
दुनिया में करोड़ों लोगों के लिए बेहतर इलाज किसी सपने से कम नहीं। ऊपर से महंगी दवाएं इलाज को आम आदमी की पहुंच से दूर बना देती हैं। इसी कड़ी में किए एक नए अंतराष्ट्रीय अध्ययन ने खुलासा किया है कि कमजोर और मध्यम आय वाले देशों को समृद्ध देशों की तुलना में समान दवाओं के लिए कहीं ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है।
इससे पहले ही आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे देशों में लोगों पर इलाज का बोझ काफी बढ़ जाता है।
शोधकर्ताओं ने इस बात का भी खुलासा किया है कि दवाओं की उपलब्धता में भी असमानता की गहरी खाई मौजूद है। उदाहरण के लिए जहां यूरोप और पश्चिमी देशों में दवाएं आसानी से उपलब्ध हैं। वहीं अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में मरीजों को इसके लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है।
दवाओं की उपलब्धता से जुड़े आंकड़ों को देखें तो जहां कुवैत में महज 41 फीसदी जरूरी दवाएं उपलब्ध थीं, वहीं जर्मनी में यह आंकड़ा 80 फीसदी दर्ज किया गया।
यह अध्ययन अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारत सहित 87 देशों को कवर करने वाले 72 बाजारों में उपलब्ध 549 जरूरी दवाओं की कीमतों और उनकी बिक्री से जुड़े 2022 के आंकड़ों का विश्लेषण किया है।
इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जेएएमए) हेल्थ फोरम में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक भले ही अमीर देशों में कागजों पर दवाएं दिखने में महंगी हैं, लेकिन जब वहां लोगों की आय और उनके खरीदने की क्षमता को ध्यान में रखा जाए तो वे सस्ती पड़ती हैं। वहीं, दूसरी तरफ कमजोर देशों में भले ही दवाएं अंकित कीमतों के हिसाब से सस्ती लगती हों, लेकिन लोगों की कम आय के कारण असल में वो महंगी साबित होती हैं।
मतलब की आय और खरीदने की क्षमता के हिसाब से देखें तो अमीर देशों में दवाओं की असल कीमत गरीब देशों की तुलना में कम पड़ती है।
कमजोर देशों में जेब पर पड़ता भारी बोझ
यदि भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो भले ही वहां कागजों पर अंकित दाम (स्टिकर प्राइस) 72 बाजारों में चौथे सबसे कम थे, लेकिन यदि लोगों के खरीदने की शक्ति को ध्यान में रखें तो कीमतों के मामले भारत 29वें स्थान पर है। वहीं, पाकिस्तान में भले ही कीमतों कागजों पर सबसे कम हों, लेकिन वास्तविकता में लोगों की जेब पर पड़ने वाला बोझ करीब-करीब जर्मनी जितना ही है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात का भी खुलासा किया है कि कमजोर और मध्यम-आय वाले देशों में सरकारों और मरीजों पर दवाओं के खर्च का बोझ वास्तव में रिपोर्ट से भी कहीं ज्यादा असमान हो सकता है। अमीर देशों में दवाओं की कीमतों का बड़ा हिस्सा सरकारें सब्सिडी देकर कवर कर लेती हैं, जिससे मरीजों पर सीधे खर्च का दबाव घट जाता है। लेकिन गरीब और मध्यम आय वाले देशों में दवाओं का ज्यादातर बोझ सीधे लोगों की जेब पर पड़ता है।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में इस बात की भी गणना की है कि किसी मरीज को एक महीने की दवा का कोर्स खरीदने के लिए वहां की न्यूनतम मजदूरी के लिहाज से कितने दिन काम करना पड़ेगा। दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में भले ही दवाएं सस्ती हों, लेकिन मजदूरी बहुत कम होने के कारण वहां उन्हें खरीदना मुश्किल है। आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में लोगों को हेपेटाइटिस बी और एचआईवी/एड्स के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा टेनोफोविर डिसोप्रॉक्सिल की एक महीने की खुराक खरीदने के लिए न्यूनतम मजदूरी पर करीब 10 दिन काम करना पड़ेगा।
हालांकि साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी स्पष्ट किया है कि यह गणना न्यूनतम मजदूरी पर आधारित है, इसलिए यह सबसे कमजोर तबके की स्थिति को दर्शाती है। हालांकि, जिन देशों में आय में असमानता अधिक है, वहां यह पूरी तस्वीर नहीं दिखा पाती। फिर भी नतीजे दर्शाते हैं कि कमजोर और मध्यम-आय वाले देशों में दवाओं के सामर्थ्य को लेकर बड़ा अंतर मौजूद है।
अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि आय के लिहाज से यूरोप और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में दवाएं सबसे किफायती हैं, वहीं अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में यह लोगों की जेब पर सबसे महंगी साबित हुईं।
दवाओं की खपत के बारे में अध्ययन में कहा गया है कि 2022 में प्रति व्यक्ति दवाओं की औसत खपत यूरोप में सबसे अधिक 634 खुराक दर्ज की गई, वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया में सबसे कम 143 खुराक रिकॉर्ड की गई।
कौन सी दवाएं सबसे सस्ती और कौन सी सबसे महंगी?
शोध से पता चला है कि ज्यादातर बाजारों में मानसिक और हृदय रोग से जुड़ी दवाएं सबसे महंगी रहीं, जबकि हेपेटाइटिस बी और सी की दवाएं सबसे सस्ती थीं।
आठ आवश्यक दवाओं पर विशेष रूप से अध्ययन किया गया, जिनमें निमोनिया में इस्तेमाल होने वाली एमोक्सिसिलिन, टेनोफोविर डिसोप्रॉक्सिल, डिप्रेशन में दी जाने वाली एसिटालोप्राम और दर्द को दूर करने के लिए ली जाने वाली इबुप्रोफेन शामिल हैं।
अध्ययन के मुताबिक एमोक्सिसिलिन, आइबुप्रोफेन (दर्द), और साल्बुटामोल (दमा/अस्थमा) सबसे किफायती रही। इनकी कीमत हर देश में 1.2 दिन की न्यूनतम मजदूरी से कम रही। वहीं दूसरी ओर सबसे महंगी और मुश्किल से खरीदी जा सकने वाली दवा कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली पैक्लिटैक्सेल रही। गरीब देशों में मरीजों को इसे खरीदने के लिए औसतन 40 दिन से अधिक काम करना पड़ा।
अध्ययन में यह स्पष्ट कहा गया है कि भले ही कमजोर और मध्यम आय वाले देशों में दवाओं की कीमतें कागजों पर कम हों। लेकिन जब कमाई और खर्च करने की क्षमता के आधार पर देखें तो वो मरीजों पर अमीर देशों से ज्यादा बोझ डाल रही हैं। ऐसे में इन जरूरी दवाओं को सुलभ और किफायती बनाने के लिए वैश्विक स्तर पर न्यायसंगत रणनीतियां जरूरी हैं।