
तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण बाढ़ वाले इलाकों में बस्तियां बढ़ रही हैं, इसका लोगों पर अलग-अलग तरह से असर पड़ता है। अध्ययन में ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) में असुरक्षित जगहों पर रहने वाले लोगों के द्वारा सामना किए जाने वाले बाढ़ के खतरों की गहन जांच-पड़ताल की गई है।
भारत की बात करें तो यहां 60 करोड़ से अधिक लोग तटीय या बाढ़ के खतरे वाले इलाकों में रहते हैं। हालांकि ग्लोबल साउथ में कमजोर समुदायों में बाढ़ को लेकर आंकड़ों का अभाव है।
एक नए अध्ययन ने 129 कम और मध्यम आय वाले देशों में झुग्गी बस्तियों के उपग्रह चित्रों का विश्लेषण किया, उनकी तुलना 343 बड़े पैमाने पर बाढ़ के मानचित्रों से करके इस अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
अध्ययन में पाया गया कि भारत में बाढ़ के मैदानों में असुरक्षित बस्तियों में रहने वालों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। 15.8 करोड़ से अधिक आबादी तो गंगा नदी के प्राकृतिक रूप से बाढ़-प्रभावित क्षेत्र में ही रहती है।
ऐसे लोगों का सबसे बड़ा जमावड़ा और सबसे बड़ी संख्या दक्षिण एशियाई देशों में है। भारत इस मामले में सबसे आगे है, उसके बाद इंडोनेशिया, बांग्लादेश और पाकिस्तान का स्थान है। अन्य बड़े इलाकों में रवांडा और उसके आसपास के क्षेत्र, उत्तरी मोरक्को और रियो डी जेनेरियो के तटीय क्षेत्र शामिल हैं।
कुल मिलाकर ग्लोबल साउथ में 33 फीसदी अनौपचारिक बस्तियां, यानी लगभग 44.5 करोड़ लोग, 67,568 समूहों के 908,077 घरों में रहते हैं, ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं जो पहले ही बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं। भारत और ब्राजील जैसे देशों में भी कई भंकर बाढ़ों का सामना करने के बावजूद बाढ़ के मैदानों में बसी बस्तियों की संख्या बहुत ज्यादा है।
नेचर सिटीज में प्रकाशित अध्ययन में खतरों के प्रबंधन रणनीतियों की कमी पर प्रकाश डाला गया है, जो जनसंख्या-स्तरीय नजरियों से अलग, संवेदनशील समुदायों को प्राथमिकता देती हैं, जिनमें पहले से ही बाढ़ का सामना कर चुके लोग भी शामिल हैं।
शोधकर्ताओं ने मानव बस्तियों को ग्रामीण, उपनगरीय और शहरी क्षेत्रों में बांटा और पाया कि लैटिन अमेरिका और कैरिबियन में शहरीकरण की दर काफी जायदा (80 फीसदी) थी और इस प्रकार 60 फीसदी से अधिक बस्तियां शहरी इलाकों में थीं। इसके विपरीत, उप-सहारा अफ्रीका में शहरीकरण की दर सबसे कम थी जो लगभग 63 फीसदी अनौपचारिक बस्तियां ग्रामीण थीं। सिएरा लियोन और लाइबेरिया में, अनौपचारिक बस्तियों में अधिकांश जनसंख्या निवास करती पाई गई।
अध्ययन के दौरान भारत में 40 फीसदी झुग्गी-झोपड़ियां शहरी और उप-नगरीय इलाकों में थीं। नौकरियों में कमी, सामाजिक असुरक्षा और धन की कमी सहित कई कारणों से लोग बाढ़ के मैदानों में बसने के लिए मजबूर हो जाते हैं। भारत और बांग्लादेश में गंगा के मैदानी इलाकों में बड़ी जनसंख्या रहती है।
अध्ययन में संसाधनों तक पहुंच में असमानताओं और इस प्रकार बाढ़ के प्रति स्थानीय प्रतिक्रियाओं को भी सामने लाया गया है। बाढ़ से होने वाले नुकसान के अलावा इन असुरक्षित निवासियों को नौकरियों और सेवाओं तक पहुंच में भी कमी है। बाढ़ से प्रभावित आबादी की कम शिक्षा के स्तर जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों और बाढ़ बीमा जैसे संस्थागत कारकों पर निर्भर पाई गई।
अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया भर में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले और बिना झुग्गी-झोपड़ियों वाले दोनों ही बाढ़ के मैदानों में रहते हैं, लेकिन इसके पीछे के कारण अलग-अलग हैं। यूरोप जैसे समृद्ध क्षेत्रों में, भारी खतरे वाले इलाकों में बाढ़ बीमा प्रीमियम में छूट दी जाती है।
लोगों और घरों की सुरक्षा के लिए निःशुल्क बुनियादी ढांचे भी मौजूद हैं। हालांकि ग्लोबल साउथ में, बाढ़ क्षेत्र सस्ती जमीन और आवास प्रदान करते हैं, जिससे कम आय वाले परिवार अधिक असुरक्षित क्षेत्रों में चले जाते हैं।
आंकड़ों से पता चलता है कि अनौपचारिक बस्तियों के पैटर्न में भी बाढ़ के मैदानों में बसने की एक अलग प्रवृत्ति है, कम लागत के कारण झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के बाढ़ के मैदानों में बसने की संभावना 32 फीसदी अधिक होती है, जैसा कि मुंबई और जकार्ता जैसे शहरों में देखा जा सकता है।
अध्ययन के मुताबिक, ये निष्कर्ष मशीन लर्निंग के उपयोग की अवधारणा पर निर्भर हैं, जो बड़ी मात्रा में आंकड़ों को संसाधित करके उपग्रह चित्रों का विश्लेषण कर सकता है और जनसंख्या घनत्व में शामिल सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों जैसी छोटी से छोटी जानकारियां निकाल सकता है।
अध्ययनकर्ताओं ने भविष्य में बाढ़ के खतरों का प्रभावी ढंग से अनुमान लगाने के लिए झुग्गी-झोपड़ियों के विस्तार, जलवायु परिवर्तन और मानव प्रवास जैसी समयबद्ध प्रक्रियाओं का अध्ययन करने की योजना बनाई है।