भारत में वनों पर नियंत्रण के लिए सालों से एक सतत संघर्ष जारी है। इस संघर्ष में एक तरफ वन समुदाय और पर्यावरणविद हैं, जबकि दूसरी तरफ सरकार के स्वामित्व वाले वन विकास निगम (एफडीसी) और निजी कंपनियां, जो औद्योगिक बागानों के लिए जंगल का अधिग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। वन विकास निगम की कारगुजारी के खिलाफ अकेले महाराष्ट्र में ही गुस्सा नहीं फूट रहा है। छत्तीसगढ़ सहित देश के आधा दर्जन से अधिक राज्यों में निगम के खिलाफ स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष चल रहा है। अन्य राज्यों में मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश आदि शामिल हैं।
1970 के दशक में वन उत्पादकता में सुधार करने के लिए देश के कई राज्यों में एफडीसी का गठन किया गया। इनका गठन राज्य में वनों की उत्पादकता बढ़ाना और वनोपज का वाणिज्यिक उपयोग करने के लिए किया गया था। कुल 19 एफडीसी वर्तमान में कार्य कर रहे हैं। एफडीसी के कब्जे में लगभग 13 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र की भूमि है। इसमें 10 लाख पौधे लगाए गए हैं।
एफडीसी और स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष की शुरुआत खास तौर से छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ इस तरह की घटनाएं एफडीसी के राज्य में गठन (2001) के साथ ही शुरू हो गई थीं। आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में राज्य वन विकास निगम के अपने-अपने मायने हैं। इससे प्रभावित हो रहे आदिवासियों या निवासियों जो वन आधारित गांवों में रहते हैं या जिन्हें वन अधिकार अधिनियम के तहत व्यक्तिगत पट्टा या सामुदायिक पट्टा मिल चुका है, उनके नजरिए से देखें तो यह सरकार द्वारा बनाया गया एक ऐसा निगम है जो उनके अधिकारों में जबरिया घुसपैठ अपने गठन के बाद से ही करता आ रहा है और उन्हें मिल रहे लाभ या अधिकारों में कटौती करता है। यही नहीं, वह प्राकृतिक वनों का विनाश भी करता है। दूसरे अर्थों में कहें तो सरकार ही वन विकास निगम के माध्यम से लाभ कमाना चाहती है। ऐसे में संघर्ष होना लाजिमी हो जाता है। नतीजतन राज्य में कई जगहों पर संघर्ष का स्वरूप ऐसा है कि पीड़ित जनता अपने हक के लिए अनेक जगह सरकार और राज्य वन विकास निगम से दो-दो हाथ करने तैयार बैठे दिखती है।
ऐसा नहीं है कि वन विकास निगम को लेकर आदिवासियों में पनप रहा गुस्सा आज की बात है। वनवासियों के अधिकार को लेकर लड़ाई लड़ने वालों की मानें तो विवाद का यह सिलसिला काफी पुराना है। आदिवासी अधिकार समिति की सदस्य सुलक्षणा नंदी बताती हैं कि 2006 में वन विकास निगम का कोरिया-कवर्धा-सरगुजा के लिए वर्किंग प्लान मंजूर हुआ था, जिसमें जंगल को काट कर पौधारोपण करना था। बड़े पैमाने पर जंगल कटाई शुरू हुई। लोगों को पता चला कि वन मंत्रालय से इसकी मंजूरी मिली हुई है। इसके बाद बिलासपुर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका लगाई गई।
वस्तुस्थिति जानने के लिए केंद्रीय वन मंत्रालय द्वारा एक जांच टीम भेजी गई। जांच के दौरान यह पता चला कि जो घना वन था, उसे छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम ने कम सघन एवं “बिगड़े वन” बताया था। इसके बाद केंद्रीय मंत्रालय ने अपनी मंजूरी वापस ले ली और वन विकास निगम को अपना काम रोकना पड़ा। सुलक्षणा के मुताबिक, यह लड़ाई छह से सात महीने तक चली और इसे महिलाओं ने ही आदिवासी अधिकार समिति नामक संगठन के बैनर तले लड़ा। इसका व्यापक असर यह हुआ कि कोरिया, कवर्धा और सरगुजा तीनों जगह एक ही साथ जंगल की अवैध कटाई रुक गई। भले ही जंगल की इस तरह होने वाली कटाई पर तत्कालीन रोक लग गई हो। लेकिन कई जगह पर आज भी यह काम धड़ल्ले से जारी है। इसके बावजूद इस तरह के विरोध का दमन करने के लिए तमाम तरह के सरकारी हथकंडे भी अपनाए जा रहे हैं। हाल ही में इस तरह की घटना राज्य के राजनांदगांव जिले में घटी।
यह वही राजनांदगांव है, जहां से पूर्व मुख्यमंत्री रमण सिंह और उनके बेटे अभिषेक सांसद के रूप में चुने गए थे। राजनांदगांव में 2015 से 25 गांवों के ग्रामीणों (जिनमें ज्यादातर आदिवासी हैं) और छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के मध्य तनातनी चल रही है। तनातनी का नतीजा यह रहा कि ग्रामीणों ने वन विकास निगम के द्वारा काटी गई लकड़ी, औजार, गाड़ी सबको जब्त करके ग्रामसभा के हवाले कर दिया है। स्थिति यह है कि राज्य वन विकास निगम वाले कोई भी अधिकारी इसे छुड़ाने की किसी भी तरह की कोशिश नहीं कर रहे हैं। इस पर राजनांदगांव के वनांचल वनाधिकार फेडरेशन के सदस्य जयदेव मोहले कहते हैं कि उनके क्षेत्र में पेसा कानून लागू है, वनाधिकार पट्टे लागू हैं, उसके बाद भी छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के अधिकारियों ने अपने मजदूरों और मातहतों के साथ जबरन घुसपैठ कर लकड़ी काटने का दु:स्साहस किया। ऐसे में आदिवासियों और ग्रामीणों ने अगर विधि सम्मत कार्रवाई की तो क्या गलत किया? जयदेव का कहना है कि हम इस मसले पर निगम और सरकार से कानूनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं। चूंकि हम सही हैं इसलिए अभी तक वन विकास निगम वाले अपनी गाड़ी और लकड़ी को छुड़वाने भी नहीं आए।
दलित आदिवासी मुक्ति मोर्चा के सदस्य देवेंद्र बघेल कहते हैं, “बार-नवापारा को अभ्यारण्य दर्जा हासिल है। पिथौरा से लेकर बलौदाबाजार तक फैले इस अभ्यारण्य में धड़ल्ले से बांस और सागौन के साथ अन्य पेड़ भी सफाई के नाम पर काट दिए जाते हैं। अवैध कटाई जारी है लेकिन अभी तक सभी ग्रामीणों के वनाधिकार अधिनियम के तहत उन्हें पट्टा नहीं मिला है। जहां मिला है, वहां भी निगम वाले जबरिया पौधारोपण कर देते हैं। विरोध करने पर मार-पिटाई से लेकर थाना-पुलिस में मामला दर्ज करा दिया जाता है।”
कांकेर में वन विकास निगम के खिलाफ आदिवासियों के हित में अपनी आवाज बुलंद करने वाले वन्य कार्यकता अनुभव शौरी बताते हैं कि 300 एकड़ में फैले जंगल को अवैध रूप से काट दिया गया। कांकेर के अंतागढ़ में कई किसानों की निजी जमीन पर वन विकास निगम ने जबर्दस्ती कैंपा योजना के तहत प्लांटेशन कर दिया है। वो भी तब, जबकि सबको यह पता है कि पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी बहुल इन क्षेत्रों में पेसा कानून लागू है। बिना ग्राम सभा के अनुमति के इस तरह से काम करना गैरकानूनी है। शौरी बताते हैं कि इस संदर्भ में आदिवासियों एवं पीड़ित ग्रामीणों की ओर से सैकड़ों आवेदन तमाम सरकारी महकमे के प्रमुख को दिए गए हैं। लेकिन आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। लेकिन अब हम नहीं रुकेंगे। हम अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे। यहां सीधे संविधान का उल्लंघन हो रहा है। सरगुजा में लंबे समय से आदिवासियों के लिए वन अधिकार पर काम कर रहे गंगा भाई बताते हैं कि उनके क्षेत्र में तो कई गांव वालों ने फैसला किया है कि वन निगम वालों को अपने क्षेत्र में न तो घुसने देंगे और न ही पेड़ काटने देंगे।
दूसरी ओर “छत्तीसगढ़ बचाओ” आंदोलन के अध्यक्ष आलोक शुक्ला कहते हैं, “वन विकास निगम का वनों का विकास करने का तरीका गजब है। पहले ये जंगल में घुसकर घने जंगल क्षेत्र को छोटे झाड़ एवं कम सघन जंगल वाला बताते हैं, पुराने पेड़ों को सफाई के नाम पर कटवाते हैं, फिर नए पौधे कैंपा जैसे प्रोजेक्ट के तहत लगाते हैं और ये पौधे देखते-देखते खत्म हो जाते हैं, क्योंकि उनकी देखभाल नहीं की जाती। इस तरह से राज्य में जंगल के जंगल साफ होते जा रहे हैं।” वन विकास निगम के रुख को लेकर आदिवासियों के अंदर पनप रहे असंतोष और विरोध को लेकर चुनावी साल होने के कारण कोई भी राज्य का अधिकारी सीधे-सीधे कुछ कहना नहीं चाह रहा है। काफी मशक्कत के बाद छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के अध्यक्ष श्रीनिवास राव मद्दी निगम का पक्ष रखने को तैयार हुए। मद्दी ने कहा, “यह मुख्यत: एक निगम है, जिसका उद्देश्य है केंद्र और राज्य सरकार के राजस्व में वृद्धि करना। इसके लिए निगम शासन से लीज पर कमर्शियल प्लांटेशन के लिए जमीन लेती है और वहां प्लांटेशन करती है, जहां बंजर जमीन है या कम सघन जंगल हैं। हमारे यहां बांस भी है, टिंबर भी है लेकिन 90 फीसद प्लांटेशन सागौन का है। रही बात विरोध की तो वो ऐसा नहीं है, जनता को तो इससे फायदा ही होता है, उन्हें रोजगार मिलता है। हम इसमें अब वन ग्राम समितियों को शामिल करना चाहते हैं। इसके लिए सरकार से बात चल रही है।”