प्रकृति के असल रक्षक हैं वनवासी : वैश्विक रिपोर्ट

अंतर सरकारी विज्ञान नीति मंच (आईपीबीईएस) ने अपनी वैश्विक रिपोर्ट में कहा है कि देशज और स्थानीय समुदाय के ज्ञान को अब तक वैश्विक संरक्षण कार्यक्रमों में कोई जगह नहीं मिली है।
Photo : Shruti Agarwal
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दुनिया में हर जगह जैव-विविधता में अप्रत्याशित गिरावट हो रही है लेकिन कुछ जगहें ऐसी हैं जहां के देशज लोगों ने अब भी जमीन और उस पर मौजूद जैवविविधता को बचा और संजोकर रखा है। जैव-विविधता और पारिस्थितिकी सेवाओं के अंतर सरकारी विज्ञान नीति मंच (आईपीबीईएस) ने अपनी वैश्विक रिपोर्ट में यह बात कही है।

6 मई को पेरिस में जारी की गई आईपीबीईएस की रिपोर्ट में कहा गया है कि कई तरह से बढ़ते दबावों के बावजूद देशज और स्थानीय लोगों के जरिए प्रकृति का प्रबंधन किया जा रहा है। यही वजह है कि अन्य स्थानों की अपेक्षा देशज लोगों की देख-रेख में मौजूद जमीनों पर जैवविविधता को नुकसान कम हुआ है। आईपीबीईएस ने पृथ्वी पर मौजूद जैवविविधता और उसकी क्षति को लेकर तैयार अपनी आकलन रिपोर्ट में कहा है कि अध्ययन में इंसानी दखल के कारण जैवविविधता की क्षति को लेकर बेहद चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इंसानों की ओर से फैलायी जा रही अशांति के कारण 10 लाख जीव और वनस्पतियों की प्रजातियों की विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। जबकि एक दशक के भीतर ही हजारों प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।

जमीन और उपलब्ध जैवविविधता पर काफी दबाव है। इनमें देशी प्रजातियों की बड़ी भूमिका है रिपोर्ट में कहा गया है कि विविध दौर और शासन में देशज व स्थानीय लोगों को इसका बड़ा खामियाजा उठाना पड़ रहा है। खासतौर से अनाज उत्पादन, खनन और परिवहन, ऊर्जा के लिए संरचना जैसे कामकाज में बढ़ोत्तरी के कारण स्थानीय जिंदगियों की सेहत भी खराब हो रही है। वहीं, जलवायु परिवर्तन की समस्या को कम करने के लिए शुरु किए गए कार्यक्रम भी देशज या स्थानीय लोगों के लिए नकारात्मक साबित हो रहे हैं। रिपोर्ट तैयार करने वाली आईपीबीईएस एक स्वतंत्र अंतरसरकारी संस्था है। इसमें 132 प्रतिनिधि शामिल हैं। इसकी स्थापना 2012 में की गई थी। संस्था का काम जैवविविधता और पारिस्थितिकी सेवाओं के संरक्षण को लेकर एक बेहतर नीति की ओर बढ़ना है।  

रिपोर्ट के मुताबिक देशज लोगों के साथ दुनिया के सर्वाधिक गरीब समुदायों को वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु, जैव-विविधता, पारिस्थितिकी सेवाओं में बदलाव का सबसे अधिक दुष्परिणाम झेलना पड़ रहा है। देशज और स्थानीय लोगों ने अन्य हितधारकों के साथ मिलकर इन समस्याओं से लड़ने के लिए एक जुगलबंदी तैयार कर ली है। उनके पास स्थानीय नेटवर्क के साथ स्थानीय प्रबंधन भी है। हालांकि, देशज और स्थानीय लोगों के पारंपरिक और स्थानीय ज्ञान और दृष्टिकोण का किसी भी तरह से वैश्विक संरक्षण कार्यक्रमों में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। पर्यावरणीय शासन को बेहतर करने और प्रकृति व जैवविविधता के संरक्षण को मजबूती देने के लिए जरूरी है कि देशज ज्ञान, खोज और अभ्यास के साथ संस्थाओं और उनके मूल्यों का समावेश किया जाए। इससे न सिर्फ देशज व स्थानीय लोगों की जीवन गुणवत्ता को बेहतर बनाया जा सकेगा बल्कि य व्यापक स्तर पर समाज के लिए हितकारी और लाभकारी होगा।

इस रिपोर्ट को वन अधिकार कानून (एफआरए) 2006 के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले के आलोक में देखना अहम होगा। एफआरए के तहत केंद्रीय कानून वनवासियों को जंगल की जमीन का कानूनी अधिकार देती है, हालांकि राज्य इसके बिल्कुल विरुद्ध हैं। राज्यों का कहना है कि वनवासी ही जंगल में अतिक्रमणकारी हैं और जंगल की दुर्गति के कारण हैं।

सिर्फ आईपीबीईएस की ही रिपोर्ट देशज और स्थानीय लोगों का संरक्षण के साथ रिश्ता नहीं जोड़ती है बल्कि 2014 में वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की ओर से जारी रिपोर्ट में भी कहा गया था कि जंगल में रहने वालों को कानूनी अधिकार और आधार दिया जाना चाहिए इससे न सिर्फ जंगल का कटाव रुकेगा बल्कि कार्बन डाई ऑक्साइड में भी कमी आएगी। सीक्यूरिंग राइट्, कॉम्बेटिंग क्लाइमेट चेंज शीर्षक रिपोर्ट में भी इस बात का उल्लेख है कि ब्राजील के जंगल वहां के देशज लोगों की उपस्थिति में 2000 से 2012 के बीच सिर्फ एक फीसदी घटे जबकि उनके बाहर जंगलों का कटाव 7 फीसदी हुआ।

पर्यावरण के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था ग्लोबल एवर ग्रीनिंग एलाइंस की रोहिणी चतुर्वेदी ने कहा कि पूरी दुनिया में इस बात के सबूत हैं और वे पुख्ता हो रहे हैं कि देशज समुदायों को उनके जमीनी अधिकार दिए जाने से जंगलों का कटाव कम होता है। यह पहली बार है कि देशज लोगों के जमीन संबंधी अधिकार का मुद्दा मुख्य धारा का मुद्दा बना है।

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