
दृश्य एक: गुजरात की राजधानी गांधी नगर से लगभग 150 किलोमीटर दूर के गांव उकारडा (जिला बनासकांठा) में चहल पहल है। यहां पहली बार पंचायत चुनी गई है। उसे हाल ही में ग्राम पंचायत का दर्जा मिला है। इससे पहले यह गांव हसनपुरा ग्राम पंचायत का हिस्सा था। पुष्पा बेन यहां की सरपंच बनी हैं। उन्हें 25 जून 2025 को सरपंच घोषित किया गया। खास बात यह है कि उन्हें समरस (निर्विरोध) चुना गया है। पंचायत के सभी नौ सदस्य समरस चुने गए।
पुष्पा बेन गुजरात की उन सरपंचों में भी शामिल थीं, जिन्हें 4 जुलाई 2025 को गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने गांधी नगर में सम्मानित किया और उसी दिन उनकी पंचायत के खाते में 3 लाख रुपए भी आ गए। यह राशि गुजरात सरकार द्वारा समरस पंचायतों को दी जाती है। पुष्पा बेन कहती हैं, “उनके गांव में पीने के पानी की सबसे बड़ी समस्या है, उनकी कोशिश है कि इस पैसे का इस्तेमाल इस तरह किया जाए कि पानी की समस्या का हल हो सके।”
दृश्य दो: गांधीनगर से ही मात्र 35 की दूरी पर स्थित एक गांव वड़वासा (जिला साबरकांठा)में भी खुशी का माहौल है, लेकिन लोगों की आंखों में कुछ सवाल भी हैं। यहां से 25 वर्षीय सत्याशा जगदीशचंद्र लेउवा सरपंच चुनी गई हैं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी को 104 मतों से हराया है। गांव के बुजुर्गों व परिजनों के दबाव के बावजूद पेशे से वकील सत्याशा ने अपने चुनाव लड़ने के अधिकार का इस्तेमाल किया और गांव में समरस पंचायत की कोशिशों का विरोध किया।
एक सामाजिक कार्यकर्ता व छात्र नेता होने के कारण सत्याशा गांव की समस्याओं का समाधान जानती हैं। यही वजह है कि गांव के युवाओं ने उनका खूब साथ दिया। लेकिन कुछ सवाल अभी भी सत्याशा के लिए चुनौती बन गए हैं। वह कहती हैं, “मैं चुनाव तो जीत गई हूं, लेकिन मानसिक प्रताड़ना अब भी जारी है। बड़े-बुजुर्ग आज भी ताना मारते हैं कि जीत तो गई, पर गांव के काम के लिए ग्रांट कहां से लाएगी?” यह कहते-कहते उनके चेहरे पर कठोरता उतर आती है।
ये दो दृश्य गुजरात के जून 2025 में संपन्न पंचायत चुनावों से निकले हैं। ये दोनों मामले दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक चुनावी प्रणाली पर चल रहे टकराव की ओर भी संकेत करते हैं। पिछले 25 वर्षों से गुजरात सरकार समरस या पंचायत संस्थाओं को प्रोत्साहित कर रही है, जहां प्रतिनिधियों का चयन सर्वसम्मति से किया जाता है।
अब तक पंचायत चुनावों के छह दौर हो चुके हैं। इन वर्षों के दौरान जैसे-जैसे यह योजना आगे बढ़ रही है, गुजरात का ग्रामीण विकास और पंचायत विभाग समरस योजना के प्रसार को सुनिश्चित करने के लिए लगातार प्रयासरत है। सरकार का दावा है कि समरस योजना के चलते पंचायत चुनावों में होने वाले विवाद और हिंसा पर अंकुश लगा है। दूसरा, इससे चुनावी खर्च में कमी आई है। तीसरा, इससे गांव में आपसी सहयोग और शांति बढ़ती है। चौथा, इससे विकास कार्य तेजी से हो पाते हैं क्योंकि प्रतिनिधित्व निर्विरोध है और विवाद नहीं होता।
चालू वर्ष में गुजरात के राज्य चुनाव आयोग ने 4,564 ग्राम पंचायतों में चुनाव की घोषणा की थी। 25 जून 2025 को घोषित चुनाव परिणामों में 761 पंचायताें को पूर्ण समरस घोषित किया गया, यानी सरपंच और वार्ड सदस्यों को सहमति से चुना गया, और मतदान नहीं हुआ। इनमें से 56 महिला समरस पंचायतें हैं।
मतलब- ऐसी पंचायतें, जिन पंचायतों की सभी सदस्य महिलाएं हैं। शेष 3,813 पंचायतों में से 271 में आंशिक रूप से समरस प्रक्रिया अपनाई गई या उम्मीदवार नहीं आए, जबकि बाकी 3,541 पंचायतों में मतदान हुआ। 4 जुलाई 2025 को गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने सभी 761 समरस पंचायतों को 35 करोड़ रुपए की प्रोत्साहन राशि वितरित की।
गुजरात सरकार के आंकड़े बताते हैं कि इससे पहले तक छह चरणों में कुल 3,794 ग्राम पंचायतें समरस बन चुकी हैं और राज्य सरकार ने प्रोत्साहन अनुदान के रूप में 23.06 करोड़ रुपए की राशि स्वीकृत की है। यूं तो गुजरात में समरस ग्राम पंचायत की शुरुआत 14 जुलाई 1992 से बताई जाती है।
पहले इसे एक साल के लिए प्रयोगात्मक रूप से लागू किया गया। इस दौरान निर्विरोध निर्वाचित पंचायतों को 1,000 रुपए प्रोत्साहन अनुदान देने का प्रावधान था। उसके बाद राशि बढ़ाई गई, लेकिन साल 2001 में इस योजना को जोर-शोर से शुरू किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री) ने उस वक्त इस सोच को बढ़ावा देने के लिए नारा दिया था, “वाद नहीं, विवाद नहीं, संवाद के द्वारा निर्णय लें।”
तब से समरस ग्राम योजना को नियमित रूप से चल रही है। हालांकि देश में पंचायत स्तर पर निर्विरोध चुनाव की परंपरा कोई नई नहीं है, लेकिन सरकार द्वारा आर्थिक प्रोत्साहन के मामले बहुत कम थे। आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में पहले के कुछ सालों में इसका असर जितना ज्यादा था, उनके मुकाबले हाल के सालों में कम हुआ है। साल 2001-02 में जहां कुल पंचायतों में से लगभग 21 फीसदी पंचायतों ने समरस अपनाया था। इसके बाद 2006-07 में यह प्रतिशत लगभग 22 तक पहुंचा, परंतु उसके बाद कभी भी आंकड़ा 20 फीसदी से अधिक नहीं गया (देखें, समरस पंचायतों को मिलता है कितना लाभ)।
दरअसल समरस पंचायतों को लेकर जिस तरह गुजरात सरकार द्वारा प्रलोभन दिया जा रहा है, उस पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं। पेशे से वकील सत्याशा कहती हैं कि संविधान में चुनाव लड़ना और गुप्त मतदान (सीक्रेट वेलेट) के जरिए अपनी पसंद का प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया है, लेकिन चुनाव प्रक्रिया शुरू होते ही नामांकन से पहले ही गांव के कुछ दबंग -जिनमें राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी होते हैं- बैठक बुलाकर समरस प्रत्याशी चुनने का दबाव डालते हैं, जो लोकतांत्रिक नहीं है।
समरस चुने जाने पर मिलने वाला अतिरिक्त फंड किस काम आता है, यह जूनागढ़ जिले के वंथली तहसील के गांव गंथीला के सरपंच रह चुके मुकेश भाई चौहान बताते हैं कि वह अब तक दो बार समरस पंचायत के सरपंच रह चुके हैं। समरस बनने पर उनकी पंचायत को छह लाख रुपए मिले। इस राशि से उन्होंने सीमेंटेंड सड़क (सीसी) बनवाई। सड़क बने अभी पांच साल भी नहीं हुए हैं, लेकिन अब गांव में सीवर लाइन बिछाई जा रही है, इसलिए इस सीसी रोड को उखाड़ दिया गया है।
वहीं, साबरकांठा जिले के गांव बामना भी समरस पंचायत रह चुकी है, लेकिन इस बार यहां चुनाव हुए। गांव के उप सरपंच रह चुके पुरुषोत्तम भाई कहते हैं कि समरस पंचायत के लिए अतिरिक्त फंड कहां गया, यह पता ही नहीं चला। चूंकि निर्विरोध (समरस) पंचायत चुनी गई थी, इसलिए विपक्ष के रूप में किसी ने भी सवाल नहीं पूछे।
पुरुषोत्तम कहते हैं, “समरस पंचायतों में भ्रष्टाचार की बहुत संभावना रहती है, बल्कि पंचायत के कामकाज को लेकर लोगों में नीरसता भर जाती है। समरस पंचायत को लेकर होने वाली बैठकों में कभी भी पूरा गांव शामिल नहीं होता। 20 से 25 लोग ही शामिल होते हैं, जबकि 70 से 80 प्रतिशत लोग अपना मत देते हैं।”
वंथली तहसील के गांव लुबारसर के वर्तमान सरपंच रमेश भाई सिंगारखेर कहते हैं, “पंचायत को कितना पैसा मिलेगा, यह सरपंच की “काबिलियत” पर निर्भर करता है। यदि सरपंच चाहे तो हर साल समरस से अधिक पैसा अपनी पंचायत के लिए मंजूर करा कर और बेहतर विकास करा सकता है। हालांकि इसके लिए सरपंच को स्थानीय राजनीतिक दल के नेताओं, विधायकों व अधिकारियों से संबंध बेहतर बनाने होते हैं।”
समरस पंचायतों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित करने का सबसे बड़ा कारण यह बताया जाता है कि इससे पंचायतों में वाद-विवाद या झगड़े नहीं होते। आपसी रजामंदी से सर्वसम्मत निर्णय लेकर पंचायत का गठन कर दिया जाता है। लेकिन ऐसा सब जगह नहीं होता।
बनासकांठा जिले के गांव कुंभासण के पंच व गुजरात में पंचायत अधिनियम के बारे में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से काम कर रही संस्था मिशन ग्राम सभा से जुड़े हिदायत परमार कहते हैं कि नामांकन भरने से पहले ही गांवों में डर का माहौल बना दिया जाता है। दबंग लोग पैसा व ताकत दोनों का इस्तेमाल करते हैं। कई इलाकों में स्थानीय विधायक का भी पूरा दखल होता है। स्थानीय विधायक नहीं चाहता कि उसका कोई विरोधी समरस सरपंच बन जाए, इसलिए वह अपने समर्थक को ही सर्वसम्मति से निर्विरोध चुने जाने के लिए हर तरीका आजमाते हैं। यह पूरी तरह राजनीतिक होता है। हालांकि पार्टियां खुलकर सामने नहीं आती, लेकिन सत्ताधारी दल बाजी मार ले जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि पंचायतों में सर्वसम्मति से चुनाव होने की परंपरा नई है। यह आदिकाल से ही चली आ रही है। प्राचीन ग्राम सभाएं और पंचायतें अक्सर सहमति या सर्वसम्मति से ही प्रमुखों का चयन करती थीं, लेकिन आजादी के बाद, विशेषकर 1992 में पारित संविधान के 73वें संशोधन (पंचायती राज अधिनियम) के लागू होने से पहले पंचायत चुनावों की कोई सुव्यवस्थित और लोकतांत्रिक परंपरा विकसित नहीं हो पाई थी।
कई राज्यों में पंचायतों का गठन प्रशासनिक सुविधा के लिए होता था और चुनाव अक्सर नाम मात्र के होते थे या नियुक्ति आधारित व्यवस्था से संचालित होते थे। नियमित चुनाव, आरक्षण प्रणाली और ग्राम सभा को संवैधानिक महत्व देने की परिकल्पना 73वें संशोधन के बाद ही साकार हुई।
इसने ग्रामीण स्वशासन को एक मजबूत लोकतांत्रिक ढांचा मिला, लेकिन 2001 में जब गुजरात में समरस योजना शुरू हुई थी तो स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अदालत का दरवाजा खटखटाते हुए आरोप लगाया कि ऐसा करके संविधान की अनुच्छेद 243सी (2) और (5) और 243के का उल्लंघन किया जा रहा है।
अनुच्छेद 243सी (2) और (5) ग्राम पंचायतों की संरचना, सीटों के आरक्षण, और निर्वाचन क्षेत्रों के निर्धारण से संबंधित प्रावधान करता है। जबकि अनुच्छेद 243के पंचायत चुनावों के आयोजन और संचालन के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना और अधिकारों को निर्धारित करता है। याचिका में कहा गया कि सत्ता पक्ष द्वारा प्रशासनिक अधिकािरियों के माध्यम से पंचायतों पर दबाव डाला जाता है कि वे समरस को अपनाएं।
यह मामला कई साल तक चला और अंत में 14 फरवरी 2024 को उच्च न्यायालय ने यह जनहित याचिका खारिज करते हुए कहा कि चुनाव में भाग न लिए जाने के अधिकार को प्रभावित करने का आरोप साबित नहीं हुआ। साथ ही, इस मामले में कहीं भ्रष्टाचार या अनियमितता भी नहीं मिली।
गुजरात में इस प्रयोग को “सफल” मानते हुए कई राज्यों ने भी इस तरह की पहल को अंदाज देना शुरू कर दिया। खास बात यह है कि इसमें किसी एक विशेष राजनीतिक दल ने ही इसे नहीं बढ़ाया, लेकिन लगभग हर राजनीतिक दल की सरकारों ने अपने-अपने राज्य में अपने-अपने तरीके से इसे लागू करना शुरू किया।
अब तक देश के सात राज्य इस मॉडल को अपना चुके हैं। (देखें: कहां, कितनी पंचायतों को मिल रहा है लाभ)।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश भर की 30 लाख से अधिक प्रतिनिधियों वाली लगभग 2.56 लाख ग्राम पंचायतों में से लगभग 10 हजार पंचायतें निर्विरोध चुनी गई हैं और राज्य सरकारों द्वारा मिलने वाले आर्थिक अनुदान की पात्र बन चुकी हैं। हालांकि सभी पंचायतों को अनुदान नहीं मिल रहा है, क्योंकि घोषणा के बावजूद कई राज्य सरकारों ने फंड का वितरण शुरू ही नहीं किया। आर्थिक अनुदान के मामले में मध्य प्रदेश सरकार ने गुजरात से आगे निकल चुकी है।
साल 2022 में हुए पंचायत चुनावों में निर्विरोध या सर्वसम्मत से चुनी गई पंचायतों को 5 लाख से 15 लाख रुपए तक की अतिरिक्त ग्रांट देने की योजना है। सबसे अधिकतम 15 लाख रुपए उस पंचायत को मिलते हैं, जिसके सभी सदस्य (सरपंच सहित) महिलाएं हों। मध्य प्रदेश के सिहौर जिले की तहसील इछावर की गांव गाजीखेड़ी की सरपंच सुमित्रा बाई हैं। वह निर्विरोध चुनी गई हैं। उनके साथ 14 सदस्या भी महिलाएं हैं।
गांव के कद्दावर नेता कुंवर जी वर्मा कहते हैं कि उनकी ग्राम पंचायत को जब एसटी महिला के लिए आरक्षित घोषित किया गया तो उन्होने गांव के एकमात्र एसटी परिवार के सदस्यों से कहा कि वे परिवार के सबसे बड़े भाई की पत्नी को निर्विरोध खड़ा कर दें।
“मुझे पता था कि मुख्यमंत्री (तत्कालीन) शिवराज चौहान ने घोषणा की है कि निर्विरोध चुनाव होने पर पंचायत को अतिरिेक्त राशि मिलेगी और पूरी पंचायत यदि महिला हो तो पंचायत को 15 लाख रुपए मिलते हैं, इसलिए मैंने पूरे गांव से कहा कि कोई भी चुनाव नहीं लड़ेगा।” कुंवर जी वर्मा की पत्नी निर्मला वर्मा उपसरपंच हैं।
यह इस गांव की ही हकीकत नहीं है, बल्कि गुजरात हो या मध्य प्रदेश। दोनों ही राज्यों में निर्विरोध चुनाव उन्हीं पंचायतों में हुआ है, जो किसी न किसी वजह से आरक्षित श्रेणी में आ चुकी हैं। डाउन टू अर्थ ने गुजरात व मध्यप्रदेश के 15 गांवों का दौरा किया, जहां निर्विरोध चुनाव हुए हैं या इससे पहले हुए हैं। तीन पंचायत को छोड़कर शेष पंचायतों में आरक्षित होने पर ही समरस ग्राम पंचायत का चयन हुआ।
खास बात यह है कि इन सभी समरस पंचायतों में उपसरपंच सामान्य जाति से हैं, जो सरपंच के कामकाज पर नजर भी रखते हैं। स्थानीय लोगों ने यह भी बताया कि कुछ पंचायतों में जब सरपंच पद अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हो जाता है तो गांव का दबंग व्यक्ति एकमात्र एसटी व्यक्ति से नामांकन भरवा कर अपने पास काम पर रख लेता है और उपसरपंच खुद बन जाता है।
मध्य प्रदेश में एक सरपंच ने नाम न छापने पर बताया कि उनके गांव में अनुसूचित जनजाति का एक ही व्यक्ति था, जो काफी पहले गांव छोड़ चुका था, जब उनके यहां सरपंच पद एसटी के लिए आरक्षित हुआ तो वह खुद उस (एसटी) व्यक्ति को लेकर आए और उनकी पंचायत निर्विरोध पंचायत घोषित हुई। उपसरपंच वह खुद थे। उन्होंने सरपंच चुने गए व्यक्ति को बकायदा वेतन दिया, लेकिन एक साल बाद वह भाग गया।
उसके जाने के बाद उन्होंने उपसरपंच होने के कारण पंचायत का पूरा कामकाज देखा। एक पूर्व केंद्रीय पंचायत सचिव नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि शुद्ध आदिवासी गांवों को छोड़कर हमारे यहां समाज में वैसी समानता (होमो-जीनिटी) नहीं है कि सभी मिलकर एकजुट होकर निर्णय ले सकें।
समस्या यह भी है कि गैर-आदिवासी क्षेत्रों में समाज विविध समूहों में बंटा हुआ है। ऐसे में सबसे गरीब और कमजोर लोग अक्सर पीछे छूट जाते हैं। आरक्षण की मजबूरी को यदि छोड़ दें तो कोई उन्हें पंच-सरपंच नहीं बनाना चाहता।
जूनागढ़ क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता गोवा भाई राठौड़ भी इस बात को सहमति जताते हुए कहते हैं कि समरस योजना का मकसद दलितों को राजनीति में आने से रोकता है क्योंकि पंचायतें राजनीति की नर्सरी होती हैं, लेकिन चुनावी राजनीति से दूर रहने से दलित वर्ग में राजनीतिक सक्रियता विकसित नहीं हो पाती। स्थानीय लोग बताते हैं कि दलित समुदायों को मंदिर में जाने की इजाजत नहीं होती, जबकि निर्विरोध चुनाव को लेकर होने वाली बैठकें मंदिरों में ही होती हैं। ऐसे में, कैसे सर्वसम्मति से फैसले लिए जा सकते हैं, यह अपने आप में एक यक्ष प्रश्न है।
सौहार्द व विकास के लिए सरकारें अतिरिक्त अनुदान तो दे रही हैं, लेकिन इसके पीछे की मंशा पर सवाल इसलिए भी उठते रहे हैं, क्योंकि सरकारें पंचायतों को निर्विरोध का रास्ता अपनाने के लिए अपने प्रशासनिक अधिकािरियों व कर्मचारियों के माध्यम से दबाव डालती हैं।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी, शिमला की फेलो वर्षा भगत गांगुली की रिपोर्ट 'यूनानिमसली इलेक्टेड पंचायत: ए थ्रेट टू डेमोक्रेसी' में लिखती हैं, अध्ययन के दौरान उन्हें पता चला कि सरकारी अधिकारियों ने गांव-गांव जाकर लोगों से समरस योजना अपनाने के लिए दबाव डाला और इच्छुक प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से हतोत्साहित किया। इसका असर यह हुआ कि लोगों को लगने लगा कि चुनाव लड़ने पर उनके गांव का विकास बाधित हो सकता है।
दूसरा- जिन पंचायतों की आर्थिक हालत पहले से ही ठीक नहीं थी, उन्हें यह अतिरिक्त अनुदान राशि काफी कारगर लगी। मध्य प्रदेश के एक पंचायत समिति के सचिव ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि जब उनके राज्य में यह योजना शुरू हुई थी तो उनके जनपद अधिकारियों ने उनसे अपने-अपने गांव में निर्विरोध चुनाव कराने और लोगों को इसके फायदे समझाने को कहा गया।
गांव के प्रभुत्वशाली लोगों को तैयार किया गया। इसके बाद जिन गांवों में निर्विरोध चुनाव हुए, उन्हें सरकार की ओर से पुरस्कृत किया गया और तुरंत उन पंचायतों के खाते में पैसे ट्रांसफर हो गए। पंचायत सचिव कहते हैं, “अब योजना का अच्छे से प्रचार हो चुका है, इसलिए अब दबाव नहीं बनाना पड़ता। हालांकि पूरी निगरानी करनी पड़ती है कि गांव में निर्विरोध चुनाव संभव हैं या नहीं और प्रयास करते हैं कि निर्विरोध चुनाव हों।”
अपने अध्ययन में वर्षा गांगुली भी लिखती हैं कि शांति की जगह डर का वातावरण बना दिया गया है, जहां कमजोर वर्गों को चुनाव लड़ने से रोका जाता है। वहीं चुनावी खर्च की जगह सामूहिक भोज, उपहार और दबाव नए खर्च का रूप ले चुके हैं।
पिछले वर्ष अक्टूबर माह में पंजाब में हुए पंचायत चुनावों को लेकर काफी चर्चा हुई। राज्य की लगभग 13,225 ग्राम पंचायतों में से 3,798 सरपंच निर्विरोध चुने गए, जबकि 17 जिलों में 1,172 पंचायतें पूरी तरह से निर्विरोध घोषित हुईं। सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 3,000 निर्विरोध उम्मीदवारों की वैधता पर सवाल उठाते हुए नामांकन पत्रों के रद्द होने और कथित दबाव की जांच की जरूरत बताई।
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने भी चुनाव प्रक्रिया में “शक्ति के दुरुपयोग” पर रोक लगाई। विपक्ष ने आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सत्ता बनाए रखने की कोशिश की।
इससे पहले मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने “मुख्यमंत्री पिंड एकता सम्मान” योजना के तहत सभी निर्विरोध पंचायतों को Rs 5 लाख रुपए का विशेष अनुदान देने की घोषणा की थी, जो पहले Rs 2 लाख था। मई 2025 से इस अनुदान का वितरण शुरू भी हुआ, हालांकि जानकारों का कहना है कि यह राशि कुछ गिनी चुनी पंचायतों को ही मिली है।
नीलामी तक पहुंची बात गुजरात से शुरू हुआ यह सिलसिला दूसरे राज्यों में फैलने लगा तो एक नया चलन शुरू हुआ। आंध्र प्रदेश में तो 2013 में 21,144 ग्राम पंचायतों में से 2,623 निर्विरोध चुनी गईं। वहां सरपंच की बोली Rs 5 लाख से लेकर Rs 50 लाख तक लगी। कई गांवों में सरपंच की सीटें बोली लगाकर बेची जाती हैं। पैसा देने वाला उम्मीदवार निर्विरोध चुना जाता है और बाकी उम्मीदवारों को या तो डराया जाता है या पैसों से चुप कराया जाता है।
वर्षा गांगुली ने भी अपने अध्ययन में एक समाचार रिपोर्ट का जिक्र करते हुए लिखा है, “कम से कम 13 गावों में सरपंच पद को सबसे अधिक बोली लगाने वाले को बेचने की जांच चल रही है। बोलियां 5 से 7 लाख रुपए से लेकर कुछ मामलों में 32 लाख रुपए और 50 लाख रुपए तक लगाई गई। अक्सर बुजुर्ग ग्रामीणों को सरपंच पद की नीलामी के लिए मनाते हैं और जब सबसे बड़ी बोली लगाने वाला चुना जाता है तो कोई अन्य प्रत्याशी नामांकन दाखिल नहीं करता और वह सर्वसम्मति से निर्वाचित हो जाता है। नीलामी से जो धनराशि जुटाई जाती है, उसका उपयोग गांवों के विकास में किए जाने की बात कही जाती है।
लेकिन अधिकांश ग्रामीण निकायों के पास पहले से ही केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत पर्याप्त धनराशि होती है, इसलिए गांव के विकास को लेकर किया जाने वाला तर्क ठोस नहीं लगता। नीलामी से जुटाए गए पैसे को किसी बैंक खाते में भी नहीं रखा जा सकता।”
सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं वर्तमान में सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड सोशल स्टडीज (सीईएसएस) में रिसर्च कंसलटेंट एम. गोपीनाथ रेड्डी ने डाउन टू अर्थ से कहा, “संयुक्त आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, दोनों जगहों पर कुछ ग्राम पंचायत अध्यक्ष (सरपंच) पदों की नीलामी की खबरें आई हैं। लेकिन चुनाव आयुक्तों ने इन्हें रद्द कर दिया, क्योंकि यह राज्य के कानूनों के हिसाब से सही नहीं है। एक और बात यह भी सामने आई है कि जिन ग्राम पंचायतों में सर्वसम्मति से चुनाव हुए, उन्हें राज्य सरकार की पैसों की कमी की वजह से अब तक तय की गई प्रोत्साहन राशि नहीं मिल पाई है।” पंजाब, आंध्रप्रदेश में भी इस तरह की शिकायतें हैं।
खतरे में नर्सरी सवाल यह उठता है कि आखिर राज्य सरकारों की इन कोशिशों से असल नुकसान क्या होने वाला है। कोलंबिया विश्वविद्यालय से संबद्ध रही अशना अरोड़ा के मई 2018 में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट “इलेक्शन बाय कम्युनिटी कंसेंस: इफेक्ट ऑन पोलिटिकल सेलेक्शन एंड गर्वनेंस” में गुजरात की समरस ग्राम पंचायत योजना का विश्लेषण किया। यह स्पष्ट करती है कि गुजरात जैसी समरस मॉडल वाली योजनाओं में लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा, जवाबदेही और सामाजिक न्याय का उल्टा प्रभाव पड़ सकता है।
विश्व बैंक की हालिया समीक्षा (टू हंड्रेड एंड फीफ्टी थाउजेंड डेमोक्रेसीज, 2024) में कहा गया है कि भारत में पंचायत चुनावों को लोकतंत्र की नर्सरी माना जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में कुछ राज्यों ने ग्राम पंचायतों में निर्विरोध चुनाव को बढ़ावा देना शुरू किया है, इससे लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा कमजोर होगी और वंचित वर्गों की भागीदारी घट सकती है।
निर्विरोध चुनाव पंचायत स्तर पर पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिक सशक्तिकरण को सीमित कर सकते हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के अर्थशास्त्री प्रणब बर्धन अपने प्रसिद्ध पेपर “डिसेंट्रलीजेशन ऑफ गर्वनेंस एंड डेवलपमेंट में लिखते हैं, “स्थानीय स्तर के प्रतिनिधियों के पास सूचना का लाभ और क्षेत्रीय मुद्दों को समझने का अवसर अधिक होता है, जिससे वे मतदाताओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह रहते हैं। यही कारण है कि ग्राम पंचायतों में नियमित पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सफलता के लिए अनिवार्य हैं।
भारत के पूर्व पंचायत सचिव कहते हैं कि लोकतंत्र की एक अहम विशेषता है- असहमति। लोकतंत्र का अर्थ यह नहीं कि सभी लोग एक जैसा सोचें। बल्कि इसमें विरोध भी होता है, समर्थन भी और फिर भी सब मिलकर साथ रहते हैं। यही लोकतंत्र है, आप एक-दूसरे का विरोध करें, बहस करें, जीतें और फिर मिलकर काम करें। यही सिद्धांत संसदीय लोकतंत्र से लेकर पंचायत स्तर तक लागू होता है, लेकिन निरंतर निर्विरोध चुनाव इस सिद्धांत को नुकसान पहुंचा सकते हैं।