क्या भारत में सचमुच घट गई गरीबी या बेकार का मच रहा है हल्ला?
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने 12 साल के अंतराल के बाद अगस्त 2022 से लेकर जुलाई 2023 के दौरान पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) किया। 4 फरवरी 2024 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने इस सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए।
नए सर्वेक्षण के निष्कर्ष के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति उपयोग व्यय (एमपीसीई) 3,773 रुपए (वर्तमान मूल्य) और शहरी क्षेत्रों में यह 6,459 रुपए है।
इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण क्षेत्र का एक भारतीय अपने दैनिक खर्च जैसे भोजन, दवा, शिक्षा, बच्चों की देखभाल, यातायात, कपड़ों और अन्य जरूरतों पर प्रतिदिन 126 रुपए और शहरी व्यक्ति प्रतिदिन 215 रुपए खर्च करता है।
सबसे निचले पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत ग्रामीण भारतीय प्रतिदिन 45 रुपए खर्च करते हैं जबकि शहरी भारतीय का यह आंकड़ा 67 रुपए है। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में ऊपरी पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत परिवार निचले पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की तुलना में करीब आठ गुणा अधिक खर्च करते हैं।
पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण देश में आय की गरीबी निर्धारित करने का आधार है। हालांकि, वर्तमान में इस सर्वेक्षण के आधार पर गरीबी के आकलन का कोई आधिकारिक अनुमान मौजूद नहीं है। पूर्व में योजना आयोग सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल गरीबी का अनुमान लगाने में करता था, लेकिन उसका स्थान लेने वाले नीति आयोग ने इस काम को आगे नहीं बढ़ाया। और न ही राष्ट्रीय गरीबी रेखा का निर्धारण किया।
इसे देखते हुए ताजा सर्वेक्षण गरीबी निर्धारण के लिए एक चुनौती पेश करता है, क्योंकि यह 1972 से 2012 तक हुए पहले के नौ सर्वेक्षणों से अलग है। अलग इसलिए भी क्योंकि सर्वेक्षण में शामिल वस्तुएं, प्रश्नों का तरीका, आंकड़ों की संग्रहित करने की अवधि और उसका तरीका बदल गया है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बीवीआर सुब्रमण्यम अब भी पुराने “व्यक्तिगत अनुमान” ही जारी कर रहे हैं, जो बताते हैं कि नए उपभोग व्यय के आंकड़ों के आधार पर गरीबी का स्तर 10 प्रतिशत से नीचे है।
सुब्रमण्यम का यह अनुमान 2011-12 में प्रकाशित 32 रुपए प्रतिदिन की गरीबी रेखा के मद्देनजर है। इसमें अगर मुद्रास्फीति समायोजित कर दी जाए तो वह राशि 60 रुपए होगी। अगर इस संशोधित गरीबी रेखा को ताजा उपभोग व्यय के आंकड़ों पर लागू किया जाए तो सुब्रमण्यम के मुताबिक, गरीबी रेखा 10 प्रतिशत से नीचे दिखेगी।
हाल के महीनों में आय की गरीबी के विभिन्न अनुमान जारी हुए हैं। ये मुख्यत: व्यक्तिगत अर्थशास्त्रियों के हैं। ये अनुमान बताते हैं कि चरम गरीबी लगभग शून्य के स्तर पर है। इस अनुमान का एक अहम पहलू है मुफ्त की सेवाएं और सब्सिडी, जो सरकार ने प्रदान की हैं। इन सेवाओं और सब्सिडी के मूल्य को आय की गणना में शामिल किया गया है।
सुब्रमण्यम अपने आकलन में समझाते हैं कि अगर मुफ्त के अनाज और परिवार को मिलने वाली सब्सिडी का मूल्य जोड़ा जाए तो गरीबी का स्तर पांच प्रतिशत से नीचे होगा। यह संकेत है कि लोगों के जीवन में अभाव तेजी से कम हुए हैं।
एनएसएसओ के सर्वेक्षण में मुख्यत: दो प्रकार के एमपीसीई आंकड़े शामिल रहते हैं। पहले में एक घर में उत्पादित उपभोग योग्य वस्तुओं के मूल्य की गणना अथवा उत्पादित स्टॉक, उपहार, कर्ज, मुफ्त का संग्रहण और सेवा के बदले वस्तुओं के आदान-प्रदान का मूल्य शामिल रहता है।
एमपीसीई के रूप में यह आंकड़े व्यापक रूप से स्वीकार्य हैं। दूसरे आंकड़े में सरकारी योजनाओं जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत प्राप्त मुफ्त राशन और गैर खाद्य पदार्थ जैसे लैपटॉप व मोबाइल फोन का मूल्य शामिल रहता है। बहुत से अर्थशास्त्री मानते हैं कि दूसरे आंकड़े परिवार की आय में ठीक-ठाक बढ़ोतरी कर देते हैं, जिससे अंतत: गरीबी घट जाती है।
उपर्युक्त स्रोतों से प्राप्त लाभ और उपभोग व्यय पर उनके प्रभाव की जांच से पता चलता है कि ऐसी सभी मुफ्त या सब्सिडी वाली वस्तुओं के कारण नवीनतम सर्वेक्षण में ग्रामीण क्षेत्रों का एमपीसीई 3,860 रुपए और शहरी क्षेत्रों का 6,521 रुपए (वर्तमान कीमतों पर) पहुंच गया है।
यह इंगित करता है कि ग्रामीण व्यक्तियों को केवल 87 रुपए प्रति माह और शहरी व्यक्तियों को 62 रुपए फ्रीबीज (मुफ्त या सब्सिडी में दी जाने वाली चीजें) के रूप में मिलते हैं।
यह बढ़ोतरी ग्रामीण उपभोग व्यय का केवल 2.25 प्रतिशत और शहरी उपभोग व्यय का 1.33 प्रतिशत ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि फ्रीबीज के नाम पर मचने वाले हो हल्ले की कोई ठोस वजह है या इसे बेमतलब में ही तूल दिया जा रहा है?