भारत से खत्म हो रही है जन्मजात गरीबी?
कितने भारतीय गरीब हैं? इस सवाल का जवाब अभी भी स्पष्ट नहीं है, बावजूद इसके कि 12 साल बाद राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय का 2022-2023 में किया गया घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण फरवरी में जारी हो चुका है।
इसी घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आधार पर राष्ट्रीय आय गरीबी का स्तर मापा जाता है, लेकिन सरकार ने अपने इस सर्वेक्षण के आधार पर अब तक गरीबी का कोई अनुमान जारी नहीं किया है।
हालांकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल करके गरीबी का अनुमान लगाया है, जिसके मुताबिक देश में गरीबी का स्तर कम हुआ है। मोटे तौर पर ये अनुमान बताते हैं कि साल 2023 में 10 प्रतिशत से भी कम भारतीय गरीब थे, जबकि 2011-2012 में इनका प्रतिशत 21 था।
यह अनुमान नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) ने अपने इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे में जताया है। यह सर्वे आर्थिक परिवर्तनों और सरकारी नीतियों के कारण परिवारों की खुशहाली पर पड़ रहे असर की निगरानी करता है।
इस सर्वेक्षण में कहा गया है कि लगभग 8.5 प्रतिशत भारतीय गरीब हैं। एनसीएईआर का अनुमान है कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में तेजी से कमी आई है।
इस विश्लेषण का नेतृत्व करने वाली सोनालदे देसाई ने एक दैनिक समाचार पत्र में एक अपने एक लेख में लिखा है कि हमें गरीब व्यक्तियों की सटीक संख्या का अनुमान लगाने की निरर्थक बहस से आगे बढ़ना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि गरीबी कम हो रही है।
हालांकि, एनसीएईआर का अनुमान और सोनालदे का आकलन भारत की गरीबी के उन पहलुओं के बारे में बताता है, जो गरीबी कम करने में की गई प्रगति को खत्म करने की क्षमता रखते हैं।
भारत में गरीबी का भूगोल वही बना हुआ है, जो आधिकारिक तौर पर सीमांकित सबसे गरीब 200 जिले हैं, जिन्हें वर्तमान में आकांक्षी जिले कहा जाता है। साथ ही, भारत में गरीबों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि भी वही बनी हुई है। इनमें या तो वे लोग सामाजिक रूप से हाशिए पर खड़े समूहों से संबंधित हैं या जंगलों जैसे आर्थिक रूप से वंचित भूगोल में रहते हैं।
यह माना जाता है कि भारत में गरीब परिवारों में ही ज्यादातर गरीब पैदा होते हैं, जो संयोग से सामाजिक रूप से हाशिए पर खड़े समूहों में रहते हैं और जो गरीबी के ऐसे जाल में फंसे रहते हैं, जहां से निकलता बहुत मुश्किल है।
इसे जन्मजात गरीब कहा जाता है। यानी, जिसने दुर्भाग्यवश किसी गरीब परिवार में जन्म लिया है और इसी से तय होता है कि देश में कोई गरीब होगा या नहीं।
सोनाल्डे ने अपने विश्लेषण में कहा है कि अब समीकरण बदल गए हैं। वह देश में गरीबी के समीकरण में हुए बदलाव के बारे में एक आधिकारिक निष्कर्ष देते हुए लिखती हैं कि जहां 20वीं सदी में जन्मजात गरीबी बड़े पैमाने पर थी, वहीं 21वीं सदी में जीवन में हुई किसी आपदा या दुर्घटना की वजह से गरीबी आ रही है।
एनसीएईआर के 8.5 प्रतिशत के आकलन के अनुसार गरीब आबादी में से जन्मजात गरीबी 3.2 प्रतिशत है और जीवन में किसी आपदा की वजह से होने वाली गरीबी का प्रतिशत 5.3 है।एनसीएईआर के आकलन में आबादी के एक समूह को "कमजोर" कहा गया है। ऐसे में जहां भारत की 8.5 प्रतिशत आबादी गरीब है, वहीं कमजोर आबादी 37.4 प्रतिशत है।
यह कमजोर आबादी हालांकि गरीब नहीं है, लेकिन किसी भी समय गरीबी रेखा से नीचे जा सकती है और इसके कारण हैं- "जीवन में होने वाली दुर्घटना" जिसमें शारीरिक दुर्घटनाएं, प्राकृतिक आपदाएं, और स्वास्थ्य संबंधी आपात स्थितियां और विवाह या त्यौहार जैसी प्रमुख आर्थिक घटनाएं शामिल हैं।
यह सर्वविदित है कि इलाज पर होने वाला खर्च हो या मौसम की अनियमितता व प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान हो, इनका असर परिवारों के गरीबी के स्तर पर पड़ता है। "कमजोर" आबादी का उच्च स्तर यह बताता है कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर भारी खर्च के बावजूद गरीबी की पुरानी स्थिति लगभग बनी हुई है।
कमजोर आबादी में वे लोग शामिल हो सकते हैं जो इन गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के कारण गरीबी से बच गए हैं, लेकिन उनके पास अभी भी गरीबी रेखा से ऊपर रहने की क्षमता नहीं है। इस आकलन से स्पष्ट है कि गरीबी में कमी "कमजोर आबादी में वृद्धि के साथ" सीधे-सीधे जुड़ी हुई है। और भविष्य में यह जनसंख्या समूह बढ़ेगा।
इसी तरह जीवन में होने वाली दुर्घटना में जलवायु परिवर्तन की वजह से अनियमित जलवायु घटनाएं सबसे प्रमुख हैं जो खेती पर निर्भर आबादी को प्रभावित करती हैं और यही आबादी गरीबी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी हैं।
यहीं पर सार्वजनिक विकास कार्यक्रमों को सुरक्षा जाल बनाने की दिशा में काम करना चाहिए, ताकि लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया जा सके और कमजोर आबादी को इस खतरनाक स्थिति से बाहर निकाला जा सके। यही वह तरीका है, जिससे भारत स्थायी रूप से गरीबी उन्मूलन हासिल कर सकता है।