ध्रुवीय भालू, बाघ, बंदर, डॉलफिन जैसी सैकड़ों वन्यजीव प्रजातियों में मिले केमिकल्स के सबूत

कई केमिकल्स ऐसे हैं जो हजारों वर्षों तक पर्यावरण में रहने के बाद भी नष्ट नहीं होते। मतलब कि वातावरण में मुक्त होने के बाद यह हानिकारक केमिकल्स नष्ट न होने के कारण लगातार बढ़ते जा रहे हैं
फोटो: आईस्टॉक
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वैज्ञानिकों को ध्रुवीय भालू से लेकर बाघ, बंदर और डॉलफिन जैसी मछलियों की 330 वन्यजीव प्रजातियों में 'फॉरएवर केमिकल्स' के पाए जाने के सबूत मिले हैं। जो दर्शाते हैं कि इंसानों द्वारा बनाया यह केमिकल न केवल पर्यावरण बल्कि उसमें रहने वाले अनगिनत जीवों के शरीर में पहुंच चुका है और उन्हें नुकसान पहुंचा रहा है। इनमें से कई प्रजातियां पहले ही खतरे में हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि फॉरएवर केमिकल यानी 'पीएफएएस' के पाए जाने के यह सबूत किसी क्षेत्र विशेष, देश या महाद्वीप तक सीमित नहीं हैं बल्कि भारत, बांग्लादेश सहित पूरी दुनिया में वन्यजीवों में इनके पाए जाने की पुष्टि हुई है। जो दर्शाता है कि हमारे पर्यावरण पर यह हानिकारक केमिकल्स किस तरह हावी हो चुके हैं।

गौरतलब है कि इससे पहले भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई वन्यजीव प्रजातियों जैसे पक्षियों, मछलियों, सरीसृपों जैसे मेंढक, उभयचर और बड़े स्तनधारी जीवों जैसे घोड़े, और छोटे स्तनधारी जीवों जैसे बिल्लियों, ऊदबिलाव और गिलहरी में इन हानिकारक केमिकल्स के मिलने की बात कही थी लेकिन पहली बारे वैज्ञानिकों ने इन सैकड़ों अध्ययनों का विश्लेषण करके वन्यजीवों में इन हानिकारक केमिकल्स के पाए जाने का एक वैश्विक मैप तैयार किया है।

अमरीका के एनवायर्नमेंटल वर्किंग ग्रुप (ईडब्लूजी) द्वारा बनाया यह मैप इस बात की पुष्टि करता है कि दुनियाभर में सैकड़ों प्रजातियां इस हानिकारक फॉरएवर केमिकल 'पीएफएएस' यानी पर-एंड पॉलीफ्लोरोअल्काइल पदार्थों के चलते खतरे में हैं। पीएफएएस जैसे हानिकारक रसायन को ट्रैक करने वाले इस संगठन ने मैप के जरिए जानकारी दी है कि इन प्रदूषकों से दुनिया में कहां-कहां, किन वन्यजीव प्रजातियों को इनसे खतरा है।

मैप के मुताबिक जहां भारत, बांग्लादेश में हिल्सा, सिल्वर पोम्फ्रेट, बॉम्बे-डक, लॉन्ग टंग सोल, पामा क्रोकर, इंडियन श्रिंप और मड क्रैब में इनके पाए जाने के सबूत मिले हैं। वहीं चीन, कनाडा, स्वीडन में बड़े स्तनधारी जीवों में, अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में पक्षियों में जबकि उत्तरी पैसिफिक, मेक्सिको, और अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में कछुओं जैसे जीवों और चीन में मेंढक जैसे उभयचर जीवों में इनके पाए जाने के सबूत मिले हैं।

इसी तरह यूरोप, अफ्रीका, एशिया सहित दुनिया के कई हिस्सों में मछलियों और अन्य जलीय जीवों में यह फॉरएवर केमिकल मिले हैं।

हालांकि इस विश्लेषण में इस बात की जानकारी नहीं दी है कि कैसे इन पीएफएएस के संपर्क में आने से वन्यजीव प्रभावित होते हैं, लेकिन पिछले शोधों से पता चला है कि यह हानिकारक रसायन संभवतः जानवरों को बीमार कर रहे हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक चूंकि यह केमिकल्स आसानी से नष्ट नहीं होते ऐसे में यह लम्बे समय तक वातावरण में मौजूद रहते हैं। इतना ही नहीं यह वातावरण के माध्यम से लंबी दूरी तक भी जा सकते हैं। इसका मतलब है कि दुनिया के सुदूर क्षेत्रों में जो जहां जीव अभी भी औद्योगिक स्रोतों से दूर है जैसे अंटार्कटिका में पेंगुइन या आर्कटिक में ध्रुवीय भालू वो भी इन हानिकारक केमिकल्स के चपेट में आ सकते हैं।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं को जानवरों के रक्त में 120 प्रकार के पीएफएएस के योगिक मिले हैं। हालांकि परीक्षण क्षमताओं की सीमा के कारण कई रसायनों की पहचान मुश्किल है ऐसे में यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा हो सकता है।

क्या और कितने खतरनाक हैं यह ‘फॉरएवर केमिकल्स’

देखा जाए तो भले ही हमें इनका अहसास हो या नहीं इन फॉरएवर केमिकल्स से हमारा नजदीकी सम्बन्ध है। आज यह मानव निर्मित केमिकल हमारे रक्त, कपड़ों, सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर हवा, पानी, मिट्टी और बारिश में भी पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि यह फॉरएवर केमिकल्स हजारों रसायनों के परिवार का हिस्सा हैं जिनकी संख्या 12,000 के करीब है। इन केमिकल्स को पीएफएएस या पर-एंड पॉलीफ्लोरोअल्काइल के नाम से जाना जाता है।

आज इन रसायनों का उपयोग बड़े पैमाने पर वाटरप्रूफ कपड़ों, फर्नीचर, कुकवेयर, इलेक्ट्रॉनिक्स, खाद्य पैकेजिंग और अग्निशमन फोम जैसे उत्पादों में किया जाता है। जैसा कि इनके नाम से ही स्पष्ट है कि इनमें से कई केमिकल्स ऐसे हैं जो हजारों वर्षों तक पर्यावरण में रहने के बाद भी नष्ट नहीं होते। इसका मतलब है कि वातावरण में मुक्त होने के बाद यह हानिकारक केमिकल्स नष्ट न होने के कारण लगातार बढ़ते जा रहे हैं।

इनका बोझ इतना बढ़ चुका है कि वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण में मौजूद इनमें से चार पीएफएएस का वैश्विक प्रसार पृथ्वी की रासायनिक प्रदूषण की सीमा को पार कर गया है, जिससे अर्थ सिस्टम की स्थिरता के लिए खतरा बढ़ गया है।

1940 के बाद से इन औद्योगिक निर्माण में इन हानिकारक रसायनों का बड़े पैमाने पर प्रयोग हो रहा है। वैज्ञानिकों की मानें तो यह फॉरएवर केमिकल्स लिवर और किडनी सम्बन्धी रोगों के साथ कैंसर जैसी अन्य गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। यहां तक की इनकी बहुत कम मात्रा भी हमारे इम्यून सिस्टम को नुकसान पहुंचा सकती है। साथ ही यह बढ़ते कोलेस्ट्रॉल, प्रजनन और विकास संबंधी समस्याओं को बढ़ा सकते हैं।

अन्य शोधों से पता चला है कि इन हानिकारक केमिकल्स के संपर्क में आने से वन्यजीवों को भी इसी तरह नुकसान हो सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह संभावित स्वास्थ्य समस्याएं लुप्तप्राय या संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए विशेष रूप से चिंता का विषय हैं, क्योंकि उन्हें अब अपने अस्तित्व के लिए अन्य खतरों के साथ-साथ इन हानिकारक रसायनों से भी जूझना होगा।

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