
दुनिया में समुद्र अब ‘सुरक्षित’ नहीं। एक नए वैश्विक अध्ययन ने चेताया है कि समुद्रों की अम्लता ने वह सीमा पार कर ली है, जिसे वैज्ञानिकों ग्रह के लिए ‘सुरक्षित’ मानते हैं।
इस बारे में जारी स्टडी रिपोर्ट से पता चला है कि 2020 में ही समुद्री अम्लता ने प्राकृतिक सीमाओं की हदों को पार कर ली थी। इसका सीधा असर समुद्री जीवन पर पड़ रहा है, खासकर उन जीवों पर जो अपने शरीर के लिए कैल्शियम का खोल या ढांचा बनाते हैं, जैसे कोरल, सीपियां, झींगे और समुद्री घोंघे।
अध्ययन में यह भी कहा गया है अगर अब भी कार्रवाई न की गई, तो समुद्री पारिस्थितिक तंत्र और तटीय अर्थव्यवस्थाएं गहरे संकट में फंस जाएंगी।
क्यों बढ़ रही समुद्रों में अम्लता?
अध्ययन से पता चला है कि समुद्रों में बढ़ती इस अम्लता के लिए कहीं न कहीं हम इंसान ही जिम्मेवार हैं। जब हम इंसान कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों को जलाते हैं, तो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ₂) का स्तर बढ़ जाता है। इसका एक हिस्सा समुद्र में भी घुल रहा है, जो पानी के साथ प्रतिक्रिया कर कार्बोनिक एसिड बनाता है।
इससे पीएच स्तर घटने के साथ पानी में अम्लता बढ़ जाती है। इसकी वजह से समुद्री पानी में कार्बोनेट आयन कम हो जाते हैं, जो कि कोरल, सीप, शंख, मूंगे जैसे जीवों के लिए जरूरी हैं। कुछ मामलों में तो ये अम्लता उनकी खोलों (शेल्स) तक को नुकसान पहुंचा सकती है।
गौरतलब है कि अब तक वैज्ञानिक यही मानते थे कि समुद्री अम्लता ने पृथ्वी की ‘प्राकृतिक सीमा’ को पार नहीं किया है।
बता दें कि यह वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित यह सीमाएं पृथ्वी की जलवायु, जल और जैव विविधता जैसे प्रमुख तंत्रों की वह सीमा हैं जिसके पार जाने पर ग्रह का संतुलन बिगड़ सकता है। इससे पहले पिछले साल वैज्ञानिकों ने बताया था कि 9 में से छह प्राकृतिक सीमाएं पहले ही सुरक्षित हदों को पार हो चुकी हैं। लेकिन इस नए अध्ययन के साथ अब यह स्पष्ट हो गया है कि समुद्री अम्लता भी उस खतरनाक सीमा को पार कर लिया है।
यूके की प्लायमथ मरीन लैबोरेटरी, अमेरिका के नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) और ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए इस अध्ययन के मुताबिक समुद्री अम्लता ने अपनी ‘सुरक्षित सीमा’ करीब पांच साल पहले ही पार कर ली थी।
इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
अम्लता की सीमा के पार होने का मतलब है कि समुद्र के पानी में कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा औद्योगिक काल से पहले की तुलना में 20 फीसदी या उससे अधिक घट गई है। याद दिला दें कि कैल्शियम कार्बोनेट समुद्री जीवों जैसे मूंगे, सीप और झींगों के खोल और कंकाल के लिए बेहद जरूरी होता है। इसकी कमी से ये जीव कमजोर हो जाते हैं और उनके लिए जीवित रहना कठिन हो जाता है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने समुद्री अम्लता के एक महत्वपूर्ण संकेतक ‘एरागोनाइट सैचुरेशन स्टेट’ को देखा। यह मापता है कि समुद्र का पानी एरागोनाइट (कैल्शियम कार्बोनेट का एक रूप) बनने के लिए कितना अनुकूल है। उन्होंने समय के साथ समुद्र की अलग-अलग गहराईयों पर इस एरागोनाइट सैचुरेशन की स्थिति का अनुमान लगाया।
साथ ही, उन्होंने इस जानकारी की तुलना उन जीवों जैसे मूंगे और समुद्री घोंघों की सहनशीलता स्तर से की, यानी वह स्तर जिस से नीचे एरागोनाइट की कमी होने पर ये जीव तनाव में आ सकते हैं।
रिसर्च से पता चला है कि 2020 तक, दुनिया के अधिकांश समुद्री क्षेत्रों में यह स्थिति आ चुकी थी, और कई हिस्सों में हालात इससे भी बदतर हैं। अध्ययन के मुताबिक समुद्र में अधिक गहराई पर स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। समुद्र की सतह से 200 मीटर नीचे, दुनिया के 60 फीसदी समुद्री जल ने अम्लता की 'सुरक्षित सीमा' को पार कर लिया है।
किन इलाकों में स्थिति सबसे गंभीर?
अध्ययन के निष्कर्ष दर्शाते हैं कि दुनिया के सात समुद्री बेसिनों में से चार ने समुद्र की अम्लता की सुरक्षित सीमा पार कर ली है। सबसे ज्यादा प्रभाव पोलर क्षेत्रों में देखा गया।
दक्षिणी महासागर में करीब 87 फीसदी, उत्तर प्रशांत महासागर में 84 फीसदी और आर्कटिक महासागर की 78 फीसदी सतह के पानी ने इस सुरक्षित सीमा को पार कर लिया है। कुल मिलाकर, 2020 तक महासागर की सतह के 40 फीसदी पानी और 200 मीटर गहराई में 60 फीसदी पानी ने इस सुरक्षित सीमा को पार कर लिया था।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि बढ़ती अम्लता से समुद्री जीवों के प्राकृतिक आवास सिकुड़ रहे हैं। देखा जाए तो उन जगहों में जहां अभी भी पर्याप्त एरागोनाइट मौजूद है, वो काफी घट चुकी हैं। ऐसे में मूंगे, जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बेहद जरूरी हैं, उनके रहने योग्य क्षेत्रों में करीब 43 फीसदी की कमी आई है।
ध्रुवीय समुद्री घोंघों के प्राकृतिक आवासों में 61 फीसदी की कमी आई है। बता दें कि ये घोंघे व्हेल, मछलियों और समुद्री पक्षियों के लिए अहम खाद्य स्रोत हैं।
तटीय इलाकों में पाए जाने वाले सीप, शंख और क्लैम जैसे जीव, जो न सिर्फ भोजन का हिस्सा हैं बल्कि तूफानों से प्राकृतिक सुरक्षा भी प्रदान करते हैं, उनके रहने लायक क्षेत्रों में करीब 13 फीसदी की कमी दर्ज की गई है।
ऐसे में शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं से बढ़ते उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए ठोस कदम उठाने की सिफारिश की है। साथ ही जोर दिया है कि समुद्री अम्लता की निगरानी, उससे निपटने और अनुकूलन की रणनीतियों को राष्ट्रीय नीतियों में शामिल करने की आवश्यकता है।