नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने अवैध खनन की अनदेखी करने के लिए अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाई है। मामला उत्तर प्रदेश के कछुआ वन्यजीव अभयारण्य में अवैध खनन से जुड़ा है।
इस मामले में न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल की बेंच ने 24 अक्टूबर, 2024 को कहा, "यह पर्यावरण कानूनों का घोर उल्लंघन है। इसमें विवेक का उपयोग नहीं किया गया।" उनके मुताबिक यह संबंधित जिला मजिस्ट्रेटों के साथ-साथ राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बॉर्ड द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग भी है।
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) और जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रस्तुत रिकॉर्ड में यह स्पष्ट नहीं है कि प्रतिबंधित क्षेत्रों में खनन की अनुमति या मंजूरी क्यों दी गई।
इसलिए, एनजीटी ने यूपीपीसीबी के सदस्य सचिव और राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण को यह स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि कैसे और किन परिस्थितियों में ये अनुमतियां जारी की गई, खासकर जब वे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करती हैं।
क्या है पूरा मामला
अदालत ने संत रविदास नगर (भदोही), मिर्जापुर और प्रयागराज के जिलाधिकारियों को भी इस मामले में जवाब देना को कहा है। ऐसे में यदि इसका कोई वैध औचित्य नहीं देते, तो यूपीपीसीबी और एसईआईएए के सदस्य सचिव के साथ-साथ तीनों जिलों के जिलाधिकारियों को 20 नवंबर, 2024 को ट्रिब्यूनल के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया गया है।
यह मामला प्रयागराज, मिर्जापुर और संत रविदास नगर (भदोही) में बड़े पैमाने पर अवैध रेत खनन से जुड़ा है। इस खनन के चलते कछुआ वन्यजीव अभयारण्य में इनके प्रजनन स्थल और जलीय जीवन को नुकसान पहुंचा है। खनन में भारी मशीनरी जैसे पोकलैंड, डंपर, ट्रैक्टर और मोटरबोट का उपयोग किया गया। इसकी वजह से न केवल ध्वनि प्रदूषण हुआ बल्कि इसने पारिस्थितिकी तंत्र को भी नुकसान पहुंचाया है।
एनजीटी का कहना है कि दायर रिपोर्ट से पता चलता है कि निजी व्यक्तियों को उन प्रतिबंधित क्षेत्रों में खनन पट्टे दिए गए, जहां खनन की अनुमति नहीं है। इसमें अभयारण्य के भीतर और आसपास के निषिद्ध क्षेत्र शामिल हैं। ऐसे में यह स्पष्ट है कि जिला मजिस्ट्रेट ने पर्यावरण कानूनों और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करते हुए यह अनुमतियां दी हैं।
ट्रिब्यूनल के मुताबिक राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसे पर्यावरण नियामकों ने भी इस बात की जांच नहीं की, कि प्रतिबंधित क्षेत्र में जहां खनन के लिए पर्यावरणीय मंजूरी या सहमति दी जानी है वहां इसकी अनुमति है या नहीं। इसके बजाय उन्होंने बिना जांचे-परखे ही मंजूरी दे दी।