रेत खनन: समुद्री जीवन के लिए खतरा बन रही विकास की अंधी दौड़

रेत को अक्सर जड़ सामग्री के रूप में देखा जाता है, लेकिन वास्तव में यह बेहद अहम संसाधन जो तटीय और समुद्री पारिस्थितिकी को आकार देता है और तटरेखाओं की रक्षा करता है
हर साल 400 से 800 करोड़ टन तक रेत समुद्रों से निकाली जा रही है, जो हर दिन रेत से भरे जाने वाले दस लाख ट्रकों के बराबर है;; फोटो: आईस्टॉक
हर साल 400 से 800 करोड़ टन तक रेत समुद्रों से निकाली जा रही है, जो हर दिन रेत से भरे जाने वाले दस लाख ट्रकों के बराबर है;; फोटो: आईस्टॉक
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दुनिया में शहरीकरण और बढ़ते निर्माण के साथ रेत की मांग लगातार बढ़ रही है। इसे मांग को पूरा करने के लिए रेत खनन में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका सीधा असर पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है। देखा जाए तो आज जिस तेजी से खनन किया जा रहा है वो मानव-प्रकृति के बीच के संतुलन को बिगाड़ रहा है। ऐसे में मानव विकास की अंधी दौड़ की कीमत प्रकृति को चुकानी पड़ रही है।

दुनिया में रेत खनन के इस बढ़ते व्यापार से समुद्र भी सुरक्षित नहीं हैं, जिनपर लगातार दबाव बढ़ रहा है। यहां तक ​​कि संरक्षित क्षेत्रों पर भी इसका असर पड़ रहा है। हालांकि समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को हो रहे नुकसान के बावजूद काफी हद तक इस समस्या को अनदेखा किया जा रहा है।

रेत खनन के समुद्री जीवन पर बढ़ते प्रभावों को उजागर करते हुए एलिकांटे विश्वविद्यालय, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी, गेन्ट, जिनेवा विश्वविद्यालय और मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं ने एक नया अध्ययन किया है, जिसके नतीजे जर्नल वन अर्थ में प्रकाशित हुए हैं।

गौरतलब है कि रेत और बजरी उन संसाधनों में शामिल हैं, जिनका सबसे ज्यादा अधिक दोहन हुआ है। भले ही यह हर जगह मौजूद हैं, लेकिन जिस तरह से इनका खनन हो रहा है, वो पर्यावरण पर गहरा असर डाल रहा है। 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के मुताबिक पानी के बाद रेत दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा उपयोग की जाने वाली वस्तु है। समुद्री रेत निर्माण का एक मुख्य घटक है, जिसके भण्डार बड़ी तेजी से कम हो रहे हैं। यूएनईपी का अनुमान है कि हर साल 400 से 800 करोड़ टन तक रेत समुद्रों से निकाली जा रही है, जो हर दिन रेत से भरे जाने वाले दस लाख ट्रकों के बराबर है।

आंकड़ों पर नजर डालें तो 1970 से 2019 के बीच प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तीन गुना से भी ज्यादा हो गया है, जिसका मुख्य कारण रेत और अन्य निर्माण सामग्री के खनन में होने वाली भारी वृद्धि है, जिन्हें एग्रीगेट्स के नाम से जाना जाता है। संसाधनों के दोहन में हो रही यह वृद्धि जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ प्रजातियों को भी नुकसान पहुंचा रही है, साथ ही दुनिया में जल संकट को भी बढ़ावा दे रही है।

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हर साल 400 से 800 करोड़ टन तक रेत समुद्रों से निकाली जा रही है, जो हर दिन रेत से भरे जाने वाले दस लाख ट्रकों के बराबर है;; फोटो: आईस्टॉक

देखा जाए तो रेत दुनिया भर में मानव विकास का शाब्दिक आधार है, यह कंक्रीट, डामर, कांच और इलेक्ट्रॉनिक्स का एक प्रमुख घटक है। अपेक्षाकृत सस्ता होने के साथ-साथ इसका दोहन आसान है। गहरे समुद्र में खनन या महत्वपूर्ण खनिजों के विपरीत, समुद्रों में होते रेत खनन पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। फिर भी, यह मछली पकड़ने के बाद इंसानों द्वारा की जाने वाली दूसरी सबसे आम तटीय गतिविधि है, और इसकी आपूर्ति अक्सर हल्के में लिया जाता है।

रेत खनन से न केवल तटीय क्षेत्र कटाव का सामना कर रहे हैं, साथ ही इससे समुद्री जीवों के आवास को भी नुकसान हो रहा है। यह आक्रामक प्रजातियों के प्रसार में सहायक हो रहा है, साथ ही इसकी वजह से मत्स्य पालन में भी कमी आ रही है। रेत खनन से पानी धुंधला हो जाता है, यह समुद्री घास और मूंगे को नष्ट कर देता है।

इसकी वजह से समुद्री आवास खंडित हो सकते हैं। इतना ही नहीं यह लहरों के पैटर्न में भी बदलाव की वजह बन रहा है। इसी तरह खनन अन्य तरीकों से भी समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचा रहा है।

मानव के साथ-साथ प्रकृति के लिए भी बेहद जरूरी है रेत

वैज्ञानिकों ने चेताया है कि रेत खनन से समुद्री जीवन और विविधता को नुकसान पहुंच रहा है। यह समझना होगा कि यह रेत न केवल हम इंसानों बल्कि प्रकृति के लिए भी बेहद आवश्यक है। ऐसे में इसे संतुलित किए जाने की आवश्यकता है।

शोध के मुताबिक इससे पहले कि समस्या और बदतर हो जाए। इससे उबरने के लिए बेहतर समझ, सख्त नियमों और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने के प्रयासों पर जोर दिए जाने की आवश्यकता है।

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मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता जियांगुओ "जैक" लियू ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में कहा, "रेत प्रकृति और मानव विकास दोनों के लिए आवश्यक है। यह न केवल निर्माण बल्कि प्राकृतिक दुनिया को भी आकार देते हैं।" उनके मुताबिक इनका दोहन एक वैश्विक चुनौती बन चुके हैं।

उनका यह भी कहना है कि "मेटाकपलिंग फ्रेमवर्क जैसे उपकरण जटिलता को सुलझाने के लिए आवश्यक हैं। यह न केवल रेत खनन के स्थानों, बल्कि साथ ही परिवहन मार्गों और जिन स्थानों में निर्माण के लिए रेत का उपयोग किया जा रहा है वहां भी इनके छिपे प्रभावों को उजागर करने में मदद कर सकते हैं।"

गौरतलब है कि मेटाकपलिंग, यह अध्ययन करने का एक नया तरीका है कि किस तरह से मनुष्य और प्रकृति परस्पर क्रिया करते हैं।

मैकगिल और कोपेनहेगन विश्वविद्यालय द्वारा किए एक शोध से पता चला है कि दुनिया भर में हर साल करीब 5,000 करोड़ टन रेत और बजरी नदियों, झीलों आदि से निकाली जा रही है। यह दुनिया में सबसे ज्यादा खनन की जाने वाली सामग्री है। अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बढ़ते शहरीकरण की वजह से रेत, बजरी और छोटे पत्थरों की मांग में तेजी से वृद्धि हुई है।

वहीं यदि सीमेंट की मांग को देखें तो पिछले 20 वर्षों के दौरान दुनिया भर में इसकी मांग में 60 फीसदी की वृद्धि हुई है। वहीं इस दौरान चीन में इसकी मांग में करीब 438 फीसदी की जबरदस्त वृद्धि दर्ज की गई है। गौरतलब है कि सीमेंट की मांग सीधे तौर पर रेत और बजरी की बढ़ती से भी जुड़ी है।

स्पेन के एलिकांटे विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता ऑरोरा टोरेस का कहना है, "इस संसाधन को अक्सर जड़ सामग्री के रूप में देखा जाता है, जो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। लेकिन वास्तव में, यह बेहद अहम संसाधन जो तटीय और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को आकार देता है और तटरेखाओं की रक्षा करता है। इसके साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र और आजीविका को भी बनाए रखता है।"

उनके मुताबिक चूंकि रेत खनन कटाव, जलवायु अनुकूलन और जैव विविधता को प्रभावित करता है। ऐसे में इसे समुद्री संरक्षण, जलवायु योजनाओं और संसाधन प्रबंधन जैसी पर्यावरण संबंधी नीतियों में शामिल किया जाना चाहिए।

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