भारत की एक चौथाई आदिवासी आबादी वाले तीन राज्यों महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ ने मई 2020 के आखिर में आदिवासियों की रक्षा के लिए बने कानून में बदलाव कर दिया। इन राज्यों ने अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) अधिनियम 2006 अथवा एफआरए को संशोधित किया। इस संशोधन ने पहले से संवेदनशील वनवासी समुदाओं के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।
महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने 18 मई को संविधान की पांचवी अनुसूची में दी गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए एफआरए की धारा 6 में संशोधन की अधिसूचना जारी की। अब डिविजनल स्तर की समिति अपीलीय निकाय का कार्य करेगी और लोगों की समस्याएं सुनेगी। सरकार के अनुसार, इस बदलाव से उन आदिवासियों को न्याय दिलाने में मदद मिलेगी जिनके व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार जिला स्तर की समिति द्वारा खारिज कर दिए गए हैं।
एक नए अपीलीय निकाय के गठन ने बहुत से लोगों को चकित कर दिया है क्योंकि एफआरए के प्रावधानों के मुताबिक, राज्य स्तरीय निगरानी समिति पहले से ही इस प्रक्रिया के लिए मौजूद है। उच्चतम न्यायालय की अधिवक्ता और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के पूर्व कानूनी सलाहकार, शोमोना खन्ना ने बताया, “कई अवसरों पर राज्यस्तरीय समिति ने जिला स्तरीय समितियों को अपने निर्णयों की समीक्षा करने के लिए कहा है। यह अलग बात है कि राज्यस्तरीय समितियों को हर दो महीने में एक बार बैठक करनी होती है, लेकिन वह बैठक नहीं होती।” उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “एक और निकाय बनाने से दावेदार द्वारा जिला स्तर की समिति के फैसलों के चुनौती देने के लिए बड़ी अदालतों में जाना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि तब अदालत कह सकती है कि अपीलीय निकाय ने दावे को पहले ही खारिज कर दिया है।”
चिंता की सबसे बड़ी बात यह है कि संशोधन पंचायत (अधिसूचित क्षेत्रों को विस्तार) अधिनियम 1996 अथवा पेसा के तहत आने आने वाले क्षेत्रों पर ही लागू होंगे। शोमोना खन्ना ने बताया कि एफआरए की आत्मा में पेसा के प्रावधानों को शामिल किया गया था, चाहे वह वन संसाधनों पर ग्रामसभा का स्वामित्व हो या गैर-अधिसूचित क्षेत्र हों। अब अधिसूचित और गैर-अधिसूचित क्षेत्रों के मामलों को अलग-अलग तरीकों से देखा जाएगा।
वन अधिकार विशेषज्ञों का कहना है कि एफआरए में संशोधन का फैसला उच्चतम न्यायालय में गैर लाभकारी संस्था वाइल्डलाइफ फर्स्ट द्वारा दाखिल हलफनामे से प्रेरित हो सकता है। यह संस्था उच्चतम न्यायालय में चल रहे एक मामले में पक्षकार है।
13 फरवरी 2019 को शीर्ष अदालत ने 16 राज्यों के उन हजारों आदिवासियों को बेदखल करने का आदेश दिया था जिनका एफआरए के तरह वनवासी होने का दावा खारिज हो गया था। आदेश के बाद राज्य सरकारों ने प्रक्रिया में खामियों को स्वीकार करते हुए खारिज दावों की फिर स्वत: समीक्षा शुरू की थी, लेकिन एफआरए के तहत इस तरह की प्रक्रिया का कोई कानूनी आधार नहीं है। वाइल्डलाइफ फर्स्ट ने अपने हलफनामे में यह बात कही।
एक वन अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि अस्वीकृति की समीक्षा करने के लिए एक निकाय बनाने का निर्णय दिखाता है कि महाराष्ट्र याचिकाकर्ता के तर्क से सहमत है। तथ्य यह भी है कि जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने हलफनामा दायर कर कहा है कि स्वत: संज्ञान समीक्षा प्राकृतिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए है और इसका एफआरए की न्यायिक प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं है।
बदले अधिकार
महाराष्ट्र के तुरंत बाद, ओडिशा वन और पर्यावरण विभाग ने 21 मई को एक अधिसूचना जारी की, जिसमें तहसीलदार को वन बंदोबस्त अधिकारी नियुक्त किया गया। वह वन में किसी व्यक्ति की मौजूदगी, उसकी प्रकृति, अधिकारों व विशेषाधिकारों की सीमा की पड़ताल करेगा। कानून में संशोधन एफआरए की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के उलट है। इसकी त्रि-स्तरीय प्रक्रिया के तहत, ग्रामसभा स्तरीय समिति में दावा दायर किया जाता है, जो सब डिविजनल समिति और अंत में जिला समिति के पास जाता है। जिला समिति उस दावे को स्वीकार या खारिज करती है। इन समितियों में वन, राजस्व, आदिवासी और पंचायती राज विभागों के प्रतिनिधि शामिल होते थे। मौजूदा कदम से एफआरए में गतिरोध उत्पन्न होगा।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम प्रतिपूरक वनीकरण कोष (सीएएफ) का उपयोग करने के लिए उठाया गया था। भुवनेश्वर में वनवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन वसुंधरा के गिरिराव कहते हैं, “ओडिशा ने प्रतिपूरक वनीकरण के लिए सीएएफ अधिनियम के तहत सबसे अधिक राशि प्राप्त की। अधिसूचना से वन विभाग को एफआरए के प्रावधानों को दरकिनार कर प्रतिपूरक वनीकरण के लिए क्षेत्रों की पहचान करने में आसानी होगी।” सीएएफ अधिनियम के अनुसार, जिस भूमि पर प्रतिपूरक वनीकरण किया जाता है, वह आरक्षित या संरक्षित वन के रूप में अधिसूचित होनी चाहिए।
एफआरए कार्यकर्ताओं एवं शोधकर्ताओं के समूह कन्युनिटी फॉरेस्ट राइट-लर्निंग एंड एडवोकेसी से जुड़े तुषार दास कहते हैं, “अगर वनों के रूप में नए क्षेत्रों को अधिसूचित करने की ही बात है तो सरकार को भारतीय वन अधिनियम 1927 के प्रावधानों को संशोधित करना चाहिए। साथ ही अधिकार प्रक्रिया को अमलीजामा पहनाने के लिए राज्यों को वन अधिनियम में बदलाव लाना चाहिए। सभी अधिकार वन बंदोबस्त अधिकारी को देना प्रतिगामी फैसला है।”
एफआरए का उल्लंघन
छत्तीसगढ़ ने भी 31 मई 2020 को कानून में संशोधन किया। सरकार ने वन विभाग को सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों की मान्यता देने वाली नोडल एजेंसी बना दिया। ये अधिकार सामूहिक रूप से ग्राम सभा को दिए गए हैं। ये अधिकार गांव द्वारा वनों के संरक्षण और प्रबंधन को देखते हुए दिए जाते हैं। सरकार का फैसला एफआरए के प्रावधानों का खुला उल्लंघन है जो राज्य के जनजातीय विभाग को नोडल एजेंसी बनाता है। सरकार के इस कदम की इतनी तीखी आलोचना हुई कि 48 घंटों के अंदर उसे अधिसूचना वापस लेनी पड़ी। एफआरए को बने लगभग 14 साल हो गए हैं लेकिन इसका क्रियान्वयन अब भी संतोषजनक नहीं है।
जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि जिला स्तरीय समितियों ने जनवरी 2020 तक दायर किए गए 42 लाख दावों में से केवल 34 प्रतिशत को मंजूरी दी। समिति ने लगभग 42 प्रतिशत दावों को खारिज कर दिया गया। शेष अब भी लंबित हैं। राष्ट्रव्यापी विरोध के बाद आदिवासियों को बेदखल करने के उच्चतम न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी गई है। फिर भी यह फैसला इस मान्यता को बल देता है कि कानूनों पर सही से अमल न करा पाने की सरकार की अक्षमता की कीमत वनवासियों को चुकानी पड़ेगी।