से 20 गुना अधिक होता है। राज्य में बागवानी बागों में उचित परागण के लिए लगभग 2,00,000 मधुमक्खी कॉलोनियों की आवश्यकता होती है।
बेशक हिमाचल प्रदेश सरकार इसे प्रबंधित परागण बताती है, लेकिन जिस तरह से बेहद व्यवस्थित ढंग से मधुमक्खियों को सेब के बगीचों में परागण के लिए स्थापित किया जाता है, उस प्रक्रिया को कृत्रिम परागण कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
शिमला जिले की सबसे बड़ी सेब बेल्ट के बड़े सेब उत्पादक राम लाल चौहान कहते हैं कि परागण संकट इतना ज्यादा गहरा चुका है कि हिमाचल प्रदेश का कोई ऐसा सेब किसान नहीं है, जो अब परागण के लिए मधुमक्खी कॉलोनियां किराए पर न ले रहा हो। वह विभाग के आंकड़ों के विपरीत दावा करते हैं कि पूरे राज्य में 4 लाख से अधिक बक्से किराए पर लिए जाते हैं। गोपाल सिंह बताते हैं कि शिमला के ऊपरी इलाकों में बहुत पहले से मधुमक्खियां किराए पर ली जाती थी, लेकिन हमारे इलाके में तीन से चार साल पहले ही शुरु हुआ है।