भारतीय वैज्ञानिकों ने बनाया 'वेनम मैप', मिलेगा सही इलाज का सुराग

भारत में हर साल सांपों के काटने से होने वाली 40 फीसदी से ज्यादा मौतों के लिए रसेल वाइपर जिम्मेवार है
बिहार के सुपौल जिला के मरौना पंचायत में सर्पदंश से 14 वर्षीय सुषमा की मृत्यु हो गई थी। फाइल फोटो: राहुल कुमार गौरव
बिहार के सुपौल जिला के मरौना पंचायत में सर्पदंश से 14 वर्षीय सुषमा की मृत्यु हो गई थी। फाइल फोटो: राहुल कुमार गौरव
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भारतीय वैज्ञानिकों ने देश में पाए जाने वाले खतरनाक सांप 'रसेल वाइपर' के जहर को समझने के लिए एक अनोखा तरीका अपनाया है। बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोधकर्ताओं ने जलवायु के आधार पर 'वेनम मैप' यानी जहर का नक्शा तैयार किया है। इस मैप से यह पता लगाया जा सकेगा कि किस इलाके में रसेल वाइपर का जहर कितना असरदार है।

अपने अध्ययन में शोधकर्ता कार्तिक सुनागर, नवनील सारंगी और आर आर सेनजी लक्ष्मे ने पुष्टि की है कि स्थानीय जलवायु की मदद से भारत में पाए जाने वाले बेहद जहरीले सांप 'रसेल वाइपर' (डाबोइया रसेली) के जहर की विशेषताओं का अनुमान लगाया जा सकता है।

इसकी मदद से सांप के काटने का शिकार बने लोगों को सही और असरदार इलाज मिल सकेगा। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्लोस नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज में प्रकाशित हुए हैं।

क्यों खास है रसेल वाइपर?

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज से जुड़े वैज्ञानिक कार्तिक सुनागर के अनुसार, “रसेल वाइपर दुनिया के सबसे खतरनाक सांपों में से एक है। इसकी वजह से हर साल सबसे ज्यादा लोगों की जान जा रही है। साथ ही यह बड़ी संख्या में लोगों को अपाहिज भी बना रहा है।“

शोध के मुताबिक भारत में हर साल सांपों के काटने से होने वाली 40 फीसदी से ज्यादा मौतों के लिए यह ही जिम्मेवार है। हालांकि इसका जहर अलग-अलग इलाकों में अलग असर दिखाता है। ऐसे में इसके काटने पर भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग लक्षण नजर आते हैं।

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बिहार के सुपौल जिला के मरौना पंचायत में सर्पदंश से 14 वर्षीय सुषमा की मृत्यु हो गई थी। फाइल फोटो: राहुल कुमार गौरव

डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 58,000 मौतें सर्पदंश से हो रही हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है। इसके बावजूद इन घटनाओं की रिपोर्ट बहुत ही कम की जाती है। इसके चलते इलाज में बहुत मुसीबत होती है।

शोधकर्ताओं के अनुसार सांप के जहर का असर कितना कम या ज्यादा होगा यह उसमें मौजूद एंजाइम की मात्रा पर निर्भर करता है, जिसे शिकार की उपलब्धता और मौसम जैसे कई कारक प्रभावित कर सकते हैं। हालांकि रसैल वाइपर के जहर में होने वाले बदलावों के पीछे के कारण अब तक स्पष्ट नहीं थे।

ऐसे में वैज्ञानिक यह जानना चाहते हैं कि इस सांप के जहर की ताकत और प्रभाव किन-किन जैविक कारकों जैसे भोजन और अजैविक कारकों जैसे मौसम के साथ बदलती है।

इसे समझने के लिए अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देशभर के 34 अलग-अलग क्षेत्रों से 115 रसेल वाइपर के जहर के सैंपल लिए और उनका विश्लेषण किया। साथ ही, उन्होंने इन इलाकों के तापमान, बारिश और नमी जैसे जलवायु आंकड़ों को भी एकत्र किया, ताकि यह समझा जा सके कि जिस इलाके से सांप पकड़े गए हैं, वहां की जलवायु और जहर की बनावट के बीच क्या संबंध है।

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उन्होंने पाया कि तापमान और बारिश जहर की बनावट में क्षेत्रीय बदलावों को कुछ हद तक स्पष्ट कर सकते हैं।

अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने जहर में मौजूद ऐसे टॉक्सिन की जांच की जो प्रोटीन, फॉस्फोलिपिड और अमीनो एसिड को तोड़ने वाले एंजाइम्स पर असर डालते हैं। उन्होंने पाया कि जहर में मौजूद एंजाइम, जो प्रोटीन, फैट और अमीनो एसिड को तोड़ते हैं उनकी मात्रा और ताकत उस इलाके की जलवायु पर भी निर्भर करती है।

तापमान, बारिश जैसे कारकों का भी पड़ता है असर

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्रोटीज एंजाइम की सक्रियता का मौसम के साथ सबसे मजबूत संबंध देखा गया। प्रोटीज एंजाइम प्रोटीन को तोड़ने में मदद करता है।

विशेष रूप से भारत के सूखे इलाकों में पाए जाने वाले सांपों में प्रोटीज की सक्रियता ज्यादा देखी गई। इसका मतलब है कि सूखा मौसम प्रोटीज की सक्रियता को बढ़ा सकता है। वहीं अमीनो एसिड ऑक्सीडेस नामक एंजाइम की गतिविधि पर जलवायु का कोई असर नहीं देखा गया।

शोधकर्ताओं ने इन आंकड़ों का उपयोग करके भारत में रसेल्स वाइपर के जहर के प्रकारों का एक मानचित्र तैयार किया है। इस वेनम मैप की मदद से डॉक्टर यह पहले से जान सकते हैं कि किस इलाके में सांप के काटने के बाद कौन से लक्षण सामने आ सकते हैं और कौन सा इलाज सबसे असरदार होगा।

ऐसे में शोधकर्ताओं को भरोसा है कि इस अध्ययन के नतीजों से भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों और अपंगता को कम करने में मदद मिल सकती है। यह 'वेनम मैप' डॉक्टरों को सही इलाज चुनने में मदद करेंगे और साथ ही ज़हर के खिलाफ विशेष एंटीबॉडी जैसे लक्षित उपचार विकसित करने में भी सहायक होंगे।

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