
मैकगिल विश्वविद्यालय के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने ऐतिहासिक रिकॉर्ड की मदद से ग्लोबल साउथ के लिए जलवायु परिवर्तन मॉडल की सटीकता में सुधार करने का एक तरीका विकसित किया है।
इसके लिए शोधकर्ताओं 19वीं सदी के मिशनरी आंकड़ों को जलवायु मॉडलर द्वारा प्रदान किए गए क्षेत्र के वर्तमान आंकड़ों के साथ जोड़ा। उन्होंने ऐतिहासिक रिकॉर्ड को मापने का एक तरीका तैयार किया, जो वैज्ञानिक रूप से दर्ज किए जाने के बजाय किस्से-कहानियों पर आधारित थे।
इसके चलते इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के पहले से उपलब्ध रिकॉर्ड की तुलना में अधिक बड़ा रिकॉर्ड उपलब्ध हो पाए, जिसमें जलवायु परिवर्तन मॉडल की सटीकता को बढ़ाने की क्षमता है। यह शोध क्लाइमेट ऑफ द पास्ट में प्रकाशित किया गया है।
शोध पत्र के हवाले से मैकगिल के इंडियन ओशन वर्ल्ड सेंटर के शोधकर्ता और प्रमुख अध्ययनकर्ता के हवाले से कहा गया है कि ग्लोबल साउथ की सामान्य वैज्ञानिक उपेक्षा अब इन क्षेत्रों में संस्थानों द्वारा धीरे-धीरे दूर की जाने लगी है। तंजानिया ग्लोबल साउथ के कई उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की तरह है, क्योंकि 20वीं सदी के मध्य से पहले जलवायु परिवर्तन के साक्ष्य अभी तक एकत्र या इनका विश्लेषण नहीं किया गया है।
शोध में कहा गया है कि यह बहुत छोटे हिस्से के रूप में इसलिए है क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन पर शोध करना अक्सर अधिक कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पेड़ों के छल्लों या वलय का विश्लेषण करना कठिन है क्योंकि कई उष्णकटिबंधीय प्रजातियां हर साल वलय प्रदान नहीं करती हैं या वे जलवायु में बदलाव के प्रति अलग तरह से प्रतिक्रिया करती हैं।
इस बीच झील के तलछट के विश्लेषण से साल भर के मौसम या मौसमी जलवायु स्थितियों के बजाय कई दशकों की प्रवृत्तियों का पता चलता है। इसलिए, शोधकर्ताओं ने ऐतिहासिक दस्तावेजों की मदद ली।
खोजकर्ताओं ने बारिश और सूखे के बदलते पैटर्न पर रखी नजर
शोध के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने 1856-1890 के बीच मध्य तंजानिया के उजीजी, ताबोरा और मपवाप्वा शहरों के ऐतिहासिक जलवायु रिकॉर्ड देखे। ये सभी एक ही अक्षांश पर हैं, जहां बारिश का मौसम समान अवधि का और एक जैसे महीनों में होता है।
शोध में कहा गया है कि यूरोपीय खोजकर्ता और शुरुआती साम्राज्यवादी 1850 के दशक के उत्तरार्ध से इस क्षेत्र से गुजरे। उन्होंने मौसम के बारे में अपने अवलोकनों पर गौर किया और स्थानीय लोगों से पिछले मौसमों और सालों के बारे में जानकारी एकत्र की।
यूरोप में स्थित विभिन्न मिशनरी समाजों के प्रतिनिधि 1870 के दशक की लंबी अवधि के लिए यहां रहने आए। शोधकर्ताओं के अनुसार, उनके रिकॉर्ड जानकारी का अधिक सुसंगत और विश्वसनीय स्रोत प्रदान करते हैं।
19वीं सदी में 30 साल की अवधि में बारिश के पैटर्न का रिकॉर्ड
हालांकि उनके पत्रों और दस्तावेजों में जो कुछ भी दर्ज किया गया था, उसके संदर्भ बहुत अलग-अलग थे, लेकिन यूरोपीय लोग जलवायु स्थितियों का दस्तावेजीकरण करने में रुचि रखते थे, जिसमें बारिश में बदलाव, सूखे, बाढ़ और फसल की अवधि, साथ ही चरागाहों और खेतों की स्थिति भी शामिल थी।
1856 से 1890 की अवधि के लिए यह जानकारी लंबी अवधि में जलवायु प्रवृत्तियों की एक तस्वीर पेश करने के लिए काफी है, खासकर जब मॉडल किए गए आंकड़ों के साथ इन्हें जोड़ा जाता है।
जटिल उत्पत्ति और प्राचीन जानकारी
शोध में कहा गया है कि शोधकर्ताओं को पता है कि ऐतिहासिक आंकड़ों की उत्पत्ति में गड़बड़ी है और इसके साथ एक जटिल विरासत जुड़ी हुई है।
शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया कि सूखे की समस्याओं को लेकर मिशनरी विवरण ने अफ्रीकी मामलों में यूरोपीय हस्तक्षेप के रूप में काम किया, जो सूखे के प्रति लचीलापन बढ़ाने में विफल रहा। यह एक बहुत ही नस्लीय और समस्याग्रस्त स्थिति थी जिसने उन लोगों को क्रूर बना दिया जो जल्द ही उपनिवेश बन गए।
उन्होंने कहा कि इन आंकड़ों को जलवायु मॉडल में जोड़ने से उनकी सटीकता में सुधार होगा। उनका मानना है कि उनके अध्ययन में विकसित कार्यप्रणाली को ग्लोबल साउथ में अधिक व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है।
शोध में कहा गया कि इस क्षेत्र पर किए गए अवलोकनों के साथ सत्यापन की कमी के कारण केवल जलवायु मॉडल के आंकड़ों का उपयोग करना सही नहीं है। जलवायु मॉडलिंग के आंकड़ों में दस्तावेजी आकड़ों को जोड़कर कर, यह शोध अतीत में ऐसे क्षेत्रों में क्या हुआ, इसकी एक अधिक मजबूत और विश्वसनीय तस्वीर प्रदान करता है।
इसलिए यह इन आंकड़ों की कमी वाले क्षेत्र पर जलवायु मॉडल को सत्यापित करने में मदद करता है और अधिक सटीक तथा विश्वसनीय भविष्य के अनुमान प्रदान करने में मदद कर सकता है।