ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक 2025: 50 साल में खत्म हो गए 41 करोड़ हेक्टेयर में फैले नमी वाले क्षेत्र

50 वर्षों में 22 फीसदी आर्द्रभूमियां खत्म हो चुकी हैं, इससे आर्थिक रूप से 5.1 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है, लेकिन इसकी असली कीमत अब भी अनकही है। ऐसे में क्या हम समय रहते संभलेंगे?
आंकड़ों के मुताबिक आज दुनिया की करीब एक चौथाई (25 फीसदी आर्द्रभूमियां) पारिस्थितिकी रूप से खराब स्थिति में हैं; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
आंकड़ों के मुताबिक आज दुनिया की करीब एक चौथाई (25 फीसदी आर्द्रभूमियां) पारिस्थितिकी रूप से खराब स्थिति में हैं; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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धरती से एक-एक कर वेटलैंड्स गायब होते जा रहे हैं, यह वो नमी वाले क्षेत्र यानी आर्द्रभूमि हैं जो पर्यावरण को सहारा देने के साथ-साथ इंसानों और दूसरे जीवों को जल, भोजन, आवास और साफ हवा देती हैं।

‘ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक 2025’ के मुताबिक 1970 से अब तक पिछले 50 वर्षों में दुनिया ने 22 फीसदी वेटलैंड्स खो दिए हैं। इनमें पीटलैंड्, नदियां, झीलें, मैंग्रोव आदि शामिल हैं।

आशय है कि दुनिया से 41.2 करोड़ हेक्टेयर में फैली आर्द्रभूमि अब गायब हो चुकी हैं। इनमें 12.3 करोड़ हेक्टेयर में फैली झीलें शामिल हैं। चिंता की बात है कि यह गिरावट अब भी सालाना 0.52 फीसदी की दर से जारी है। देखा जाए तो बीते 50 वर्षों में जो आद्रभूमि हमने खोई हैं, उनका आर्थिक मूल्य 5.1 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है। हालांकि यह आंकड़ा उनके असली महत्व और सांस्कृतिक गहराई को नहीं माप सकता।

यह रिपोर्ट एक खौफनाक सच्चाई को उजागर करती है और वो यह है कि हम धीरे-धीरे अपने सबसे जरूरी पारिस्थितिक तंत्र को खोते जा रहे हैं। ये सिर्फ पानी के स्रोत नहीं, बल्कि जीवन की रीढ़ है, और यह रीढ़ अब कमजोर हो रही है। ऐसे में अब सवाल यह नहीं कि क्या होगा, बल्कि यह है कि हम कब तक चुप ऐसा होते देखते रहेंगे?

यह रिपोर्ट कन्वेंशन ऑन वेटलैंड्स के वैज्ञानिक और तकनीकी पैनल (एसटीआरपी) द्वारा तैयार की गई है, जो आर्द्रभूमियों की वर्तमान स्थिति, उनका पारिस्थितिक मूल्य, और उनके संरक्षण व बहाली की वैश्विक जरूरतों का अब तक का सबसे व्यापक मूल्यांकन है।

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वेटलैंड्स का बिगड़ता स्वास्थ्य, बड़े खतरे की ओर है इशारा

रिपोर्ट के मुताबिक हम न केवल करोड़ों हेक्टेयर में फैले वेटलैंड्स को खो चुके हैं, बल्कि जो बचे हैं उनकी स्थिति भी तेजी से बिगड़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक आज दुनिया की करीब एक चौथाई (25 फीसदी आर्द्रभूमि) पारिस्थितिकी रूप से खराब स्थिति में हैं। विडम्बना यह है कि यह स्थिति हर क्षेत्र में पहले से कहीं ज्यादा बदतर होती जा रही है।

रिपोर्ट में यह भी कहा है कि अगर नुकसान की यह रफ्तार जारी रही, तो 2050 तक हम इन आद्रभूमि से मिलने वाले 39 ट्रिलियन डॉलर के लाभ गंवा देंगे।

रिपोर्ट में इसके कारणों को उजागर करते हुए कहा है दुनिया में खेतों का होता विस्तार, बढ़ता प्रदूषण, अनियोजित विकास, जल-प्रवाह में आती बाधा, और जलवायु परिवर्तन जैसी कई इंसानी गतिविधियां मिलकर इन आद्रभूमियों की बहाली को और अधिक जटिल और जरूरी बना रही हैं।

प्रकृति की अनमोल धरोहर हैं यह आर्द्रभूमियां

ये आद्रभूमि न सिर्फ जैव विविधता का घर हैं, बल्कि जलवायु, जल संसाधनों और जीवन की स्थिरता के लिए भी बेहद अहम हैं। ये बाढ़ को नियंत्रित करती हैं, कार्बन स्टोर करने के साथ, पानी को शुद्ध करती हैं, और अरबों लोगों की खाद्य सुरक्षा में योगदान देती हैं।

जर्नल ग्लोबल एनवायरनमेंटल चेंज में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक वैश्विक स्तर पर उष्णकटिबंधीय आर्द्रभूमि हर साल आने वाले तूफानों से औसतन 4,620 जिंदगियां बचा रही हैं। इसके साथ ही ये हर साल तूफानों से होने वाले करीब 33.6 लाख करोड़ रुपए के संभावित नुकसान को भी रोक रही हैं। भारत की बात करें तो यह वेटलैंड्स हर साल तूफान से 414 जिंदगियों और 65,339.4 करोड़ रुपए को बचा रहे हैं।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि धरती के 140 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में अभी भी आद्रभूमियां बची हैं। क्षेत्रफल के लिहाज से देखें तो यह ग्रीनलैंड से भी ज्यादा है। हालांकि इनका महज 13 से 18 फीसदी हिस्सा ही अंतर्राष्ट्रीय महत्व की आद्रभूमियों के रूप में रामसर सूची में शामिल है।

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जर्नल नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती इंसानी जरूरतों ने पिछली तीन सदियों में 34 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली आद्रभूमियों को नष्ट कर दिया है। यह नुकसान कितना बड़ा है यह अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नष्ट हुए वेटलैंड्स का कुल क्षेत्रफल भारत के कुल क्षेत्रफल से भी ज्यादा है।

रिसर्च से पता चला है कि पिछले 320 वर्षों में यूरोप, अमेरिका और चीन में करीब आधे वेटलैंड्स खत्म हो गए हैं, जबकि भारत, यूके, आयरलैंड और जर्मनी के कुछ हिस्सों में 75 फीसदी से अधिक का नुकसान हुआ है।

जहां आयरलैंड ने अपनी आर्द्रभूमि का करीब 90 फीसदी हिस्सा खो दिया है। वहीं जर्मनी, लिथुआनिया और हंगरी के लिए नुकसान का यह आंकड़ा 80 फीसदी से ज्यादा दर्ज किया गया है। इसी तरह नीदरलैंड और इटली में भी 75 फीसदी से ज्यादा नुकसान हुआ है।

अनुमान है कि यह जंगलों की तुलना में यह आद्रभूमियां, तीन गुना तेजी से गायब हो रही हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि नुकसान और गिरावट का यह पैमाना अब और अनदेखा नहीं किया जा सकता।

आंकड़ों के मुताबिक यह आद्रभूमियां हर साल करीब 39 ट्रिलियन डॉलर के पारिस्थितिक लाभ प्रदान कर रही हैं, जो किसी भी अन्य पारिस्थितिक तंत्र से कहीं अधिक है। हालांकि इसके बावजूद इन आद्रभूमियों के संरक्षण पर किया जा रहा निवेश बेहद कम है। ऐसे में यदि हम इन आद्रभूमियों को संजोते हैं, तो इसका मतलब है कि हम अपने भविष्य को सुरक्षित कर रहे हैं।

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जलवायु संकट में सबसे बड़ी उम्मीद हैं यह आद्रभूमियां

रिपोर्ट का यह भी कहना है कि आद्रभूमियां जलवायु संकट और प्राकृतिक आपदाओं से हमारी सुरक्षा की अग्रिम पंक्ति हैं। हालांकि वो पीटलैंड्स, जो सबसे अधिक कार्बन स्टोर करते थे, वे अब खुद ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित करने लगे हैं। इनका तेजी से होता विनाश समस्या की मूल जड़ है।

देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर वन क्षेत्रों की तुलना में पीटलैंड दोगुना कार्बन जमा करते हैं। वहीं, समुद्री वेटलैंड्स जैसे मैंग्रोव, समुद्री घास और सॉल्ट मार्श तटीय क्षेत्रों को समुद्री तूफानों और बढ़ते जल स्तर से बचाते हैं और तेजी से कार्बन को सोखते हैं।

इसी तरह नदियां, झीलें और दलदली आद्रभूमियां जल के बहाव को नियंत्रित करती हैं। यह सूखे में पानी को संजोए रखती हैं और बाढ़ को रोकती हैं। यह आद्रभूमियां, जैव विविधता के दृष्टिकोण से भी काफी मायने रखती हैं।

यह आद्रभूमियां बाढ़ को नियंत्रित करती हैं, पानी को शुद्ध करती हैं, और कार्बन को संग्रहित कर जलवायु परिवर्तन से खिलाफ जारी जंग में अहम भूमिका निभाती हैं। इसके साथ ही ये मत्स्य उद्योग, कृषि और सांस्कृतिक मूल्यों का भी आधार हैं। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी देखें तो आद्रभूमियां न केवल जीवनदायिनी हैं, बल्कि हमारी जलवायु सुरक्षा की प्राकृतिक ढाल भी हैं।

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संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया की करीब 40 फीसदी प्रजातियां इन्हें वेटलैंड्स में रहती और प्रजनन करती हैं। हालांकि इसके बावजूद आद्रभूमियों में मिलें वाली 25 फीसदी से अधिक पौधों और जानवरों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।

ऐसे में वैज्ञानिकों ने चेताया है यदि इन तंत्रों में तुरंत निवेश न किया गया, तो वैश्विक जलवायु लक्ष्य महज एक सपना बनकर रह जाएंगे।

अब भी है समय

रिपोर्ट से पता चला है कि इन आद्रभूमियों पर सबसे ज्यादा संकट अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और कैरेबियाई देशों में दिख रहा है, लेकिन यूरोप और उत्तरी अमेरिका भी इससे अछूते नहीं हैं। हालांकि इस बीच उम्मीद की किरण भी दिखाई दी है, कुछ देशों जैसे जाम्बिया, कंबोडिया और चीन ने इनकी बहाली के लिए कई प्रोजेक्ट शुरू किए हैं।

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ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक 2025 रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि यह आर्द्रभूमियां महज जलाशय नहीं, जीवनाशय हैं। ऐसे में इन आद्रभूमियों को बचाने के लिए रिपोर्ट में नीतियों और योजनाओं को दिशा देने की बात कही गई है। इसके साथ ही निवेश को प्रोत्साहित करना और इन महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों के संरक्षण व बहाली के लिए मिलकर कार्रवाई को बढ़ावा देना भी बेहद जरूरी है।

देखा जाए तो अगर हमें जलवायु संकट, जैव विविधता में आ रही गिरावट और पानी की कमी जैसी चुनौतियों से पार पाना है, तो इन आद्रभूमियों की रक्षा अब विकल्प नहीं, बल्कि जरूरत बन चुकी है।

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