भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की एक बड़ी आबादी भोजन पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है। करीब 47 प्रतिशत ग्रामीण परिवार स्वच्छ ईंधन का विकल्प मानी जाने वाली एलपीजी (द्रवित पेट्रोलियम गैस) के बजाय जलावन लकड़ी, उपले, पेड़ों की छाल और फसल अवशेषों को इस्तेमाल कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़, ओडिशा और पश्चिम बंगाल ऐसे तीन राज्य हैं जहां के 75 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार ईंधन के रूप में लकड़ी, उपले, पेड़ों की छाल व फसल अवशेषों का इस्तेमाल कर रहे हैं। देशभर के कम से कम 12 राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों के 50 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार इस प्रदूषणकारी ईंधन का उपयोग कर रहे हैं। चंडीगढ़, दिल्ली, तेलंगाना, पुदुचेरी गोवा और सिक्किम के ग्रामीण परिवारों की स्थिति इस मामले में सबसे बेहतर है। यहां के 10 प्रतिशत से कम ग्रामीण परिवार ही प्रदूषणकारी और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ईंधन का इस्तेमाल कर रहे हैं।
शहरी क्षेत्रों के परिवारों की स्थिति इस मामले में काफी बेहतर है। देशभर में 89 प्रतिशत शहरी परिवार एलपीजी का इस्तेमाल का रहे हैं। हालांकि केरल ऐसा राज्य है जहां शहरी क्षेत्रों में रहने वाला हर पांच में से एक परिवार प्रदूषणकारी ईंधन का इस्तेमाल करता है। ओडिशा, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के शहरी क्षेत्रों में 17 प्रतिशत या अधिक शहरी परिवार स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों को मिलाकर राष्ट्रीय स्तर पर इसे देखें तो करीब 62 प्रतिशत लोग एलपीजी का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि 33.8 प्रतिशत लोग जलावन लकड़ी, छाल व फसल अवशेष पर निर्भर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर देखा जा रहा है कि कई परिवारों के पास एलपीजी कलेक्शन तो है लेकिन वे गैस की ऊंची कीमतों के कारण भरवा नहीं पा रहे हैं। बहुत से परिवारों के लिए 1,000 रुपए प्रति सिलेंडर बहुत महंगा है, इसलिए वे ईंधन के परंपरागत स्रोत की तरफ फिर से लौट गए हैं।