भारत में एक सर्वे में हिस्सा लेने वाले आधे से ज्यादा डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों का मानना है कि वो जिस जगह काम करते हैं वो उनके लिए सुरक्षित नहीं है। विशेष रूप से राज्य और केंद्र सरकार के मेडिकल कॉलेजों में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मियों ने इसको लेकर विशेष रूप से चिंता जताई है।
यह जानकारी वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज (वीएमएमसी), सफदरजंग अस्पताल और दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के विशेषज्ञों के नेतृत्व में किए एक नए अध्ययन में सामने आई है, जिसके नतीजे जर्नल एपिडेमियोलॉजी इंटरनेशनल में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारतीय चिकित्सा संस्थानों के भीतर बुनियादी सुरक्षा ढांचे में ‘महत्वपूर्ण खामियों’ को उजागर किया है।
यह अध्ययन वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर कार्तिक चढार, डॉक्टर जुगल किशोर के साथ-साथ एम्स की डॉक्टर रिचा मिश्रा, डॉक्टर सेमंती दास, डॉक्टर इंद्र शेखर प्रसाद और डॉक्टर प्रकल्प गुप्ता के द्वारा किया गया है।
इस अध्ययन में देश के विभिन्न चिकित्सा संस्थानों से जुड़े 1,566 स्वास्थ्य कर्मियों का सर्वे किया गया है। इस सर्वे में हिस्सा लेने वालों में 55.5 फीसदी महिलाएं जबकि 44.5 फीसदी पुरुष शामिल थे। वहीं करीब एक चौथाई (24.7 फीसदी) डॉक्टर दिल्ली के थे, जिनमें से करीब आधे रेजिडेंट डॉक्टर के पद पर काम कर रहे हैं।
इस सर्वेक्षण में न केवल डॉक्टरों बल्कि साथ ही संकाय से जुड़े सदस्यों, चिकित्सा अधिकारियों, नर्सिंग स्टाफ और अन्य सहायक कर्मचारियों ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी हैं।
इस सर्वेक्षण में जिन स्वास्थ्य कर्मियों ने अपनी प्रतिक्रिया दी है उनमें से 71.5 फीसदी सरकारी मेडिकल कॉलेज में काम करते हैं। इसी तरह करीब 25.3 फीसदी स्वास्थ्य कर्मी केंद्र सरकार द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में काम कर रहे हैं जबकि 46.2 फीसदी राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे मेडिकल कॉलेज और अस्पतालों से जुड़े हैं।
वहीं 10.1 फीसदी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटलों में काम कर रहे हैं। वहीं करीब 2.2 फीसदी अपनी निजी क्लिनिक में प्रैक्टिस कर रहे हैं।
इसी तरह यदि विभाग के आधार पर देखें तो सर्वेक्षण में शामिल 33.8 फीसदी स्वास्थ्य कर्मी सर्जिकल विभाग में कार्यरत हैं, जबकि 49.2 फीसदी स्वास्थ्य कर्मी गैर-सर्जिकल विभाग में सेवा दे रहे हैं। आंकड़ों में यह भी सामने आया है कि 8.1 फीसदी कर्मी डायग्नोस्टिक और प्रयोगशाला का हिस्सा हैं, जबकि 6.4 फीसदी नर्सिंग, वहीं 2.1 फीसदी अन्य एवं 0.4 फीसदी प्रशासनिक सेवाओं से जुड़े हैं।
स्वास्थ्य कर्मियों और परिजनों के बीच बढ़ रहीं हैं हिंसक झड़पें
अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक 58.2 फीसदी डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी अपने आपको काम के दौरान असुरक्षित महसूस करते हैं। असुरक्षा का यह डर स्नातक डॉक्टरों में कहीं अधिक है, जहां 74.2 फीसदी स्नातक डॉक्टरों ने अपने आप को असुरक्षित महसूस किया, वहीं संकाय सदस्यों में यह आंकड़ा 51 फीसदी रहा।
इसी तरह सर्वें में शामिल 78.4 फीसदी स्वास्थ्य कर्मियों के मुताबिक उन्हें ड्यूटी के दौरान धमकाया गया है। इसी तरह करीब आधे स्वास्थ्य कर्मियों ने लम्बी शिफ्ट और रात के समय काम करने के दौरान ड्यूटी रूम की व्यवस्था न होने की बात कही है।
मौजूदा ड्यूटी रूम में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी एक बड़ी समस्या है। शोध के मुताबिक जहां मौजूदा ड्यूटी रूम मौजूद भी हैं वहां नियमित सफाई, कीट नियंत्रण, वेंटिलेशन, और एयर कंडीशनिंग की स्थिति बेहद लचर है। ऐसे में शोधकर्ताओं के मुताबिक यह परिणाम स्पष्ट तौर पर इस ओर करते हैं कि देशभर के स्वास्थ्य संस्थानों में मौजूदा सुरक्षा उपाय काफी नहीं है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि सरकारी अस्पतालों में रहने की स्थिति कहीं ज्यादा खराब है, वहां सुरक्षा कमजोर है तथा निजी अस्पतालों की तुलना में वे कम सुरक्षित हैं। असुरक्षा की यह भावना पुरुष स्वास्थ्यकर्मी में कहीं अधिक देखी गई।
70 फीसदी से अधिक स्वास्थ्यकर्मियों का मानना है कि सुरक्षा के लिए लगाए गार्डों की संख्या पर्याप्त नहीं है। वहीं 62 फीसदी ने आपात स्थिति के लिए लगाई अलार्म प्रणाली को लेकर असंतोष जताया है। वहीं करीब 50 फीसदी स्वास्थ्य कर्मियों ने आईसीयू और मनोरोग जैसे उच्च जोखिम वाले वार्डों में बेरोकटोक आवाजाही को लेकर असंतोष व्यक्त किया है। इसी तरह निगरानी और सुरक्षा में गंभीर खामियों को भी अध्ययन में उजागर किया गया है।
91.1 फीसदी स्वास्थ्य संस्थानों में प्रवेश के दौरान हथियारों और अन्य खतरनाक वस्तुओं की जांच और तलाशी का प्रावधान नहीं है। इसी तरह करीब तीन-चौथाई यानी 72.8 फीसदी स्वास्थ्य कर्मियों ने अस्पताल या स्वास्थ्य संस्थान में सुरक्षित चहारदीवारी न होने की बात स्वीकार की है।
इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो देश के अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम न होने से जुड़ी बड़ी खामियों को उजागर करते हैं। गौरतलब है कि आए दिन अस्पतालों में डॉक्टरों और मरीजों के परिजनों के बीच मारपीट और हिंसा की घटनाएं सामने आती रहती हैं। हाल ही में पश्चिम बंगाल में अस्पताल में ड्यूटी के दौरान एक महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना भी सुरक्षा में भारी चूक को उजागर करती है।
यही वजह है कि देश में आधे से अधिक स्वास्थ्य कर्मी अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं। खास तौर पर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। देखा जाए तो सुरक्षा की यह कमी कर्मचारी और मरीज दोनों को खतरे में डाल रही है।
ऐसे में डॉक्टर और मरीजों के बीच संबंधों और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए बेहतर सुरक्षा और पुख्ता कानूनों की जरूरत है।
इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट 20 अगस्त, 2024 को डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा के मद्देनजर नेशनल टास्क फोर्स (एनटीएफ) के गठन के निर्देश दिए थे। इस टास्क फोर्स का गठन डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए किया गया है। साथ ही इसका मकसद उनके कल्याण से जुड़ी चिंताओं को हल करने के लिए एक प्रोटोकॉल तैयार करना है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस नेशनल टास्क फोर्स की कार्य योजना तैयार करते समय दो मुख्य पहलुओं पर विचार करने के बात कही है, इसमें सबसे पहले चिकित्सा कर्मियों के खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकने पर जोर दिया गया है।
साथ ही प्रशिक्षुओं, आम लोगों, बुजुर्गों, डॉक्टरों, नर्सों के साथ-साथ सभी चिकित्सा कर्मचारियों के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक परिस्थितियों सुनिश्चित करने पर जोर देना और उसके लिए एक राष्ट्रीय प्रोटोकॉल बनाना शामिल है।