देश के पर्यावरण की निगरानी करने वाली सीईसी के ढांचे में बदलाव, विशेषज्ञों ने उठाए सवाल

इस बारे में जारी नई अधिसूचना ने केंद्र सरकार को असीमिति शक्तियां दे दी हैं
देश के पर्यावरण की निगरानी करने वाली सीईसी के ढांचे में बदलाव, विशेषज्ञों ने उठाए सवाल
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केंद्र सरकार ने पांच सितंबर 2023 को एक स्थाई केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) के गठन की अधिसूचना जारी कर दी है। बता दें कि सरकार ने यह घोषणा सुप्रीम कोर्ट द्वारा 18 अगस्त, 2023 को दिए आदेश के मद्देनजर जारी की है। अपने इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से सीईसी को एड हॉक की जगह स्थाई बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए कहा है।

गौरतलब है कि सीईसी पिछले दो दशकों से खनन और वनों के भीतर परियोजनाओं को दी जाने वाली अनुमति से जुड़े मामलों में न्यायालय की मदद कर रही है।

सरकार की इस घोषणा के बाद पर्यावरण मुद्दों पर काम करने वाली यह समिति, जो अब तक एड हॉक थी, उसे अब एक स्थाई वैधानिक निकाय के रूप में मान्यता मिल जाएगी। इस समिति को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2002 में दिए निर्देशों के अनुसार स्थाई किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में टीएन गोदावर्मन बनाम यूनियन ऑफ स्टेट्स मामले के दौरान इस पैनल का गठन किया था। यह वन और वन्यजीव मामलों से संबंधित अदालत के फैसलों की निगरानी करने के लिए बनाई एक राष्ट्रीय स्तर की समिति है, जो उन मामलों की पहचान करने के लिए जिम्मेदार थी, जहां कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं किया जा रहा था।

यहां तक को सब सही था लेकिन केंद्र सरकार ने जो इस समिति के ढांचे में बदलाव किए हैं उसको लेकर विशेषज्ञों खुश नहीं हैं। बता दें की इस नई ढांचे में गैर-सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े दो सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है। इस बारे में विशेषज्ञों ने चिंता जताते हुए कहा है कि सरकार के इस कदम से समिति की जवाबदेही और स्वतंत्रता कम हो जाएगी।

इस नई व्यवस्था के तहत, समिति में जहां एक अध्यक्ष, एक सदस्य सचिव और अन्य तीन विशेषज्ञ सदस्य होंगे जो केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा नियुक्त सिविल सेवक होंगे। हालांकि पहले गैर सरकारी नियुक्तियां विशेषज्ञ सदस्यों द्वारा की जाती थी।

इस बारे में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की क्लाइमेट एंड इकोसिस्टम टीम के एक वरिष्ठ विशेषज्ञ देबादित्यो सिन्हा का कहना है कि, "हालांकि यह कानूनी रूप से सही है और अदालत ने इसके गठन का आदेश भी दिया है, लेकिन सरकार को अब अधिकारियों की नियुक्ति से जुड़े महत्वपूर्ण अधिकार और प्रभाव प्राप्त मिल गए हैं। ऐसे में समिति के लिए सरकार के दृष्टिकोण को चुनौती देना मुश्किल हो सकता है।"

सिन्हा ने उल्लेख किया कि सीईसी ने काजीरंगा टाइगर रिजर्व और मोल्लेम गोवा परियोजना जैसे मामलों में पर्यावरण की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसका एक लम्बा इतिहास रहा है। सीईसी ने पहली तीन परियोजनाओं के खिलाफ सुझाव दिए थे, जो मोल्लेम नेशनल पार्क और वन्यजीव अभयारण्य को प्रभावित करते थे। समिति ने दक्षिण पश्चिम रेलवे की दोहरीकरण परियोजना को रद्द करने, बिजली लाइनों को स्थानांतरित करने और राष्ट्रीय राजमार्ग को चौड़ा करने की भी सिफारिश की थी।

गौरतलब है कि ढांचे में संशोधन के अलावा, अधिसूचना के खंड 3 में केंद्र ने अंतिम निर्णय लेने के अधिकार को बरकरार रखा है। अधिसूचना के मुताबिक, यदि राज्य या केंद्र सरकार सीईसी के किसी सुझाव या सिफारिश से असहमत हैं, तो उन्हें अपनी असहमति का लिखित कारण देना होगा और, इस मामले पर सरकार का फैसला अंतिम माना जाएगा। सिन्हा का कहना है कि इसका मतलब यह है कि चूंकि सरकार के पास अंतिम अधिकार है, ऐसे में समिति स्वतंत्रत नहीं है, और इसका इस्तेमाल राज्यों द्वारा लिए गए निर्णयों को पलटने के लिए किया जा सकता है।

गोवा फाउंडेशन के निदेशक क्लाउड अल्वारेस का कहना है कि यह कदम सामान्य प्रवृत्ति का हिस्सा है जिसके तहत सभी संगठनों को सरकारी नियंत्रण में लाया जा रहा है। उनका कहना है कि जब बाघ संरक्षण, वन सलाहकार, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड और स्थायी समितियां पहले से ही मौजूद हैं, तो मुझे वैधानिक निकाय बनाने का कोई मतलब नहीं दिखता। क्या इसका मतलब यह है कि जो निकाय हैं वो प्रभावी नहीं हैं, जो एक व्यापक संगठन बनाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

उनका आगे कहना है कि यह एक भ्रमित करने वाली स्थिति है। उनके मुताबिक सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति इस बात की गारंटी नहीं देती है कि वे उस सरकार को चुनौती देंगे जिसके लिए वे काम करते हैं।

पर्यावरण वकील ऋतविक दत्ता सीईसी के उद्देश्य पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि, यह विडंबनापूर्ण लगता है कि एक एड हॉक (अस्थाई) निकाय 21 वर्षों तक अस्तित्व में था, लेकिन नया स्थाई निकाय केवल तीन वर्षों के लिए अस्तित्व में रहेगा। उनका मानना है कि इस समिति की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) पहले से ही मौजूद है। उनके अनुसार, कोई भी, चाहे वह राज्य या केंद्र सरकार हो या एक व्यक्ति के रूप में, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य है, इसलिए एक अलग निगरानी तंत्र की आवश्यकता नहीं है।

दत्ता के अनुसार, सीईसी में शुरू से ही सेवानिवृत्त वन अधिकारी शामिल थे, इसलिए यह पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं था और इसमें पारदर्शिता का अभाव था। मानवाधिकार उल्लंघन और प्रदूषण जैसे अन्य मुद्दों पर यदि सर्वोच्च न्यायालय मामलों की सुनवाई करता है, तो वह पर्यावरण संबंधी मामलों को भी संभाल सकता है।

दत्ता ने यह भी बताया कि सीईसी एक विशेषज्ञ निकाय नहीं है, उसकी कभी कोई वेबसाइट या फंक्शनल कार्यालय नहीं था, और कभी भी कोई रिपोर्ट या निष्कर्ष प्रकाशित नहीं किया गया। वह सवाल करते हैं कि नए प्रावधान, जो केंद्र सरकार को अंतिम अधिकार देते हैं, उन्हें सीईसी को सशक्त बनाने के रूप में कैसे देखा जा सकता है, जैसा कि सरकार अपनी अधिसूचना में दावा करती है।

उनका यह भी कहना है कि कई मामलों में केंद्र सरकार के निर्णय लेने से पहले ही सीईसी ने सुप्रीम कोर्ट को अनुमोदन रिपोर्ट सौंप दी थी। उनकी राय में कमेटी को भंग कर देना चाहिए था।

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