भेड़िए के हमले का कयास, जन्मीं कई कहानियां

इसी साल जनवरी-फरवरी माह में बहराइच में भेड़ियों के दो बच्चे किसी ट्रैक्टर से कुचलकर मर गए थे
वन्यजीव के हमले में घायल महसी क्षेत्र का एक पीड़ित, फोटो : सीएसई
वन्यजीव के हमले में घायल महसी क्षेत्र का एक पीड़ित, फोटो : सीएसई
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आदमखोर जानवर या कथित तौर पर भेड़िए के हमलों के बाद उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के महसी क्षेत्र में कई कहानियों ने जन्म लिया है। सिर्फ ग्रामीण ही नहीं बल्कि विशेषज्ञों के पास भी इसका सटीक उत्तर नहीं है कि आखिर शर्मीले माने जाने वाले भेड़िए आदमखोर कैसे हो गए?

डीएफओ अजीत सिंह डाउन टू अर्थ से बताते हैं “ऐसा संभव है कि किसी भेड़िए ने भूलवश किसी बच्चे का शिकार किया हो और इस शिकार के बाद ही वह लगातार बच्चों को अपना शिकार बनाने लगा।” हालांकि, इस कयास से अलग बहराइच जिले के कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग में वन अधिकारी रह चुके और ‘वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया’ के सलाहकार के तौर पर सेवाएं दे रहे ज्ञान प्रकाश सिंह अपने तजुर्बे के आधार पर बताते हैं कि भेड़ियों में बदला लेने की प्रवृत्ति होती है और पूर्व में इंसानों द्वारा उनके बच्चों को किसी ने किसी तरह की हानि पहुंचाई गई होगी, जिसके बदले के स्वरूप ये हमले हो रहे हैं।

वह बताते हैं कि  “20-25 साल पहले उत्तर प्रदेश के जौनपुर और प्रतापगढ़ जिलों में सई नदी के कछार में भेड़ियों के हमलों में 50 से अधिक इंसानी बच्चों की मौत हुई थी। पड़ताल करने पर पता चला था कि कुछ बच्चों ने भेड़ियों की एक मांद में घुसकर उनके दो बच्चों को मार डाला था। भेड़िया बदला लेता है और इसीलिए उनके हमले में इंसानों के 50 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई। बहराइच में भी कुछ ऐसा ही मामला लगता है।”

सिंह ने बताया कि “इसी साल जनवरी-फरवरी माह में बहराइच में भेड़ियों के दो बच्चे किसी ट्रैक्टर से कुचलकर मर गए थे। तब उग्र हुए भेड़ियों ने हमले शुरू किए तो हमलावर भेड़ियों को पकड़कर 40-50 किलोमीटर दूर बहराइच के ही चकिया जंगल में छोड़ दिया गया था शायद यह एक गलती थी क्यों कि चकिया जंगल में भेड़ियों के लिए प्राकृतिक वास नहीं है। ज्यादा संभावना यही है कि यही भेड़िये चकिया से वापस घाघरा नदी के किनारे अपनी मांद के पास लौट आए हों और बदला लेने के लिए हमलों को अंजाम दे रहे हों।”

वहीं, डीएफओ अजीत प्रताप सिंह कहते हैं कि ट्रैक्टर से भेड़िए के बच्चों के मरने की कोई जानकारी उनके पास नहीं है। हालाकिं, वह यह स्वीकार करते हैं कि मार्च के वक्त जब भेड़ियों का हमला शुरु हुआ तब चकिया जंगल में भेड़ियों को पकड़कर छोड़ दिया गया था। सिंह कहते हैं “यदि भेड़िए वापस बदला लेने के लिए घाघरा के कछार में गांवों में लौटते तो अप्रैल से लेकर जून के बीच भी हमले होते। यह संभावना बहुत कम है कि जिन भेड़ियों को चंकिया जंगल में छोड़ा गया वही भेड़िए लौटकर हमलावर हुए।”

एक और आशंका व्याप्त है कि भेड़ियों के बीच रैबीज बीमारी फैली हो और इसलिए वह पागल हो गए हों। हालांकि, अब तक पकड़े गए पांच भेड़ियों में इसकी पुष्टि नहीं हुई है। पहचाने गए छह भेड़ियों के समूह में एक भेड़िया अब भी बाहर घूम रहा है और जिसकी दहशत गांवों में है। जहां भी हमले हो रहे हैं और पशु व व्यक्ति घायल हो रहे हैं उन्हें फिलहाल रैबीज के टीके लगाए जा रहे हैं।
एक और आशंका आवारा पशुओं के कछार में जाने को लेकर भी है। ग्रामीण इस बात की पुष्टि करते हैं कि मवेशी पशुओं के समूह घाघरा नदी के कछार में उन जगहों पर जाते हैं जहां भेड़ियों की मांदे हैं। संभव है कि इन मवेशियों और भेड़ियों के बीच संघर्ष हुआ हो। इसके बाद भेड़िए आबादी में अपना शिकार बना रहे हों। डीएफओ अजीत सिंह भी इस बात से इनकार नहीं करते। वह कहते हैं कि यह बात सही है कि आवारा पशु उन स्थानों तक जाते हैं और उनकी अच्छी खासी संख्या वहां मौजूद है।

बहरहाल यह गुत्थी अब शायद सुलझ नहीं पाएगी। 28 साल पहले 1996 में  प्रतापगढ़, जौनपुर और सुल्तानपुर जिले के 40 गांवों में 30 बच्चों की जान चली गई थी। इसका कारण भेड़िया ही था। हालांकि, तब यह पुष्टि वैज्ञानिक तरीके से डीएनए जांच के जरिए की गई थी। लेकिन अभी यह पता करना कि भेड़िए ही हमलावर हैं और जिन्हें चिड़ियाघर भेज दिया गया वे ही गुनहगार थे, कहना संशय भरा होगा।

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