छत्तीसगढ़ में ‘हरा सोना’ कहे जाने वाले तेंदूपत्ता यानी कि डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन की बिक्री पर इन दिनों विवाद की स्थिति गहराने लगी है। दो जिलों के 50 से अधिक गावों के लोगों ने इस बार तेंदूपत्ता की बिक्री खुद ही करने का फैसला किया है। जिसके कारण विवाद की स्थिति निर्मित होने लगी है। यह विवाद पांचवी अनुसूची में पड़ने वाले आदिवासी बहुल गांव व छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग के मध्य जोर पकड़ने लगा है।
राज्य सरकार का कहना है कि तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण किया जा चुका है, इसलिए इसकी बिक्री सरकार ही कर सकती है। वहीं दूसरी ओर तेंदूपत्ता संग्राहक वन अधिकार क़ानून और 2013 के सुप्रीम कोर्ट के बहुचर्चित नियामगिरी केस में दिया गया निर्णय का हवाला दे रहे हैं।
तेंदुपत्ता संग्राहक आदिवासियों ने वन विभाग के अधिकारियों पर ज्यादती, गैरकानूनी कार्य करने का भी आरोप लगाया है। और वे इस संबंध में संबंधित अधिकारी के खिलाफ एफआईआर कराने के लिए कमर भी कस रहें हैं। और यदि एफआईआर होती है तो यह अपने आप में छत्तीसगढ़ का पहला मामला होगा जहां एक वन विभाग के अधिकारी पर अपने दायित्वों के निर्वहन करने पर उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाएगी।
ग्रामीणों का सीधा आरोप है कि 13 गांव के ग्राम सभाओं ने इस बार इस वर्ष के शुरुआत में ही खुद से तेंदूपत्ता संग्रहण और बिक्री करने का प्रस्ताव पास किया था एवं इस संबंध में सभी संबंधित सरकारी निकायों, विभागों को अग्रिम सूचना भी दी गई थी उसके बावजूद भी वनपरिक्षेत्र अधिकारी द्वारा 250 बोरे (बैग) तेंदुपत्ता मानपुर ब्लॉक के खेरागांव के सरकारी गोदाम से शारदा सरकारी गोदाम में ले जाते वक्त अवैध बताते हुए जप्त कर लिया। लेकिन अभी तक उस माल की जब्ती की उन्हें कागजात नहीं सौंपा गया है। इस बात को लेकर तेंदूपत्ता संग्रहण में लगे आदिवासियों में काफी गुस्सा देखा जा रहा है। ग्रामीणों ने इस अधिकारी के खिलाफ एफआईआर करने की ठानी है।
क्यूं हो रहा है विवाद?
1964 में अविभाजित मध्यप्रदेश में तेंदूपत्ता के व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया।इससे पहले तक लोग देश भर में तेंदूपत्ता के बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र थे। इसके बाद महाराष्ट्र ने 1969 में, आंध्र प्रदेश ने 1971 में, ओडिशा ने 1973 में, गुजरात ने 1979 में, राजस्थान ने 1974 में और 2000 में छत्तीसगढ़ ने इसी व्यवस्था को अपनाया।
इस व्यवस्था के तहत राज्य का वन विभाग तेंदूपत्ता का संग्रहण करवाता है, परिवहन की भी अनुमति भी वही देता है तथा व्यापारियों को बेचता भी है। छत्तीसगढ़ में राज्य लघु वनोपज संघ के माध्यम से तेंदूपत्ता का संग्रहण होता है और यहां 10,300 से अधिक संग्रहण केंद्र या फड़ हैं, जहां संग्राहकों से तेंदूपत्ता संग्रहण करते हैं। छत्तीसगढ़ में हर साल लगभग 13.76 लाख परिवार तेंदूपत्ता का संग्रहण करती है। इस
सरकार के आंकड़ों के मुताबिक चालू वर्ष 2022 के दौरान अब तक 15.78 लाख मानक बोरा तेन्दूपत्ता का संग्रहण हुआ और कुल भुगतान योग्य राशि 630 करोड़ रूपए में से 300 करोड़ रूपए तेन्दूपत्ता संग्राहकों को अब तक भुगतान किया जा चुका है।
तेंदूपत्ता संग्राहकों का आरोप है कि सरकार उन्हें तेंदूपत्ता की कम कीमत देती है, जबकि खुले बाजार में इसकी अधिक कीमत मिलती है। वन अधिकार पट्टा मिलने के बाद से अब आदिवासी चाहते हैं कि उन्हें पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र और ओडिशा में तेंदूपत्ता संग्राहकों की तरह ग्राम सभा के अनुमती से सरकार के साथ मिलकर तेंदूपत्ता की नीलामी व बेचने का मौका दें ताकि वे अच्छा खासा मुनाफा कमा सके।
इसी बात को लेकर कांकेर और राजनांदगांव में वन विभाग के साथ तनातनी की स्थिति निर्मित हो रही है। राजनांदगांव के आदिवासी नेता सरजू नेताम कहते हैं कि इसमें शासन प्रशासन की घोर लापरवाही है। अनपढ़ समझे जाने वाला आदिवासी संविधान पढ़ना शुरू कर दिया है, ग्राम सभा के महत्व को समझने लगा है। सरकार और सरकारी अधिकारी को दिक्कत यहीं से हो रही है।
सरजू आगे कहते हैं वनोपज के तहत महुआ, सालबीज, चिरौंजी जैसे अनेकों वनोपज आदिवासी संग्रहण कर बेचते हैं तो ऐसे में तेंदूपत्ता पर विवाद की स्थिति नहीं बननी चाहिए। राज्य सरकार आदिवासियों को क्या मात्र संग्राहक बना कर ही रखना चाहती है?
वहीं पर कांकेर ज़िले के डोटोमेटा के सरपंच जलकू नेताम कहते हैं कि इस बार उनके गांव के लोगों तेंदूपत्ता को खुले बाजार में बेचने में सफल रहे तो आदिवासी शोषण के खिलाफ एक और जंग जीत जाएंगें।
50 से अधिक गांव तेंदूपत्ता खुले बाजार में बेचने के पक्ष में
कांकेर जिले के - घोटूनवेड़ा, बुरका, अंजाड़ी, और राजनांदगांव के - मेंढा, केंडाल, चिखलाकसा, पुरसकले, चावर गांव, खेरे गांव, कांडे जैसे करीब 50 से अधिक गांव है जो सरकार के बजाय खुले बाजार में तेंदूपत्ता बेचने की घोषणा की है।
सरकार के वनोपज संघ से जुड़े हुए के वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने के शर्त पर कहा कि तेंदूपत्ता संग्रहित कर सीधे व्यापारियों के बेचने से संग्रहणकर्ता को ही नुकसान होगा। संग्रहण के बदौलत राज्य सरकार के उन्हें कई सुविधाएं मिलती है जिसमें मानदेय के अलावा, बोनस, बीमा एवं अन्य सुविधाएं उनसे वे वंचित हो जाएंगें। मुझे तो इसमें कुछेक व्यापारियों व एनजीओ कर्मीयों का हाथ लगता है जो आदिवासियों को लगातार भड़का रहे हैं। वैसे भी जब तक नियमों में संशोधन नहीं होगा संग्राहक सीधे व्यापारी को नहीं बेच सकता।
महाराष्ट्र के विदर्भ नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर दिलीप गोडे बताते हैं कि तेंदूपत्ता के मुद्दे पर तकरार बेमानी है। महाराष्ट्र गोंदिया व गढ़चिरौली में हमने साबित किया है कि ग्राम सभा के माध्यम से फेडरेशन बनाकर भी तेंदूपत्ता का व्यापार करें तो भी ग्रामीण फायदे में रहते हैं। 5 जिलों में 170 से अधिक गांवों में 7 ग्रामसभा महासंघों के साथ बिजनेस मॉडल पर काम हो रहा है। तेंदूपत्ता का रेट 10,000 रूपये प्रति मानक बोरी से भी उपर तक गया है। समितियों ने खुद का टेंडर निकाला व्यापारियों को माल भी बेचा और वर्ष 2016 में 1684 परिवारों मध्य 1.54 करोड़ से अधिक रुपये का वितरण बोनस के साथ किया।
सोशल एक्टिविस्ट विजेंद्र अजनबी कहते हैं बजाए विवाद के राज्य सरकार को बड़ा दिल के साथ इन आदिवासी संग्रहकर्ताओं का हौसला बढ़ाना चाहिए और उन्हें बढ़ने का मौका देना चाहिए।