क्या आप जानते हैं कि जंगलों में लगने वाली आग से हर मिनट करीब 16 फुटबॉल मैदान के बराबर जंगल स्वाहा हो रहे हैं। आंकड़े दर्शाते हैं की सदी की शुरुआत से जंगल में लगने वाली आग की घटनाओं के मामले में 2021 सबसे बदतर वर्षों में से एक था, जिसमें वैश्विक स्तर पर करीब 93 लाख हेक्टेयर में फैले वन क्षेत्र आग की भेंट चढ़ गए थे।
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच द्वारा जारी इन आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल वन क्षेत्र को जितना नुकसान हुआ था उसके एक तिहाई से ज्यादा हिस्से के लिए जंगल में लगने वाली आग जिम्मेवार थी। रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि बदलती जलवायु के साथ जंगल में आग की घटनाएं कहीं ज्यादा बढ़ गई है जो पहले से कहीं ज्यादा क्षेत्र को अपनी चपेट में ले रही हैं।
नए आंकड़ों ने पुष्टि की है जंगल में लगती आग 20 साल पहले की तुलना में दोगुना ज्यादा वनक्षेत्र को नष्ट कर रही हैं। यह भी सामने आया है कि 2001 की तुलना में अब जंगल में लगने वाली आग हर साल पहले से 30 लाख हेक्टेयर ज्यादा वन क्षेत्र को जला रही है। पता चला है कि बढ़ती आग की घटनाओं से पिछले 20 वर्षों में रूस, कनाडा, अमेरिका, ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया के वनक्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है।
इसके आकार का अनुमान लगाए तो यह करीब बेल्जियम के आकार के बराबर बैठता है। देखा जाए तो पिछले 20 वर्षों में जितने वनक्षेत्रों को नुकसान हुआ है उसके करीब एक चौथाई हिस्से के लिए जंगल में लग रही आग ही जिम्मेवार है। आंकड़ों से पता चला है कि पिछले 20 वर्षों में वन क्षेत्र को हुआ लगभग 70 फीसदी नुकसान बोरियल क्षेत्रों में हुआ है। हालांकि जंगल में आग एक स्वाभाविक घटना है लेकिन जलवायु में आता बदलाव इसको पहले से कहीं ज्यादा विकराल बना रहा है। पता चला है कि आग की यह घटना 3 फीसदी की वार्षिक दर से बढ़ रही हैं।
वहीं यदि उष्णकटिबंधीय वर्षावनों की बात करें तो वहां आग प्राकृतिक रूप से नहीं लगती है। हाल के वर्षों में जिस तरह से इन जंगलों को काटा जा रहा है और जलवायु में आते बदलावों का असर इन पर पड़ रहा है उसकी वजह से इन क्षेत्रों में भी लगती आग एक बड़ी समस्या पैदा कर रही है। ग्लोबल फारेस्ट वॉच के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2001 के बाद से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में लगने वाली आग में 5 फीसदी प्रति वर्ष (36,000 हेक्टेयर) की दर से बढ़ रही है।
हाल ही में एफएओ द्वारा जारी रिपोर्ट “ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्सेज असेसमेंट रिमोट सेंसिंग सर्वे” से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर पिछले 10 वर्षों में वन विनाश की रफ्तार में 29 फीसदी की गिरावट आई है। रिपोर्ट के मुताबिक जहां 2000 से 2010 के बीच हर वर्ष औसतन 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटे जा रहे थे जो पिछले आठ वर्षों यानी 2010 से 2018 के बीच घटकर 0.78 करोड़ हेक्टेयर प्रतिवर्ष रह गए हैं।
देखा जाए तो यह एक अच्छी खबर है, लेकिन इस बीच उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में होता वन विनाश कहीं ज्यादा बढ़ गया है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों ने इन 18 वर्षों में लगभग यूरोप जितना वन क्षेत्र खो चुके हैं। अनुमान है कि इस दौरान वैश्विक वनों को जितना नुकसान पहुंचा है उसका 90 फीसदी उष्णकटिबंधीय वनों के रूप में ही हुआ है, जोकि करीब 15.7 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले थे।
जलवायु में आते बदलावों से गंभीर होती जा रही है समस्या
वहीं अनुमान है कि 2021 में 111 लाख हेक्टेयर में फैले उष्णकटिबंधीय वन नष्ट हो गए थे, जिसके कारण 250 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है जोकि भारत के वार्षिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन के बराबर है। देखा जाए तो यह वनक्षेत्र जलवायु, जैवविविधता और पर्यावरण के लिहाज से बहुत ज्यादा मायने रखते हैं। ऐसे में उनका खत्म होना विशेष रूप से चिंता का विषय है।
हाल ही में जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के हवाले से पता चला था कि भारत में भी जंगल बड़े पैमाने पर जलवायु परिवर्तन की भेंट चढ़ रहे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग द्वारा किए जारी इस अध्ययन से पता चला है पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन ने देश के जंगलों को गंभीर नुकसान पहुंचाया है।
देखा जाए तो जलवायु में आता बदलाव, बढ़ता तापमान, सूखा और बाढ़ जैसे खतरे पहले ही देश में विकराल रूप ले चुके हैं, वहीं अनुमान है कि आने वाले वर्षों में स्थिति बद से बदतर हो सकती है। वैज्ञानिकों के मानें तो जहां बढ़ती आबादी, कृषि और शहरीकरण बड़े पैमाने पर होते वन विनाश के लिए जिम्मेवार है। वहीं जलवायु में आता बदलाव और बढ़ता तापमान आग की बढ़ती घटनाओं के लिए जिम्मेवार है।
देखा जाए तो बढ़ता तापमान वातावरण को कहीं ज्यादा गर्म और शुष्क बना देता है जिससे आग लगने के लिए अनुकूल परिस्थितयां बनने लगती हैं। ऊपर से सूखा और लू इन घटनाओं को और भड़का देती हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट से पता चला है जलवायु परिवर्तन और भूमि-उपयोग में आते बदलावों के चलते जंगल में लगने वाली भीषण आग की घटनाएं कहीं ज्यादा बढ़ जाएंगी और वो पहले की तुलना में कहीं ज्यादा विकराल होंगी। रिपोर्ट के मुताबिक जहां 2030 में आग की यह घटनाएं 14 फीसदी बढ़ जाएंगी वहीं 2050 तक यह आंकड़ा बढ़कर 30 फीसदी पर पहुंच जाएगा।
इन बढ़ती घटनाओं का खामियाजा न केवल पर्यावरण और जैवविविधता को उठाना पड़ेगा साथ ही हम इंसान जो इस बढ़ते तापमान के लिए जिम्मेवार हैं उनपर भी पड़ेगा। जलते जंगलों से न केवल वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि हो जाएगी साथ ही इससे होते वायु प्रदूषण का असर इंसानी स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा जिससे उनमें सांस सम्बन्धी बीमारियों का खतरा बढ़ जाएगा। ऊपर से दूसरी अन्य बीमारियों को पनपने का मौका मिलेगा।
आग के बुझ जाने के बाद भी उसका असर खत्म नहीं होगा। जंगलों के बिना वो हिस्सा बाढ़ और अपरदन के प्रति संवेदनशील हो जाएगा, जिससे भूस्खलन जैसी घटनाओं में इजाफा हो सकता है। यहां तक की इसकी वजह से जल प्रदूषण का खतरा भी बढ़ जाएगा। ऐसे में यह जरुरी है कि इस समस्या की गंभीरता को समझा जाए और इससे निपटने के लिए ठोस कदम उठाए जाए।