क्या केवल 'भ्रम' साबित हो रही है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना?

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को कितना लाभ किसानों को मिल रहा है, डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की
उत्तर प्रदेश के जहांगीराबाद निवासी किसान देवी प्रसाद प्रजापति बारिश में गिरे आलू के पौधों को दिखाते हुए (फाइल फ़ोटो- गौरव गुलमोहर)
उत्तर प्रदेश के जहांगीराबाद निवासी किसान देवी प्रसाद प्रजापति बारिश में गिरे आलू के पौधों को दिखाते हुए (फाइल फ़ोटो- गौरव गुलमोहर)
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2016 में फसल बीमा योजना लागू होने बाद भी इसके दायरे में आने वाले क्षेत्र व किसान सीमित ही हैं अगर गांव में एक किसान की भी फसल बर्बाद होती है तो उसे बीमा योजना का लाभ मिलेगा। मध्य प्रदेश में महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को शुरू करते वक्त यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में कही थी। इसी राज्य के हरदा जिले के किसानों के लिए प्रधानमंत्री की बातों का कोई मतलब नहीं है। इन किसानों की खड़ी फसलें 9 जनवरी 2021 को ओलावृद्धि से बर्बाद हुई थीं। 10 जनवरी को हरदा विधानसभा से ही आने वाले राज्य के कृषि मंत्री कमल पटेल फसलों को हुए नुकसान का मुआयना करने यहां पहुंचे भी थे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अधिकारियों को निर्देशित किया था कि वे नुकसान का प्रभावी सर्वेक्षण सुनिश्चित करें और पंचायत में किसानों के सामने रिपोर्ट पढ़ें। लेकिन पंतालाई गांव के लघु किसान जगेश्वर रामकुचे मुआवजे की उम्मीद खो चुके हैं। उनकी 1.27 हेक्टेयर में लगी चने की फसल बर्बाद हो गई थी। 2019 में जब उनकी सोयाबीन की फसल भारी बारिश से नष्ट हुई, तब उन्हें बीमा से महज 2 रुपए का मुआवजा मिला था।

वह बताते हैं, “उस समय भी पिछले साल की तरह सर्वेक्षण किया गया था।” जगेश्वर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बताते हैं कि वह पिछले छह वर्षों से पीएमएफबीवाई के प्रीमियम का नियमित भुगतान कर रहे हैं। हालांकि उन्हें प्रीमियम की कुल राशि याद नहीं है लेकिन उनके किसान क्रेडिट साल से हर साल 10-12 हजार रुपए प्रीमियम व कृषि लोन के ब्याज के रूप में कटे हैं। शुरुआत में लोन लेने वाले किसानों के लिए यह योजना अनिवार्य थी लेकिन 2020 से इसे स्वैच्छिक बना दिया गया। योजना बुवाई से पहले से कटाई के बाद तक के जोखिमों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करती है। दावों की गणना अधिसूचित क्षेत्र में प्रारंभिक उपज की तुलना में वास्तविक उपज में कमी के आधार पर की जाती है। हालांकि, प्रीमियम का निर्धारण बोली के माध्यम से किया जाता है। किसानों को खरीफ के लिए बीमित राशि के कुल प्रीमियम का अधिकतम 2 प्रतिशत, रबी फसलों और तिलहन के लिए 1.5 प्रतिशत और वाणिज्यिक/बागवानी फसलों के लिए 5 प्रतिशत का भुगतान करना होता है।

प्रीमियम की शेष राशि को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा 50:50 के आधार पर और पूर्वोत्तर राज्यों के मामले में 90:10 के आधार पर साझा किया जाता है। प्रत्येक मौसम की शुरुआत में राज्य सरकार पिछले सात वर्षों की औसत उपज के आधार पर प्रत्येक बीमा इकाई में व्यक्तिगत फसलों की प्रारंभिक उपज को अधिसूचित करती है। अधिसूचना में बीमा इकाइयों में व्यक्तिगत फसलों के लिए बीमा राशि का भी उल्लेख होता है।

हाल के वर्षों में चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि के कारण फसल के नुकसान की गंभीरता के बावजूद फसल बीमा चुनने वाले किसानों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है। पीएमएफबीवाई के डैशबोर्ड और संसद में सरकारी उत्तरों से संकलित आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 2016 के बाद से खरीफ सीजन के दौरान फसल बीमा के तहत आने वाले किसानों की संख्या में 62 प्रतिशत की कमी आई है। 2021 में उनकी संख्या 15.1 मिलियन थी। इसी तरह रबी के दौरान बीमा कराने वाले किसानों की संख्या में 46 प्रतिशत की कमी आई है। 2021 में इनकी संख्या 9.2 मिलियन थी। इतना ही नहीं, बीमित क्षेत्र में भी कमी आई है। खरीफ के तहत यह क्षेत्र 57 प्रतिशत और रबी के तहत 22 प्रतिशत ही रह गया है। लोन नहीं लेने वाले किसानों ने भी योजना में कम दिलचस्पी दिखाई है और बीमा के लिए कम आवेदन किया है। शुरुआत में इनके लिए योजना वैकल्पिक थी। लोन लेने वाले बहुत से किसानों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वे लगातार प्रीमियम देते रहे क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि योजना अब अनिवार्य नहीं रह गई है। इस योजना ने किसानों को चरम मौसम की घटनाओं से बचाने में किस प्रकार मदद की, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने आठ राज्यों में यात्रा की। इन राज्यों में मौजूदा रबी और खरीफ के मौसम में फसलों को व्यापक नुकसान हुआ है। इन राज्यों से मिले अनुभव बताते हैं कि योजना में कई विसंगतियां हैं।


मुआवजा कम है और मिलता भी नहीं

ऐसी बहुत सी शिकायतें हैं कि बीमा कंपनी के सर्वेक्षक फसल नुकसान के दावों की गणना उत्पाद के बाजार भाव के बजाय जुताई की लागत के आधार पर करते हैं। कर्नाटक के उडुप्पी जिले के किसान भ्रामप्पा पूछते हैं, “2020 में हेमवती नदी में आई बाढ़ के चलते मेरी फसल नष्ट हो गई और गाद के कारण 2021 में भी खेती नहीं हो पाई। इन दो सालों में मैंने आमदनी खो दी। बीमा से मिला भुगतान केवल 30 प्रतिशत था। इतना तो मैंने प्रीमियम दे दिया था। ऐसे में बीमा का क्या मतलब रह गया?” कर्नाटक के इस जिले में 2021 में सामान्य से 60 प्रतिशत अधिक बरसात हुई थी।

राजस्थान के जैसलमेर जिले के किसान हाथी सिंह इस योजना के क्रियान्वयन पर हंसते हैं। उनके और उनके भाई घेंवर सिंह के पास भीमसर गांव में 70 हेक्टेयर और 15 हेक्टेयर की कृषि भूमि है। मार्च 2020 में ओलावृष्टि ने उनके दोनों खेतों में खड़ी चना, सरसों, जीरा और साइलियम की भूसी (इसबगोल) की फसलों को नुकसान पहुंचाया, लेकिन केवल घेंवर सिंह को ही मुआवजा मिला। भारतीय जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष हाथी सिंह बताते हैं, “मैं 2016 से हर साल प्रीमियम के रूप में 14,000 रुपए का भुगतान कर रहा हूं। यह समझ से परे कि एक-दूसरे से लगे दो खेतों में फसल नष्ट हो गई लेकिन एक को मुआवजा मिला, दूसरे को नहीं।”

राजस्थान उन कुछ राज्यों में से एक है जहां पीएमएफबीवाई के तहत किसानों की संख्या 2018 में लगभग 20 लाख से बढ़कर 2021 में खरीफ में 30 लाख हो गई है। जैसलमेर के मुलाना गांव के किसान नेता शिवदान सिंह भाटी का कहना है कि राजस्थान में फसल बीमा से बाहर होने वाले किसानों की संख्या भी बढ़ी है, क्योंकि बीमा कंपनियां दावों का भुगतान नहीं करती। वह बताते हैं, “मैंने 1.2 लाख खर्च करके 12 हेक्टेयर में सरसों और जीरा बोया था। ओलावृष्टि में सब बर्बाद हो गया। मैं हर फसल के लिए 10,000 रुपए का वार्षिक प्रीमियम चुकाता हूं। कवरेज के रूप में मुझे लगभग 4 लाख रुपए मिलने थे, लेकिन बीमा कंपनी ने भुगतान नहीं किया।” केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 30 नवंबर 2021 को लोकसभा में बताया कि 25 नवंबर 2021 तक पीएमएफबीवाई के तहत पिछले तीन वर्षों में 66,460 करोड़ रुपए के दावों में 3,372 करोड़ रुपए से अधिक की राशि लंबित है। लंबित राज्य सब्सिडी इसका प्रमुख कारण है। लंबित 3,372 करोड़ में से 1,087.35 करोड़ रुपए 2020-21 के हैं।

प्रीमियम बहुत ज्यादा

शिवदान सिंह भाटी और हाथी सिंह दोनों का कहना है कि बीमा कंपनियों ने उन्हें बताया है कि राज्य सरकार ने अपने हिस्से का भुगतान नहीं किया है और इसलिए दावों का निपटान नहीं किया जा सकता। यह बात सच प्रतीत होती है। राज्यों के लंबित कुल 4,744 करोड़ रुपए में से 321.96 करोड़ 2018-19 के हैं। 2019-20 के 1,558.28 करोड़ रुपए और 2020-21 के कुल 2,863.79 करोड़ रुपए बकाया हैं। अगर राज्य समय पर प्रीमियम का भुगतान नहीं करेंगे तो बीमा प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकती क्योंकि केंद्र, राज्यों द्वारा प्रीमियम के भुगतान के बाद ही अपना अंश देता है। स्पष्ट है कि 27 राज्यों की भागीदारी से शुरू हुई इस योजना में उनकी दिलचस्पी कम होती जा रही है। सात कृषि प्रधान राज्यों- आंध्र प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना, बिहार, गुजरात, पंजाब और पश्चिम बंगाल ने इस योजना को बंद कर दिया है। इनमें से कुछ राज्यों की अपनी बीमा योजनाएं हैं।

बाकी 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 19 ने रबी 2021 सीजन में योजना को अपनाया। योजना में राज्यों की घटती दिलचस्पी का प्रमुख कारण वित्तीय बाधांए हैं। दरअसल, खरीफ की प्रीमियम दरें 2015 में 11.6 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 12.5 प्रतिशत हो गई हैं। कई राज्यों के लिए प्रीमियम सब्सिडी बड़ी राशि है। उदाहरण के लिए 2020-21 में राजस्थान द्वारा भुगतान की जाने वाली प्रीमियम सब्सिडी 2,822.7 करोड़ रुपए थी। यह राशि राज्य के कृषि बजट का 25 प्रतिशत थी।

आकलन महत्वपूर्ण

ओडिशा के सबसे महत्वपूर्ण कृषि जिले बरगढ़ के बबेबिरा गांव के रंजन बारिक ने इस साल निराशा में पीएमएफबीवाई से बाहर होने का विकल्प चुना है। बारिक का कहना है कि शुरू में उन्हें राज्य के कृषि विभाग, राजस्व विभाग के अधिकारियों और बीमा कंपनी के प्रतिनिधियों द्वारा ज्वाइंट क्रॉप कटिंग एक्पेरिमेंट्स (सीसीई) के आधार पर मुआवजा मिल रहा था। लेकिन 2019 से निजी बीमा कंपनियां सरकारी अधिकारियों के आकलन का पालन नहीं कर रही हैं और कई दावों को अपने आकलन के आधार पर खारिज कर रही हैं।

फसल नुकसान का आकलन करने के लिए सभी अधिसूचित क्षेत्रों में सीसीई कटाई से ठीक पहले किए जाते हैं। कंपनियां औसत पैदावार का आंकड़ा मिलने के दो हफ्तों के भीतर दावों का निपटारा करने को बाध्य हैं। फसली मौसम के मध्य में नुकसान का आकलन सात दिन के भीतर होना चाहिए और 30 दिन के अंदर भुगतान हो जाना चाहिए। स्थानीय घटना की स्थिति में बीमित किसान को 72 घंटे के भीतर बीमा कंपनी को सूचित करना होता है। इसके बाद 10 दिनों में प्रभावित क्षेत्र का आकलन किया जाता है और नुकसान की आकलन रिपोर्ट तैयार होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान किया जाता है।

सीसीई के मामले पीएमएफबीवाई की सफलता, नुकसान के आकलन की सटीकता पर निर्भर करती है। आदर्श रूप से सीसीई के तहत टीम बीमा इकाई में रैंडम क्षेत्रों का चयन करती है (राज्य एक बीमा इकाई के रूप में गांव/गांव पंचायत/मंडल/तालुका/जिले को अधिसूचित करते हैं)। इस टीम में सरकारी अधिकारी और स्थानीय बीमा कंपनी शामिल होती है। टीम खेत के एक छोटे से हिस्से की पहचान करती है और उस मौसम की उपज का पता लगाने के लिए उस क्षेत्र में फसल की कटाई की जाती है। उनके आकलन के आधार पर तय होता है कि बीमा इकाई में नामांकित सभी किसानों को मुआवजा मिलेगा या नहीं।

गांव/ग्राम पंचायत के मामले में रैंडम रूप से चयनित भूखंडों का न्यूनतम नमूना चार, मंडल के मामले में 10, तालुका या ब्लॉक के मामले में 16 और जिले के मामले में 24 है। एक बीमा इकाई में अधिसूचित फसल की औसत उपज पिछले सात वर्षों में से सबसे अच्छे पांच वर्षों की औसत होगी। बरगढ़ के किसानों का कहना है कि पहले कृषि विभाग के अधिकारी उन्हें सीसीई से कुछ दिन पहले सूचित करते थे और वे अभ्यास के दौरान उपस्थित रहते थे। अब निजी कंपनियां बिना किसानों को बताए आकलन करती हैं। किसानों की इस बात से कृषि विभाग के अधिकारी भी सहमत हैं। एक अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, “वे उपग्रह से फसल के नुकसान का आकलन करते हैं, एकतरफा निर्णय लेते हैं और दावों को खारिज करते हैं। नतीजतन, किसानों का बीमा कंपनियों से भरोसा उठ गया है।”

भ्रष्टाचार और उपज की गुणवत्ता पर विवाद

उत्तर प्रदेश में जालौन जिले के किसान योजना में भ्रष्टाचार की शिकायत करते हैं। अमखेड़ा गांव के किसान कमलेश 2017 से हर साल प्रीमियम के रूप में 7,200 रुपए का भुगतान करते हैं। फरवरी 2020 में हुई ओलावृष्टि में उनकी और अन्य किसानों की मटर की फसल खराब हो गई। कमलेश बताते हैं, “करीब 500 किसानों की फसल नष्ट हुई थी लेकिन मुआवजा केवल 50-60 लोगों को ही मिला। लेखपाल नुकसान के आकलन के लिए किसानों से रिश्वत लेते हैं। जो रिश्वत देते हैं, उनका नाम शामिल कर लिया जाता है।” उत्तर प्रदेश में भी फसल बीमा चुनने वाले किसानों की संख्या 2018 में 28 लाख से घटकर 2021 में 17.9 लाख पहुंच गई है।

नुकसान के आकलन के तरीके रूप में सीसीई की शुरुआत से ही आलोचना की जाती रही है। योजना के 2020 के संशोधित परिचालन दिशानिर्देशों में भी कहा गया है कि “उपज डेटा की गुणवत्ता पर विवाद योजना के प्रभावी कार्यान्वयन में एक बाधा है” और सीसीई प्रक्रिया का डिजिटलाइजेशन अनिवार्य होना चाहिए, जिसमें जियो-कोडिंग (सीसीई के स्थान का अक्षांश और देशांतर) भी होनी चाहिए। साथ ही अधिकारियों को सीसीई भूखंड व सीसीई गतिविधि की तस्वीरों में तिथि और समय को दर्शाना होगा। हालांकि नए नियमों में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा 2020 में कहा गया है कि राज्य स्तर पर कार्यान्वयन एजेंसियों ने इस पर कार्रवाई नहीं की। कई अध्ययनों ने किसानों, बीमा कंपनियों और सरकार द्वारा सीसीई में विसंगतियों को उजागर किया है। जबकि कुछ मामलों में हवाई सर्वेक्षण का दुरुपयोग पाया गया है। सर्वेक्षण में नुकसान को कम दिखाने के लिए ड्रोन द्वारा नष्ट फसल के बजाय स्वस्थ फसल को दिखा गया। कुछ मामलों में नुकसान को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए सीसीई स्टाफ को किसानों द्वारा धमकाया गया।

सार्वजनिक क्षेत्र के दो उपक्रमों (पीएसयू)- कृषि बीमा कंपनी लिमिटेड और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी में अपने कार्यकाल के दौरान फसल बीमा को करीब से देखने वाले राजीव चौधरी कहते हैं कि नुकसान का आकलन उस तरह नहीं किया जाता, जो सोचा गया था। वह बताते हैं, “नुकसान का आकलन मैनुअल तरीके से होता है। पटवारी प्रणाली में आप बहुत सी कमियां और गलत तरीके से दर्ज दावे देख सकते हैं। सीसीई सदियों पुरानी व्यवस्था है। यह मुख्य रूप से योजना उद्देश्यों के लिए उपज का अनुमान लगाने के लिए बनाई गई थी, बीमा के मकसद से नहीं।”

मानव संसाधन की कमी

सीसीई के पालन-संचालन में मानव संसाधन की कमी एक ऐसी बाधा है जिसे सरकार पीएमएफबीवाई की स्थापना के बाद से पार नहीं कर पाई है। राज्य भी भुगतान में देरी के लिए अपर्याप्त मानव संसाधन को जिम्मेदार ठहराते हैं। इतनी बड़ी योजना के लिए सीसीई को समर्पित कर्मचारियों की आवश्यकता होती है क्योंकि छोटी कटाई अवधि में उन्हें बड़े हिस्से को कवर करना पड़ता है। सरकार इस बात से वाकिफ भी है। राजीव चौधरी कहते हैं, “उम्मीद थी कि सरकार 2021 से प्रमुख फसलों- गेहूं और धान को हुए नुकसान का आकलन ड्रोन या सैटेलाइट से करने लगेगी। सरकर ने इस दिशा में आगे बढ़ते हुए काम शुरू किया और 16 रिमोट सेंसिंग कंपनियों को शॉर्टलिस्ट भी किया। इन कंपनियों ने अपनी योजनाएं भी सौंप दी हैं लेकिन उसके बाद से काम आगे नहीं बढ़ा।”

इन तमाम कारणों के बीच पीएमएफबीवाई एक ऐसी योजना प्रतीत होती है जिससे किसान, राज्य या बीमा कंपनियां खुश नहीं हैं। यह योजना 14 निजी और सभी पांच सार्वजनिक क्षेत्र की सामान्य बीमा कंपनियों के साथ शुरू हुई। लेकिन खरीफ 2021 सीजन केवल 10 निजी बीमा कंपनियों और एक पीएसयू द्वारा बोली लगाई गई। उनका कहना है कि पीएमएफबीवाई घाटे में चल रही योजना बन गई है। 2018-19 और 2019-20 में कुल प्रीमियम क्रमशः 17,220 करोड़ रुपए और 19,966 करोड़ रुपए था। वहीं रिपोर्ट किए गए दावे 29,341 करोड़ रुपए और 27,394 करोड़ रुपए के थे, जिसका अर्थ है कुल 19,549 करोड़ रुपए का नुकसान।

शुरुआती वर्षों में स्थिति ऐसी नहीं थी। बीमा कंपनियों द्वारा भुगतान किए गए दावे कुल प्रीमियम से कम थे। योजना में शामिल राज्यों के घाटे में जाने से समस्या और बढ़ गई है। सूत्रों के अनुसार, “कुछ राज्य सरकारों ने यह दावा करते हुए योजना से बाहर होने का विकल्प चुना है कि उन्हें किसी विशेष वर्ष में पर्याप्त दावे प्राप्त नहीं हुए हैं। इसका अर्थ है कि यह एक अच्छा फसल वर्ष था। उदाहरण के लिए पंजाब। राज्यों का कहना है कि वे नकद भुगतान करके या आवश्यकता पड़ने पर कुछ मुआवजा योजनाओं के माध्यम से स्वयं प्रबंधन कर सकते हैं। ऐसे में उन्हें पीएमएफबीवाई के तहत सब्सिडी प्रीमियम का भुगतान करने की क्या जरूरत है?”

तमाम कमियों के बावजूद पीएमएफबीवाई किसानों के लिए पूर्ववर्ती संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना की तुलना में बेहतर विकल्प है क्योंकि इसमें प्रीमियम राशि कम और रिस्क कवरेज तुलनात्मक रूप से अधिक है। सरकार ने इस योजना को और अधिक कुशल बनाने के उद्देश्य से दो बार बदलाव किए हैं। सरकार ने हाल ही में पीएमएफबीवाई के लिए उपयुक्त मॉडल का सुझाव देने के लिए दो अलग-अलग पैनल भी स्थापित किए हैं। एक पैनल विभिन्न प्रौद्योगिकी-आधारित दृष्टिकोणों को अपनाने और फसल उपज अनुमान में ड्रोन के उपयोग की व्यवहार्यता का अध्ययन करेगा। दूसरा पैनल विभिन्न बीमा मॉडल, विशेष रूप से कप और कैप मॉडल का लागत-लाभ का विश्लेषण करेगा जिसे अब भी बीड मॉडल के रूप में जाना जाता है। बीड में बीमा कंपनी कुल प्रीमियम का 110 प्रतिशत कवर प्रदान करती है और यदि दावा कवर से अधिक है तो राज्य सरकार शेष राशि का भुगतान करेगी। यदि दावा एकत्र किए गए प्रीमियम से कम है तो बीमा कंपनी राशि का 20 प्रतिशत हैंडलिंग शुल्क के रूप में रखेगी और बाकी की प्रतिपूर्ति राज्य सरकार को करेगी। इन मॉडलों की सफलता की असली परख आपदाओं के वक्त होगी, जो शायद बहुत दूर नहीं है।

(ओडिशा के नुआपाड़ा व सोनपुर से अजीत पांडा और स्वाधीन मेहर से इनपुट्स के साथ)

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