एमपी में सुधार के नाम पर निजी क्षेत्रों को दी जाने वाली वन भूमि पर पहले से है नारंगी भूमि का विवाद

एमपी सरकार ने हाल ही में 37 लाख हैक्टेयर संरक्षित वन भूमि को निजी क्षेत्र को देने का फैसला किया है, लेकिन यह वन भूमि पहले से ही विवादित है।
एमपी में सुधार के नाम पर निजी क्षेत्रों को दी जाने वाली वन भूमि पर पहले से है नारंगी भूमि का विवाद
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अब तक आपने कई प्रकार की जमीनों के बारे में पढ़ा और जाना होगा लेकिन नारंगी या ऑरेंज भूमि के बारे में यदाकदा ही जाना और समझा होगा। यह नारंगी भूमि फिर से चर्चा में है। दरअसल हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने अपने यहां बिगड़े वनों को सुधारने के लिए लगभग 37 लाख हैक्टेयर संरक्षित वन भूमि को निजी क्षेत्रों में देने का फैसला किया है। यही वन भूमि पिछले पांच दशक से नारंगी भूमि के नाम से विवादों में है। मध्य प्रदेश के जिलों के 70 प्रतिशत हिस्से और उसके 50 प्रतिशत गांवों में नारंगी भूमि मौजूद है। मई, 2019  में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक कार्य बल का गठन किया था। इसका उद्देश्य था राजस्व व वन विभागों के बीच नारंगी क्षेत्रों से सबंधित विवादों को हल करने  संबंधी प्रक्रिया साफ हो, नारंगी क्षेत्र की भूमि का कानून और कानूनी स्थिति स्पष्ट हो, समाधान के लिए सिद्धांतों को विकसित करना, आदिवासी और वन समुदायों के अधिकारों सहित संरक्षण  और विकास की जरूरतों को संतुलित करना मुख्य काम था। कार्य बल की रिपोर्ट इसी साल अप्रैल में आई है।

राज्य सरकार ने 1970 के दशक में किसानों को यह भूमि खाद्य फसलें उगाने के लिए पट्टे पर दिए थे। पट्टों की जमीनों को 1975 में खेतों के रूप में परिवर्तित किया जाना था लेकिन वन और राजस्व विभागों के बीच मतभेद के कारण ऐसा नहीं हुआ, किसानों को दोनों विभागों द्वारा अतिक्रमणकारी माना जाता है और नियमित रूप से जुर्माना लगाया जाता है। ऐसे में नारंगी भूमि के इतिहास को समझने के लिए अतीत में जाना होगा।

मध्य प्रदेश के वनों पर लगातार अध्ययन करने वाले राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि वन कानून के माध्यम से देश के जंगलों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया। पहला आरक्षित वन कहा गया। ऐसा क्षेत्र जिसे भारतीय वन अधिनियम 1927 के अन्तर्गत पूर्ण रूप से वन अधिसूचित किया गया है। वह कहते हैं कि आरक्षित वनों के क्षेत्रफल में हर तरह की गतिविधि प्रतिबंधित होती है। जहां बिना अनुमति के कोई भी काम या गतिविधि नहीं किया जा सकता है। दूसरी श्रेणी के जंगल जिन्हे संरक्षित वन कहा गया, उनमें स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजिकरण किया जाना था और अधिग्रहण नहीं किया जाना था। ये जंगल स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन थे जो इन जंगलों में बसे थे और जिनका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय निस्तार जरूरतों के लिए भी करते थे। इन संरक्षित वनों का एक बड़ा हिस्सा निस्तार अधिकारों के लिए सामान्य अधिसूचना के माध्यम से छोड़ दिया गया परन्तु इसे पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं किया गया, जिसका खामियाजा इन आदिवासी समुदायों को ऐतिहासिक अन्याय के रूप में भुगतान पड़ रहा है। इसी बात की पुष्टि वन अधिकार कानून 2006 भी करता है।

शहडोल जिले के पूर्व सबडिविजन ऑफिसर संतदास तिवार ने बताया कि 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य की भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था, जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक भूमि दर्ज थी। सन 1958 में वयक्तिगत एवं सामुदायिक अधिकारों का अभिलेखन के बिना ही 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि में से 91.274 लाख हैक्टेयर वनभूमि को संरक्षित भूमि मानकर 1961 से डिमारकेशन शुरू कर दिया और 56.310 लाख हैक्टेयर जमीनों को आरक्षित वन बनाएं जाने हेतु वन अधिनियम 1927 की धारा 4(1) के तहत अधिसूचित कर दिया। लेकिन धारा 5 से 19 तक की कार्यवाहीयों के बिना ही इन जमीनों को वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया गया। इन लाखों हैक्टेयर सामुदायिक जमीन में से वन विभाग ने वन विकास और वानिकी प्रबंधन के लिए उपयुक्त माना गया और उसे अपने नक्शे पर हरे रंग से रंग दिया। दूसरी ओर जो जमीन गांव के निस्तार, गांव के फैलाव जैसे संभावनाओं के लिए जमीनों का उपयोग किया जा रहा था, उसे अनुपयुक्त माना गया। इसे राजस्व विभाग ने नारंगी रंग से रंग दिया, इसे ही नारंगी भूमि का नाम दिया गया।

ध्यान देने की बात है कि 91.274 लाख हैक्टेयर जमीन संरक्षित मान लिए जाने के बाद इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों का हक दिए जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाओ योजना के तहत हस्तांतरित किया, वहीं कुछ जमीनें 1975 में राज्य मंत्रीमंडल के निर्णय के तहत हस्तांतरित किया गया। समस्त भूमि को नारंगी भूमि मानकर उनका सीमांकन एवं सर्वे मई, 1966 से किया गया जो आज भी चल रहा है परन्तु कोई नतीजा नहीं निकल सका है। यही नहीं वन विभाग ने 49 हजार 577 काबिजों को 1980 के बाद का अतिक्रमणकारी बता कर 30 जून, 2006 तक बेदखल भी कर चुका है।

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