
बढ़ती आपदाओं और बीमारियों के चलते एक ओर जहां बीमा उत्पादों की जरूरत बढ़ रही है, वहीं सरकार के नियम लोगों को बीमा से दूर कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसा लगता है कि सरकार की मंशा सरकारी यानी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की बजाय निजी बीमा कंपनियों को आगे बढ़ाने की है।
छह दिसंबर 2024 को संसद में पेश वित्त संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट में बीमा की बढ़ती जरूरतों के साथ-साथ खामियों का उल्लेख किया गया है। समिति ने बीमा क्षेत्र के कार्यों और विनियमों की समीक्षा की है।
दरअसल, सरकार बीमा उत्पादों, खासकर स्वास्थ्य बीमा व सावधि बीमा पर 18 प्रतिशत जीएसटी वसूलती है, इससे बीमा धारकों पर प्रीमियम का बोझ बढ़ जाता है। स्थायी समिति की रिपोर्ट में इसका जिक्र करते हुए कहा गया है कि यूरोपीय संघ और कनाडा सहित कई विकसित देशों में बीमा उत्पादों पर वैट या जीएसटी से छूट दी जाती है।
रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) ने वित्त मंत्रालय से कहा था कि भारत में भी कनाडा, यूरोपीय देशों की तरह बीमाधारकों को लाभ प्रदान करना चाहिए, ताकि अधिक से अधिक लोग बीमा कराएं। यह स्थिति तब है, जब अस्पतालों को चिकित्सा सेवाओं व उपकरणों पर कई तरह की छूट दी जाती है।
लेकिन इस पर वित्तीय सेवा विभाग की ओर से कोई स्पष्ट रोडमैप प्रस्तुत न करने पर चिंता जताते हुए स्थायी समिति ने कहा, “यह मामला जीएसटी परिषद एवं राजस्व विभाग से भी जुडा है, इसलिए स्थायी समिति का उम्मीद है कि वित्त मंत्रालय समन्वय करके आवश्यक कदम डठाएगा।”
निजी कंपनियों को बढ़ावा
सरकार निजी बीमा कंपनियों व सार्वजनिक क्षेत्रों की कंपनियों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने की बजाय ऐसे फैसले ले रही है, जिससे निजी कंपनियों को फायदा हुआ और सार्वजनिक कंपनियों को नुकसान। सरकार के इस फैसले पर स्थायी समिति ने भी सवाल उठाया है।
बीमा कंपनियों के व्यापार की मुख्य कड़ी बीमा एजेंट होते हैं। सरकारी कंपनियां जब बीमा एजेंटों को कमीशन या अन्य तरह का लाभ देती है तो उस पर दो प्रतिशत टीडीएस (टैक्स डिडक्शन एट सोर्स) काट लेती है। इसके अलावा बीमा कराने वालों को बोनस या क्लेम देती है तो 2.50 लाख रुपए से अधिक होने पर दो प्रतिशत टीडीएस काटा जाता है। इन दो प्रतिशत में एक प्रतिशत केंद्र व एक प्रतिशत राज्य सरकार के पास पहुंचता है।
लेकिन निजी कंपनियों द्वारा इस तरह का कोई टीडीएस नहीं काटा जाता। स्थायी समिति ने कहा, “समिति मंत्रालय के उत्तर को अस्पष्ट पाती है। ऐसा लगता है कि मंत्रालय ने इस मामले की जांच नहीं की है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के उपचार के संबंध में मौजूद विसंगतियों को कैसे दूर किया जाए। इसके बजाय, मंत्रालय ने केवल तथ्यों की स्थिति प्रस्तुत की है। समिति अपनी सिफारिश दोहराते हुए चाहती है कि मंत्रालय इस मामले की गहन जांच करे और दोनों क्षेत्रों के लिए उचित समानता सुनिश्चित करने के लिए ठोस समाधान प्रस्तुत करे।”
स्थायी समिति ने यह भी कहा कि सरकार जब भी आयुष्मान भारत व प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसी बीमा योजनाओं की घोषणा करती है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां उन्हें लागू करने के लिए बाध्य होती हैं, जबकि निजी कंपनियां बाध्य नहीं होती। इसलिए समान अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से निजी कंपनियों को भी बाध्य किया जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से निजी कंपनियों को लाभ पहुंचा और सार्वजनिक कंपनियों को नुकसान, जबकि जिन निजी कंपनियों को नुकसान होने लगा तो वे इस योजना से पीछे हट गई।
नुकसान में सरकारी कंपनियां
सरकारी बीमा कंपनियां लगातार नुकसान का सामना कर रही हैं। स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र की चार बीमा कंपनियों की वित्तीय स्थिति सुधारने की आवश्यकता है। साल 2016-17 से 2020-21 तक इन कंपनियों को लगभग 26,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। खासकर कोविड-19 महामारी के वक्त कंपनियों को बड़ी आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
हालांकि सरकार ने 17,000 करोड़ रुपये पूंजी डाली है और अतिरिक्त संसाधन जुटाने का वादा किया है, लेकिन रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश की है कि इन कंपनियों के लिए एक स्पष्ट रणनीतिक रूपरेखा तैयार की जाए और एक तय समयसीमा के साथ सुधार के कदम उठाए जाएं। इस रूपरेखा को लागू करने में बीमा बोर्ड की प्रतिबद्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए।
आपदाओं ने बढ़ाई जरूरत
रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 1900 के बाद सबसे अधिक प्राकृतिक आपदाओं के मामलों में, अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। भारत ज्यादातर बाढ़ से प्रभावित होता है। प्राकृतिक आपदाएं भारत में बुनियादी ढांचे को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती हैं, और भारत एक ऐसा देश है, जहां अपनी जनसंख्या और भौगोलिक विशेषताओं के कारण कई प्राकृतिक खतरे ज्यादा हैं।
इसके अलावा बहुत से घर भूकंप और बाढ़ का सामना करने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए समिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसे उपाय तलाशने चाहिए, जिससे सरकारी सहायता से अतिसंवेदनशील क्षेत्रों खासकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के घरों और संपत्तियों का बीमा किया जा सके।
स्थायी समिति ने अकसर तूफानों का सामना करने वाले देश फ्लोरिया का उदाहरण देते हुए कहा है कि देश की बीमा कंपनियों में से किसी एक कंपनी को आपदा संभावित क्षेत्रों के लिए एक विशेष बीमा व्यवसाय स्थापित करना चाहिए।
वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग ने अपने जवाब में समिति को बताया कि यह विचार किया जा रहा है कि आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए गृह बीमा अनिवार्य किया जाए।
मंत्रालय ने बताया कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों को अधिक से अधिक बीमा क्षेत्र से जोड़ने के लिए एक कार्य समूह का गठन किया गया है। यह काम राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने किया है। समूह का नाम आपदा जोखिम पुनर्गठन समिति (सीओडीआरआर) है।
बीमा का दायरा बढ़ाने की सिफारिश
देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो न तो सरकारी की आयुष्मान या राज्य सरकार की बीमा योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं उठा पाता, क्योंकि इस वर्ग की कमाई कमजोर आय वर्ग की सीमा से अधिक है, लेकिन यह वर्ग इतना संपंन भी नहीं होता कि वह बीमा कंपनियों की किस्तों का इंतजाम कर सके। इसलिए उसे अपने मासिक खर्च में से ही बीमार होने पर अस्पतालों और डॉक्टरों का बिल भरना पड़ता हे। इस वर्ग को मिसिंग मिडिल कहा जाता है।
नीति आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस वर्ग को बीमा के दायरे में लाने को कहा था। स्थायी समिति ने भी यही बात दोहराते हुए कहा है कि एक ओर जहां महंगाई बढ़ने के कारण इलाज महंगा होता जा रहा है, इसलिए बीमा के दायरे से छूट गए लोगों को जोड़ने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।
देश में कई लोग केवल एक मेडिकल बिल के कारण गरीबी की स्थिति में पहुंच सकते हैं
स्थायी समिति
रिपोर्ट में लिखा गया है, "समिति इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि देश में कई लोग केवल एक मेडिकल बिल के कारण गरीबी की स्थिति में पहुंच सकते हैं, मानती है कि किफायती प्रीमियम और कैशलेस निपटान सुविधाओं वाले बीमा उत्पाद अधिक लोगों को स्वास्थ्य बीमा चुनने के लिए प्रोत्साहित करने में सहायक होंगे।"