40 दिन लंबा हुआ जंगल की आग का मौसम, इंसानी गतिविधियों ने बदला चक्र

रिसर्च से पता चला है कि उष्णकटिबंधीय घासभूमियों में आग लगने का सीजन तीन महीने तक बढ़ चुका है। इसके लिए जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियां जिम्मेवार हैं
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सारांश
  • तस्मानिया विश्वविद्यालय के अध्ययन से पता चला है कि इंसानी गतिविधियों ने जंगल की आग के मौसम को औसतन 40 दिन बढ़ा दिया है।

  • अब आधे से ज्यादा जंगलों में आग उस समय लग रही है जब प्राकृतिक रूप से नहीं लगनी चाहिए थी।

  • यह बदलाव पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरनाक है और जैव विविधता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।

जंगलों में धधकती आग के लिए अब सिर्फ प्रकृति ही कसूरवार नहीं, इंसानी गतिविधियों ने तो इसके मौसम को ही बदल डाला है। मतलब कहीं न कहीं जंगलों में लगने वाली आग इंसानों की बनाई आपदा बन चुकी है।

इस बारे में तस्मानिया विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि इंसानी गतिविधियों ने दुनिया में जंगलों की आग के मौसम (वाइल्डफायर सीजन) का समय औसतन 40 दिन बढ़ा दिया है।

अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक अब दुनिया में आधे से ज्यादा जंगलों में आग उस समय लग रही है, जब प्राकृतिक तौर पर आग लगनी ही नहीं चाहिए थी। पहले जंगलों में आग ज्यादातर बिजली गिरने और सूखे के मौसम में लगती थी। लेकिन शोध से पता चला है कि इंसानी दखल जैसे खेतों में फसलों और उनके अवशेषों को जलाना, जमीन साफ करना, गलती से लगी आग आदि कारणों ने आग लगने के समय को बदल डाला है।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 700 से अधिक पारिस्थितिक क्षेत्रों में ईंधन की नमी और बिजली गिरने के आंकड़ों का विश्लेषण किया है।

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इस विश्लेषण के परिणाम दर्शाते हैं कि इंसानी गतिविधियों ने दुनिया भर के जंगलों में आग लगने के समय को बदल दिया है। चाहे वे उष्णकटिबंधीय घासभूमि हो, बोरियल जंगल या भूमध्यसागरीय इलाके सभी इस बदलाव से प्रभावित हैं।

प्राकृतिक चक्र को बदल रही इंसानी गतिविधियां

तस्मानिया विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर टॉड एलिस ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में कहा, "इंसान के आग पर असर डालने से पहले, जंगलों में आग ज्यादातर तब लगती थी जब सूखे मौसम में बिजली गिरती थी। लेकिन अब इंसानी हस्तक्षेप इस प्राकृतिक चक्र को बदल रहा है।"

वैज्ञानिकों के मुताबिक सबसे बड़ा बदलाव उष्णकटिबंधीय घासभूमि में देखने को मिला है, जहां इंसानी गतिविधियों ने आग के मौसम को करीब तीन महीने बढ़ा दिया है। अब यहां ज्यादातर आग इस मानवीय बदलाव वाले समय में लग रही है। यहां तक कि सुदूर बोरियल जंगल और टुंड्रा क्षेत्र भी अब आग के लंबे मौसम का सामना कर रहे हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बदलाव पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरनाक है। हजारों सालों में प्रजातियां आग के एक निश्चित समय के अनुकूल विकसित हुई थीं। लेकिन अब जब आग गलत मौसम में लगती है, तो यह प्रजनन चक्र और प्रजातियों की वापसी की क्षमता को नुकसान पहुंचाती है। इससे जैव विविधता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। साथ ही यह पारिस्थितिक तंत्र पर भी अप्रत्याशित दबाव डाल रहा है।

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अध्ययन से जुड़े अन्य शोधकर्ता डॉक्टर ग्रांट विलियमसन का कहना है, "हम सिर्फ अधिक और तीव्र आग ही नहीं देख रहे, बल्कि अब ऐसी आग भी लग रही है जिनके लिए पारिस्थितिक तंत्र तैयार नहीं हैं।" उनके मुताबिक यह आग अब साल के ऐसे समय में लग रही है, जब प्रकृति इसका सामना करने के लिए विकसित नहीं हुई है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन इस समस्या को और बढ़ा रहा है। बढ़ता तापमान और शुष्क परिस्थितियां इंसानी कारणों से लगी आग को आसानी से लम्बे समय तक फैलने का मौका देती हैं। इससे कुछ क्षेत्रों में साल भर आग का मौसम बन सकता है।

प्रोफेसर डेविड बोमन के मुताबिक, शोध दिखाता है कि इंसान को आग का जिम्मेदार संरक्षक बनना होगा। इस दिशा में मूल निवासियों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। इस अध्ययन के आंकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं।

इससे अधिकारियों को यह समझने में मदद मिलेगी कि इंसानी गतिविधियां कब और कहां आग लगने के समय को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं।

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हाल ही में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट में भी बढ़ती दावाग्नि के बारे में चेतावनी दी थी कि सदी के अंत तक तक बढ़ते तापमान के साथ ऐसी घटनाओं में 50 फीसदी की वृद्धि हो सकती है। देखा जाए तो दुनिया भर के जंगलों में लगने वाली आग की घटनाएं अब बढ़ते तापमान के साथ सामान्य होती जा रही हैं।

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