प्रदूषण और जंगल कटाव से खतरे में मणिपुर की प्रसिद्ध लोकटक झील

नागालैंड विश्वविद्यालय द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आया है कि लोकटक झील में मिलने वाली नम्बुल, खूगा जैसी नदियां वन विनाश, खेतों से बहते रसायन और बस्तियों से निकलने वाली गंदगी से मैली हो रही हैं
लोकटक झील भारत की सबसे महत्वपूर्ण मीठे पानी की झीलों में से एक है, जिसे रामसर साइट का दर्जा प्राप्त है। फोटो: आईस्टॉक
लोकटक झील भारत की सबसे महत्वपूर्ण मीठे पानी की झीलों में से एक है, जिसे रामसर साइट का दर्जा प्राप्त है। फोटो: आईस्टॉक
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सारांश
  • मणिपुर की लोकटक झील, जो संगाई हिरण और अन्य जीवों का घर है, प्रदूषण और जंगलों की कटाई के कारण संकट में है।

  • नागालैंड विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार, झील में मिलने वाली कई नदियों की जल गुणवत्ता गिर रही है, जिससे झील की पारिस्थितिकी पर खतरा मंडरा रहा है।

  • इसका मुख्य कारण खेतों से बहने वाले रसायन, बस्तियों का फैलाव और उनसे पैदा होने वाला कचरा है।

  • यह भी सामने आया है कि झूम कृषि के लिए जिस तरह जंगलों का विनाश हो रहा है वो भी सीधे तौर पर नदियों को प्रदूषित कर रहा है।

  • विश्लेषण से पता चला है कि लोकटक जलग्रहण क्षेत्र की नौ प्रमुख नदियों में से नम्बुल सबसे प्रदूषित है।

मणिपुर की हरी-भरी पहाड़ियों के बीच फैली लोकटक झील महज पानी का विशाल स्रोत नहीं, यह राज्य की जीवंत पहचान भी है। इसकी गोद में संगाई हिरण से लेकर असंख्य मछलियां, पक्षी और अन्य जीव फल-फूल रहे हैं। लेकिन अब इस जीवन से भरी झील की चमक फीकी पड़ने लगी है।

इस बारे में नागालैंड विश्वविद्यालय द्वारा किए एक नए अध्ययन में सामने आया है कि बढ़ते प्रदूषण और भूमि उपयोग में आते बदलाव के चलते मणिपुर की इस प्रसिद्ध झील पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। यह झील भारत की सबसे महत्वपूर्ण मीठे पानी की झीलों में से एक है, जिसे रामसर साइट का दर्जा प्राप्त है।

अध्ययन से पता चला है कि झील में मिलने वाली कई नदियों की जल गुणवत्ता तेजी से गिर रही है और इसका मुख्य कारण खेतों से बहने वाले रसायन, बस्तियों का फैलाव और उनसे पैदा होने वाला कचरा है। यह भी सामने आया है कि झूम कृषि के लिए जिस तरह जंगलों का विनाश हो रहा है वो भी सीधे तौर पर नदियों को प्रदूषित कर रहा है।

झील में मछलियों की घटती संख्या, बढ़ता प्रदूषण और गाद जमने जैसी समस्याएं अब गंभीर चिंता का विषय बन गई हैं।

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लोकटक झील भारत की सबसे महत्वपूर्ण मीठे पानी की झीलों में से एक है, जिसे रामसर साइट का दर्जा प्राप्त है। फोटो: आईस्टॉक

यह झील 132 पौधों और 428 जीव प्रजातियों का घर है, जो इसे एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र बनाती हैं। झील बिजली उत्पादन, मत्स्य पालन, परिवहन और पर्यटन जैसी गतिविधियों को भी सहारा देती है। लेकिन हाल के वर्षों में इसकी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इसे मॉन्ट्रो रिकॉर्ड में शामिल किया गया है।

मॉन्ट्रो रिकॉर्ड ऐसी वैश्विक सूची है, जिसमें वे आर्द्रभूमियां दर्ज की जाती हैं जो गंभीर पारिस्थितिक संकट का सामना कर रही हैं।

बढ़ते प्रदूषण का कसूरवार कौन

नागालैंड विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश के पटनायक के मुताबिक लोकटक जलग्रहण क्षेत्र में कृषि गतिविधियां, बस्तियां और झूम कृषि नदियों की जल गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही हैं। इनमें नम्बुल और खूगा नदियां सबसे प्रदूषित पाई गईं, क्योंकि इनके जलग्रहण क्षेत्रों में भूमि उपयोग का भारी दबाव है।“

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने नौ प्रमुख नदियों खूगा, वेस्टर्न, नम्बुल, इम्फाल, कोंगबा, इरिल, थौबाल, हीरोक और सेक्माई के पानी के नमूनों का विश्लेषण किया है।

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साथ ही भूमि उपयोग और भू-आवरण के विस्तृत नक्शों की मदद से यह अध्ययन किया कि कृषि, घने और क्षतिग्रस्त जंगल, बस्तियां, झूम कृषि और जल निकाय कैसे नदियों के पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए नदियों में घुली ऑक्सीजन, बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और तापमान जैसे संकेतकों का विश्लेषण किया गया है।

इस विश्लेषण से पता चला है कि लोकटक जलग्रहण क्षेत्र की नौ प्रमुख नदियों में से नम्बुल सबसे प्रदूषित है। इसमें घुली ऑक्सीजन का स्तर सबसे कम, जबकि जैविक गंदगी (ऑर्गैनिक प्रदूषण) और पानी का तापमान सबसे अधिक है।

इस नदी के उप-जलग्रहण क्षेत्र के भूमि उपयोग के नक्शे दर्शाते हैं कि यहां कृषि क्षेत्र बहुत अधिक है, जिससे खेतों से निकलने वाले रसायन और घरों से निकलने वाला कचरा पानी को दूषित कर रहा है। इसका सीधा कारण यह है कि इस नदी के जलग्रहण क्षेत्र की 47 फीसदी जमीन खेतों और 11 फीसदी बस्तियों में बदल चुकी है।

बढ़ते प्रदूषण की भेंट चढ़ रही नदियां

खूगा नदी की जल गुणवत्ता दूसरी सबसे खराब पाई गई, जबकि इसके आसपास जंगल अधिक हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका कारण झूम कृषि है, जो इस इलाके की करीब 42 फीसदी जमीन पर की जाती है। खेती के इस तरीके में जंगल के पेड़ों को काट दिया जाता है। इसकी वजह से मिट्टी और केमिकल नदी में पहुंच रहे हैं।

इसके विपरीत, इरिल और थौबाल नदियां, जो घने वनों से होकर बहती हैं, बेहतर जल गुणवत्ता बनाए रखने में सफल रही हैं। अध्ययन के नतीजे इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड पॉल्यूशन में प्रकाशित हुए हैं।

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वैज्ञानिकों ने अध्ययन में उम्मीद जताई है कि यह निष्कर्ष नीति-निर्माताओं और स्थानीय प्रशासन को समय रहते बेहतर प्रबंधन और संरक्षण रणनीतियां तैयार करने में अहम मदद दे सकते हैं।

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