क्या भारत ने आय की गरीबी को मापना बंद कर दिया है?

जब भारत ने 10 साल से अधिक समय से गरीबी का आकलन ही नहीं किया है, तब वित्त मंत्री अपने बजट भाषण में किस गरीबी को दूर करने का श्रेय ले रही हैं
भारत ने 2011-2012 के बाद से गरीबी का एक भी सर्वेक्षण नहीं किया है। फोटो: विकास चौधरी
भारत ने 2011-2012 के बाद से गरीबी का एक भी सर्वेक्षण नहीं किया है। फोटो: विकास चौधरी
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पहली बार किसी भारतीय वित्त मंत्री के बजट भाषण में “बहुआयामी गरीबी” शब्द का जिक्र किया। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में दावा किया कि पिछले 10 वर्षों में सरकार ने ‘मदद’ देकर 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला है।

बहुआयामी गरीबी, गरीबी और अभाव को देखने-समझने का एक बेहतर जरिया है। आय की गरीबी से आमतौर पर गरीबी का निर्धारण या गरीब की पहचान होती है लेकिन गरीबी तो बहुआयामी होती है। इसलिए बहुआयामी गरीबी सूचकांक के तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं। इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा व जीवन स्तर शामिल है।

नीति आयोग ने राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक तैयार किया है जिससे तीनों आयामों को परखा जा सकता है। प्रत्येक आयाम को मापने के लिए आयोग के पास संकेतक हैं जो सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) से संबद्ध हैं । स्वास्थ्य के संकेतक हैं- पोषण, बाल व किशोर मृत्युदर और मातृ स्वास्थ्य। शिक्षा के संकेतकों में स्कूल जाने के वर्षों और उपस्थिति को शामिल किया गया है। जीवन स्तर के संकेतकों में स्वच्छ ईंधन, स्वच्छता, पेयजल, बिजली, आवास, संपत्तियां व बैंक खाते शामिल हैं।

इनके आधार पर नीति आयोग ने देश में बहुआयामी गरीबी का मापा है और कहा है कि पिछले 10 वर्षों में 25 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। इसे वित्त मंत्री ने ‘गरीबी’ में कमी का दावा करने के लिए उद्धृत किया है। नीति आयोग की गणना के अनुसार, 2005-06 में बहुआयामी गरीबी 55.3 प्रतिशत थी जो 2013-2014 में 29.2 प्रतिशत हो गई थी। अगले 10 वर्षों यानी 2022-2023 में यह 11.3 प्रतिशत तक घट गई।

लेकिन, इस सूचकांक में आय की गरीबी यानी वह पहलू शामिल नहीं है जो भारत में गरीबी मापने में उपयोग होता आया है। ‘गरीब’ केंद्रित हमारी सभी विकास परियोजनाएं गरीबी रेखा पर आधारित हैं जो गरीबी सर्वेक्षण से तय होती है (भारत आय के स्तर का निर्धारण करने के लिए व्यय के आंकड़ों का उपयोग करता है)।

भारत ने 2011-2012 के बाद से गरीबी का एक भी सर्वेक्षण नहीं किया है। 2014 के बाद से उपभोग व्यय का सर्वेक्षण भी नहीं हुआ है। इसलिए, आय की गरीबी का कोई आंकड़ा ही नहीं है जो गरीबी रेखा को मापने का आधार है और जो बहुआयामी गरीबी सूचकांक में शामिल है।

भारत को 2022 तक गरीबी का उन्मूलन करना था यानी 2030 के एसडीजी से 8 साल  पहले इसे प्राप्त करना था। प्रधानमंत्री मोदी ने 25 सितंबर 2017 को भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की एक बैठक में यह वादा किया था। उन्होंने जिस “नए भारत” का वादा किया था, यह उसके केंद्र में था।

वर्तमान सरकार जिस बहुआयामी गरीबी में अप्रत्याशित गिरावट का दावा करती है, उसके पास गरीबी की वास्तविक स्थिति पर पर्दा डालने के लिए भी बहुत कुछ है। छिपाने की यह मंशा तब और स्पष्ट हो जाती है जब “बहुआयामी गरीबी” का आंकड़ा “गरीबी” का पर्याय बन जाता है और ज्यादातर सरकारी दस्तावेजों में गरीबी में कमी दर्शाने के लिए इसी आंकड़े का हवाला दिया जाता है।

ऐसा लगता है कि आगे भी गरीबी उन्मूलन को नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक के आधार पर मापा जाएगा जिसमें आय की गरीबी शामिल नहीं है। पहले ही दावे किए जा रहे हैं कि विभिन्न सरकारी कल्याण कार्यक्रमों ने लोगों की ‘आय’ में वृद्धि की है। उदाहरण के लिए, जन वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले मुफ्त अनाज को पारिवारिक आय की वृद्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है।

30 जनवरी 2024 को नीति आयोग ने अपनी वेबसाइट पर “भारतीय मॉडल ऑफ इन्क्लूसिव ग्रोथ: सबका साथ सबका विकास” नामक वर्किंग पेपर प्रकाशित किया। नीति आयोग के सदस्य और पेपर के लेखक अरविंद विरमानी इसमें लिखते हैं कि इस पेपर ने आधिकारिक रूप से विकास, समृद्धि और गरीबी के नए मापक को स्थापित किया है जिसे ‘भारतीय’ कहा गया है।

इसमें लिखा है कि सामाजिक कल्याण का भारतीय दृष्टिकोण बहुमुखी है। इसमें प्रत्यक्ष हस्तांतरण और सेवाओं के रूप में अप्रत्यक्ष सब्सिडी, नगद हस्तांतरण (जैसे किसानों को) और मुफ्त या बाजार भाव से कम पर वस्तुओं व सेवाओं (जैसे छात्रवृत्ति) का प्रावधान और मूलभूत आवश्यकताओं की विस्तृत श्रृंखला शामिल है।

पेपर ने बहुआयामी गरीबी सूचकांक को गरीबी मापने के ‘भारतीय’ तरीके के रूप में भी मुहर लगाई है। इसमें कहा गया है, “विकास अर्थशास्त्रियों ने इन भारतीय कल्याण और विकास प्रथाओं में से कुछ को औपचारिक स्वीकृति प्रदान की है जिन्हें बहुआयामी गरीबी संकेतक कहा जाता है।”

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