

छह नवंबर को युद्ध और सशस्त्र संघर्ष में पर्यावरण के शोषण की रोकथाम का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है।
युद्ध के दौरान पानी, जंगल, मिट्टी और वन्य जीवों पर गंभीर और अक्सर लंबे समय तक विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।
यूएनईपी के अनुसार, पिछले 60 सालों में लगभग 40 फीसदी आंतरिक संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े रहे हैं।
स्वस्थ और टिकाऊ पारिस्थितिकी तंत्र संघर्षों को कम करने और लंबे समय तक शांति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
युद्ध के बाद प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर वैश्विक शोध कार्यक्रम ने 150 से अधिक केस स्टडी तैयार किए, जो शांति निर्माण में सहायक हैं।
विश्व समुदाय ने युद्ध और संघर्ष को सदैव मानव जीवन, समाज और अर्थव्यवस्था के नुकसान के रूप में देखा है, लेकिन एक ऐसा पक्ष है जिसे लंबे समय तक नजरअंदाज किया जाता रहा वह है पर्यावरण पर युद्ध का प्रभाव। इसी समझ को मजबूत करने और जागरूकता बढ़ाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने छह नवंबर को “युद्ध और सशस्त्र संघर्ष में पर्यावरण के शोषण की रोकथाम का अंतरराष्ट्रीय दिवस” के रूप में घोषित किया।
इस निर्णय का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि स्थायी शांति तभी संभव है जब प्राकृतिक संसाधन और पारिस्थितिक तंत्र सुरक्षित और संरक्षित हों।
युद्ध की अदृश्य पीड़ित है प्रकृति
इतिहास में युद्ध के हताहतों की चर्चा अक्सर सैनिकों, नागरिकों, तबाह शहरों, गरीबी और विस्थापन के रूप में होती है। लेकिन पर्यावरण, जो मुकम्मल रूप से हमारे अस्तित्व से जुड़ा हुआ है, कई बार इस विनाश का मौन पीड़ित बन जाता है। युद्ध के दौरान:
पानी के स्रोतों को प्रदूषित कर दिया जाता है
खेतों और फसलों को जला दिया जाता है
जंगलों को काटा या आग लगा दी जाती है
मिट्टी में रासायनिक प्रदूषण फैल जाता है
वन्य जीव और चरागाह नष्ट हो जाते हैं
ये कार्य केवल तात्कालिक सैन्य फायदों के लिए किए जाते हैं, परंतु इनके लंबे समय के प्रभाव समुदायों की आजीविका, खाद्य सुरक्षा और जलवायु संतुलन पर विनाशकारी होते हैं।
प्राकृतिक संसाधनों और संघर्षों के बीच संबंध
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के अनुसार, पिछले 60 सालों में लगभग 40 फीसदी आंतरिक संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और नियंत्रण से जुड़े रहे हैं। पानी, खनिज, जंगल, तेल और जमीन जैसे संसाधन कई बार युद्धों का कारण या उन्हें बढ़ाने वाले तत्व बन जाते हैं।
और सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि ऐसे संघर्ष भविष्य में दोबारा भड़कने की अधिक आसार रखते हैं। अर्थात यदि संसाधनों का न्यायसंगत और टिकाऊ प्रबंधन नहीं किया गया, तो संघर्ष की जड़ें मिटती नहीं हैं।
पर्यावरण संरक्षण और शांति स्थापना की संयुक्त रणनीति
संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि पर्यावरण संरक्षण, संघर्ष की रोकथाम, शांति स्थापना और पुनर्निर्माण, ये सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यदि किसी युद्धग्रस्त क्षेत्र में जंगल नष्ट हो जाएं, पानी की कमी हो जाए, फसलें उगाने लायक जमीन न बचे, तो समुदायों के बीच तनाव और असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है। इसीलिए, पर्यावरण सुरक्षा को शांति निर्माण की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा माना गया है।
27 मई 2016 को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा द्वारा पारित प्रस्ताव (यूएनईपी/ईए.2/आरईएस.15) में यह स्पष्ट किया गया कि:
स्वस्थ और सुरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र संघर्ष के जोखिम को कम करते हैं
प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन शांति को मजबूती देता है
2030 के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को लागू करना इस दिशा में महत्वपूर्ण है
संघर्ष के बाद पुनर्निर्माण और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन
युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भी पर्यावरण की स्थिति स्वतः सामान्य नहीं होती। इस समझ के आधार पर, पर्यावरण विधि संस्थान (ईएलआई), यूएनईपी, टोक्यो विश्वविद्यालय और मैकगिल विश्वविद्यालय ने एक वैश्विक शोध कार्यक्रम शुरू किया। चार सालों तक चले इस शोध में 55 देशों के 230 से अधिक विशेषज्ञों ने भाग लिया।
इस कार्यक्रम से 150 से अधिक अध्ययन प्रकाशित किए गए। यह बताया गया कि कैसे युद्ध के बाद प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और उचित उपयोग लंबे समय तक शांति स्थापित करता है। यह दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा शोध संकलन माना जाता है।
आगे की राह
युद्ध और संघर्ष का स्थायी समाधान सिर्फ हथियारों को शांत करना नहीं है। सच्ची शांति तब स्थापित होती है जब:
पानी, जंगल, जमीन और जैव विविधता सुरक्षित हों
समुदायों को जीविका के साधन उपलब्ध हों
लोग प्रकृति के साथ संतुलन में जीवन जी सकें
छह नवंबर का यह अंतर्राष्ट्रीय दिवस हमें यह याद दिलाता है कि प्रकृति केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार है। इसकी सुरक्षा, मानव सुरक्षा है।