मिजोरम में मिली उड़ने वाली छिपकली की नई प्रजाति 'गेको मिजोरमेंसिस', जानिए कैसे है दूसरों से अलग

आज गेको छिपकलियों की 1,200 से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो छिपकलियों की सभी ज्ञात प्रजातियों का करीब पांचवां हिस्सा हैं
मिजोरम में खोजी गई उड़ने वाली छिपकली की नई प्रजाति 'गेको मिजोरमेंसिस'; फोटो: एच टी लालरेमसंगा
मिजोरम में खोजी गई उड़ने वाली छिपकली की नई प्रजाति 'गेको मिजोरमेंसिस'; फोटो: एच टी लालरेमसंगा
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प्रकृति के बारे में जितना ज्यादा हम समझते हैं उतने ज्यादा नए रहस्य हमारे सामने खुलते जाते हैं। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि प्रकृति में ऐसा बहुत कुछ है जिसे खोजा जाना बाकी है। ऐसा ही कुछ मिजोरम में देखने को मिला हैं। जहां हाल ही में ग्लाइडिंग या पैराशूट गेको की एक नई प्रजाति खोजी गई है। चूंकि यह प्रजाति मिजोरम के जंगलों में खोजी गई है इसलिए वैज्ञानिकों ने इसे 'गेको मिजोरमेंसिस' नाम दिया है।

इस गेको छिपकली को मिजोरम विश्वविद्यालय और मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजी के शोधकर्ताओं द्वारा खोजा गया है। इससे जुड़ी विस्तृत जानकारी जर्मन जर्नल ऑफ हर्पेटोलॉजी सैलामैंडरा के मई अंक में प्रकाशित हुई है। देखा जाए तो यह प्रजाति उत्तरी भारत में छिपे जैवविविधता के खजाने को प्रदर्शित करती है।

इसके बारे में पता चला है कि यह छिपकली अन्य फ्लाइंग गेकोस की तरह की ही नई प्रजाति है जो करीब 20 सेंटीमीटर लम्बी होती है। यह रात्रिचर होती है और एक पेड़ से दूसरे पेड़ों पर ग्लाइडिंग करती है। बता दें कि यह गेको की उन 14 प्रजातियों में से एक है, जो हवा में इस तरह ग्लाइड कर सकती है।

गौरतलब है कि इस प्रजाति के नमूनों को 20 साल पहले एकत्र किया गया था। लेकिन इसके दूसरे करीबी रिश्तेदारों और इसके बीच अंतर अभी खोजा गया है। इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता जीशान मिर्जा ने जानकारी दी है कि, “पूर्वोत्तर भारत में मौजूद जैवविविधता उतनी प्रसिद्ध नहीं है जितना उसे होना चाहिए, इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यहां के घने जंगल हैं। लेकिन हाल ही में होते विकास ने इन तक पहुंच संभव बना दी है। वहीं दूसरी तरफ जंगलों का होता विनाश वहां मौजूद जैवविविधता को खतरे में डाल रहा है।“

उनके मुताबिक अतीत में अधिकांश अध्ययन पक्षियों और स्तनधारियों जैसे करिश्माई जीवों पर केंद्रित रहा है, जिससे सरीसृप प्रजातियों की खोज नहीं हो पाई है। उन्हें भरोसा है कि अतिरिक्त फील्डवर्क के साथ, इस क्षेत्र में सरीसृपों की और नई प्रजातियों को खोजा जा सकेगा।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यह छिपकली गेको प्रजाति का एक सरीसृप जीव है। गेको, अंटार्कटिका को छोड़कर करीब-करीब सभी महाद्वीपों में पाई जाती है। इन रंगीन छिपकलियों ने वर्षावनों से लेकर रेगिस्तानों और ठंडे पहाड़ी ढलानों तक में रहने के लिए अपने आप को अनुकूल कर लिया है।

रिसर्च के अनुसार गेको सरीसृपों के सबसे पुराने जीवित समूहों में से एक है। माना जाता है कि यह सबसे पहले विकसित होने वाले स्क्वामेट्स में से एक हैं। स्क्वामेट्स समूह जिसमें सभी  छिपकलियां, सांप और उनके करीबी रिश्तेदार शामिल है। इनके पूर्वज लाखों साल पहले के जीवाश्म रिकॉर्ड में भी देखे गए हैं।

शुरूआती गेकोस ने करीब 10 करोड़ साल पहले ही अपनी कुछ प्रमुख विशेषताओं को विकसित कर लिया था। प्राप्त जीवाश्मों और उनके अध्ययन से पता चला है कि इन जीवों ने अपने पैरों में चिपकने वाले पैड की तरह संरचना विकसित कर ली थी। जो उन्हें किसी भी सतह पर चढ़ने में मदद करते हैं।

क्या कुछ बनाता है इन छिपकलियों को अलग

इसी तरह इस जीव ने अन्य तरह के अनुकूलन जैसे  शिकारियों को विचलित करने या अंधेरे में अच्छी तरह से देखने की क्षमता विकसित कर ली थी। अपनी पूंछ को दोबारा विकसित कर लेने की क्षमता ने इन्हें काफी हद तक मदद की है।

आंकड़ों की मानें तो आज गेको छिपकलियों की 1,200 से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो छिपकलियों की सभी ज्ञात प्रजातियों का करीब पांचवां हिस्सा हैं। इनमें उड़ने वाले गेकोस काफी विशिष्ट प्रजाति है, जिसने अपने आप को एक अलग समूह के रूप में विकसित कर लिया है।

दूसरे ग्लाइडिंग सरीसृपों के विपरीत, जो अपनी उड़ने वाली सतहों के निर्माण के लिए हड्डी का उपयोग करते हैं, वहीं गेकोस इसके लिए त्वचा की मदद लेते हैं। यह छिपकलियां हवा में गिरते या कूदते समय अपनी त्वचा को पैराशूट की तरह उपयोग करती हैं जो हवा को धीमा कर देता है। साथ ही यह उन्हें अपने झिल्लीदार पैरों और चपटी पूंछ की मदद से हवा में यात्रा के समय अपने लक्ष्य पर सुरक्षित उतरने में मदद मिलती है।

उनके शरीर की बनावट और रंग रूप शिकारियों से बचने में उनकी मदद करता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक नई खोजी गई गेको प्रजाति 'गेको मिजोरमेंसिस' आनुवंशिक विश्लेषण के साथ आकार और रंग में मामूली अंतर के कारण अन्य गेको प्रजतियों से अलग है।

माना जा रहा है कि अपने निकटतम रिश्तेदार गेको पोपेंसिस से अराकान पर्वत द्वारा अलग हो गई थी। गौरतलब है कि अराकान पर्वत में कई अलग-अलग प्रकार की छिपकलियां पाई जाती हैं।

शोधकर्ताओं का मत है कि न केवल भारत बल्कि बांग्लादेश और म्यांमार के आसपास के क्षेत्रों में भी गेकोस की कई और प्रजातियां हो सकती हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं ने इनपर और ज्यादा अध्ययन की सिफारिश की है ताकि यह जाना जा सके की इन जंगलों में गेको की और कितनी प्रजातियां छिपी हुई हैं।

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