द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित एक नए अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में हर साल कम से कम चार करोड़ महिलाओं को प्रसव के कारण लंबे समय तक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मातृ स्वास्थ्य पर आधारित यह अध्ययन प्रसव से संबंधित उन समस्याओं को उजागर करता है जो जन्म देने के बाद महीनों या वर्षों तक बनी रहती हैं।
इनमें मिलन के दौरान दर्द जिसे डिस्परेयूनिया कहते हैं, जो प्रसव के बाद महिलाओं की एक तिहाई यानी 35 फीसदी से अधिक पर बुरा असर डालता है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द के 32 फीसदी, गुदा असंयम के 19 फीसदी, पेशाब की समस्या के आठ से 31 फीसदी, चिंता के नौ से 24 फीसदी, अवसाद के 11 से 17 फीसदी, पेरिनियल दर्द के 11 फीसदी, बच्चे के जन्म का डर जिसे टोकोफोबिया कहा जाता है, इसके छह से 15 फीसदी और दूसरे प्रसव के बांझपन के 11 फीसदी मामले शामिल हैं।
अध्ययनकर्ता स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के भीतर इन सामान्य समस्याओं को ज्यादा से ज्यादा मान्यता देकर इन पर गौर करने का सुझाव दे रहे हैं। जिनमें से कई समस्याएं ऐसी होती हैं जहां महिलाओं को आमतौर पर प्रसव के बाद उन सेवाओं तक पहुंच हासिल नहीं होती है।
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि गर्भावस्था और प्रसव के दौरान प्रभावी देखभाल भी खतरों का पता लगाने और जटिलताओं को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण निवारक हो सकता है। जिसका सही से प्रबंध न होने से जन्म के बाद स्थायी स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि प्रसव के बाद कई स्थितियां लंबे समय तक महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन में भावनात्मक और शारीरिक रूप से काफी पीड़ा पहुंचा सकती हैं। भी महिलाओं को काफी हद तक बहुत कम सराहा जाता है, कम पहचाना जाता है और कम रिपोर्ट किया जाता है।
अपने पूरे जीवन में, और मातृत्व से परे, महिलाओं को स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं से कई प्रकार की सेवाओं तक पहुंच की जरूरत होती है जो उनकी समस्याओं को सुनते हैं और उनकी जरूरतों को पूरा करते हैं ताकि वे न केवल प्रसव से बच सकें बल्कि अच्छे स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता का आनंद ले सकें।
अध्ययन में कहा गया है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद, नैदानिक अनुसंधान, अभ्यास और नीति में इन स्थितियों को बड़े पैमाने पर नजरंदाज किया गया है। पिछले 12 सालों की एक साहित्य समीक्षा के दौरान, अध्ययनकर्ताओं ने अपने अध्ययन में विश्लेषित की गई 32 प्राथमिकता वाली स्थितियों में से 40 फीसदी के लिए प्रभावी उपचार को लेकर किसी भी अच्छी गुणवत्ता वाले हालिया दिशा-निर्देश नहीं मिले।
कम या मध्यम आय वाले देश से एक भी उच्च-गुणवत्ता वाला दिशा-निर्देश नहीं मिला। आंकड़ों की कमी भी अहम हैं, शोध के माध्यम से पहचानी गई किसी भी स्थिति के लिए कोई राष्ट्रीय प्रतिनिधि या वैश्विक अध्ययन नहीं किया गया था।
अध्ययन में प्रसव के दौरान और उसके बाद महिलाओं और लड़कियों के लंबे समय तक स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने पर जोर दिया गया है।
अध्ययन में, मातृ मृत्यु को कम करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता जताई गई है, जिसमें न केवल उनके तत्काल जैव-चिकित्सा पर गौर किया जाए, बल्कि व्यापक सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थितियों की जटिल परस्पर क्रिया पर भी ध्यान दिया जाए। जो महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं, जिसमें नस्लीय और लैंगिक असमानताएं भी शामिल हैं।
अध्ययन में आर्थिक हिस्से को लेकर, पोषण, स्वच्छता, पर्यावरणीय जोखिम या हिंसा और संघर्ष के खतरे पर भी गौर किए जाने की बात कही गई है। अध्ययन में इस बात पर जोर दिया गया है कि ऐसे बुनियादी मुद्दों पर ध्यान न देने से यह समझाने में मदद नहीं मिलती है कि क्यों 185 में से 121 देश पिछले दो दशकों में मातृ मृत्यु को कम करने में विफल रहे हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते है कि मातृ स्वास्थ्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके बारे में हमें गर्भावस्था के उभार दिखाई देने पर चिंता करना शुरू कर देना चाहिए। ऐसे कई कारण हैं जो एक महिला के स्वस्थ गर्भावस्था की संभावना को प्रभावित करते हैं, जैसे कि उसके आस-पास का माहौल से लेकर राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था जिसमें वह रहती हैं, पौष्टिक भोजन तक पहुंच आदि ये सभी शामिल हैं। जीवन भर अच्छी गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच के साथ-साथ उसके स्वास्थ्य में सुधार के लिए इन चीजों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
बुनियादी रूप से, यह अध्ययन एक मजबूत, अनेक विषयों पर आधारित स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार को लेकर सुझाव देता है, जो न केवल उच्च गुणवत्ता, सम्मानजनक मातृत्व सेवाएं प्रदान करती है, बल्कि स्वास्थ्य को खराब होने से भी रोकती है और भारी असमानताओं के असर को भी कम करती है, जिसमें विशेष तरह का हस्तक्षेप शामिल हैं जो सबसे कमजोर महिलाओं और लड़कियों का समर्थन करते हैं।