मध्य एशिया में रेगिस्तान में बदलती जमीन, 31 फीसदी के लिए इंसान जिम्मेवार

वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि 1982 से 2020 के बीच मध्य एशिया की करीब 14.81 फीसदी शुष्क भूमि रेगिस्तान में बदल गई है
दुनिया में मरुस्थलीकरण की भेंट चढ़ती जमीन; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
दुनिया में मरुस्थलीकरण की भेंट चढ़ती जमीन; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के झिंजियांग इंस्टीट्यूट ऑफ इकोलॉजी एंड जियोग्राफी से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में किए अध्ययन से पता चला है कि पिछले कुछ दशकों में मध्य एशिया के शुष्क इलाकों में मरुस्थलीकरण बढ़ा है।

वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि 1982 से 2020 के बीच मध्य एशिया की करीब 14.81 फीसदी शुष्क भूमि रेगिस्तान में बदल गई है।

प्रोफेसर ताओ हुई के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के मुताबिक भले ही इसके पीछे की बड़ी वजह प्राकृतिक है। लेकिन इसमें बढ़ती इंसानी गतिविधियों ने भी योगदान दिया है। नतीजे दर्शाते हैं कि इन 38 वर्षों में मध्य एशिया के जिन शुष्क इलाकों में मरुस्थलीकरण हुआ है। उसके करीब 69 फीसदी हिस्से के लिए प्राकृतिक कारण जिम्मेवार थे, जबकि 31 फीसदी पर मानव गतिविधियों का असर देखा गया है।

इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ‘कैटेना’ में प्रकाशित हुए हैं।

गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने पिछले चार दशकों के सैटेलाइट से प्राप्त डेटा, मौसम संबंधी रिकॉर्ड और सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को की मदद से मध्य एशिया में मरुस्थलीकरण के स्थान और समय के अनुसार आ रहे बदलावों का विश्लेषण किया है।

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कुदरत और इंसान, कौन कितना है जिम्मेवार

अपने अध्ययन में उन्होंने एक विशेष सांख्यिकीय मॉडल की भी मदद ली है, जिससे यह पता चल सके कि प्राकृतिक और मानवीय कारक जमीन के रेगिस्तान में बदलने के लिए किस हद तक जिम्मेवार हैं।

स्टडी से पता चला है कि प्राकृतिक कारणों में सबसे प्रमुख वजह "स्नो वॉटर इक्विवेलेंट" यानी बर्फ के पिघलने से मिलने वाला पानी है। इसकी कमी कृषि योग्य जमीन, घास के मैदान, झाड़ीनुमा इलाकों और बंजर भूमि के क्षरण का मुख्य कारण बनी है।

बता दें कि सर्दियों में जमा बर्फ जब गर्मियों में पिघलती है, तो वह मिट्टी की नमी और फसलों के लिए जरूरी पानी देती है। अगर बर्फ कम गिरे या समय पर न पिघले, तो जमीन की गुणवत्ता बिगड़ने लगती है, जिससे मरुस्थलीकरण बढ़ता है।

इसके सतह ही अध्ययन में बढ़ते तापमान को जंगलों की स्थिति बिगड़ने की सबसे बड़ी वजह माना गया।

यह अध्ययन स्पष्ट करता है कि मध्य एशिया के शुष्क और संवेदनशील इलाकों में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया जटिल है और इसे रोकने के लिए क्षेत्र के आधार पर भूमि प्रबंधन और पारिस्थितिक संरक्षण से जुड़ी रणनीतियों की सख्त आवश्यकता है।

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भारत सहित दुनिया भर में भूमि की गुणवत्ता में आई है गिरावट

वहीं यदि भारत की बात करें तो 2015 से 2019 के बीच करीब 3.051 करोड़ हेक्टेयर भूमि, भू-क्षरण और गुणवत्ता में आती गिरावट से जूझ रही थी।इसका मतलब है कि 2019 में देश की करीब 9.45 फीसदी जमीन, गुणवत्ता में आती गिरावट का शिकार थी, वहीं 2015 में यह आंकड़ा महज 4.42 फीसदी दर्ज किया गया था।

यूएनसीसीडी के मुताबिक भारत में बंजर होती यह जमीन आकार में 4.3 करोड़ फुटबॉल मैदानों के बराबर है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो 2015 के बाद से मध्य एशिया के आकार जितनी जमीन जो कभी स्वस्थ और उत्पादक थी, वो अपनी गुणवत्ता खो चुकी है। इसकी वजह से दुनिया भर में भोजन-पानी की समस्या बढ़ गई है। यह समस्या सीधे तौर पर 130 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित कर रही है।

यह जानकारी भूमि संरक्षण के लिए प्रयास कर रहे संयुक्त राष्ट्र के सबसे बड़े संगठन यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा जारी आंकड़ों में सामने आई है।

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यूएनसीसीडी द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 से 2019 के बीच हर साल कम से कम 10 करोड़ हेक्टेयर स्वस्थ और उत्पादक जमीन खराब हो रही थी। कुल मिलाकर देखें तो अब तक 42 करोड़ हेक्टयर जमीन बर्बाद हो चुकी है।

यूएनसीसीडी के मुताबिक, "यदि भूमि की गुणवत्ता में आती गिरावट का यह रुझान जारी रहता है तो इससे निपटने के लिए 2030 तक 150 करोड़ हेक्टेयर भूमि को बहाल करने की आवश्यकता होगी।"

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