वायनाड भूस्खलन होगा, इसका पहले से था पूर्वानुमान

राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र के दस्तावेजों में बार-बार चेतावनी के बावजूद इस क्षेत्र में पिछले 60 से अधिक वर्षों से उत्खनन, खनन जैसी मानवीय गतिविधियां जारी रहीं और यही घटना का प्रमुख कारण बनी
30 जुलाई को भारी बारिश के कारण हुए भूस्खलन ने केरल के वायनाड जिले के दो इलाकों को तबाह कर दिया। 400 से अधिक लोगों की मौत और हजारों लोग विस्थापित हुए हैं
30 जुलाई को भारी बारिश के कारण हुए भूस्खलन ने केरल के वायनाड जिले के दो इलाकों को तबाह कर दिया। 400 से अधिक लोगों की मौत और हजारों लोग विस्थापित हुए हैंफोटो: रॉयटर्स
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वायनाड में भूस्खलन का पूर्वानुमान बहुत पहले ही लगाया जा चुका था। वैज्ञानिक और कार्यकर्ता लंबे समय से इस संवेदनशील पठार में गंभीर परिणामों की चेतावनी दे रहे थे। पिछले महीने केरल के वायनाड जिले में भूस्खलन से लगभग 400 लोग मारे गए। सबसे बुरी तरह प्रभावित मुंडक्कई, चूरलमाला और अट्टामाला क्षेत्रों में बचाव अभियान समाप्त होने के बाद ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि मानवीय गतिविधियों के साथ-साथ मानसून की बाढ़ ने इस आपदा को जन्म दिया।

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नेचर में प्रकाशित एक लेख में राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र में संग्रहित दस्तावेजों के विश्लेषण का हवाला देते हुए लिखा गया है कि पारिस्थितिक कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद इस क्षेत्र में 60 से अधिक वर्षों से उत्खनन, खनन और निर्माण जैसी अनियंत्रित मानवीय गतिविधियां घटना के घटित होने तक जारी रहीं।

पर्यावरण सामूहिक वायनाड प्रकृति संरक्षण समिति (डब्ल्यूपीएसएस) के ऐतिहासिक दस्तावेज (इस समिति को 1970 के दशक में वायनाड, कर्नाटक और तमिलनाडु के आस-पास के जंगलों में हाथियों के अवैध शिकार और चंदन की तस्करी के खिलाफ एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन के रूप में गठित किया गया था) इस बात की गवाही देते हैं।

लेख में लेखक ने लिखा है कि डब्ल्यूपीएसएस के सदस्य थॉमस अंबालावायल द्वारा 2010 में जारी एक दस्तावेज में वायनाड को “पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र” घोषित करने की मांग की गई थी। लगभग उसी समय भारत सरकार ने पारिस्थितिकीविद् माधव गाडगिल की अध्यक्षता में पश्चिमी घाट विशेषज्ञ पारिस्थितिकी पैनल (डब्ल्यूजीईईपी) का भी गठन किया गया था।

2011 में पैनल ने व्यापक रूप से गाडगिल रिपोर्ट के रूप में जानी जाने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें इस क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ईएसए) के रूप में नामित किया गया और पश्चिमी घाट के 64 प्रतिशत हिस्से को तीन पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (ईएसजेड) में वर्गीकृत किया गया।

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मुंडक्कई और चूरलमाला के करीब विथिरी तालुक में मेप्पाडी को 18 पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में से एक नामित किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार विथिरी सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से एक था। समिति के कई विशेषज्ञों ने इन क्षेत्रों में अंधाधुंध विकास के खिलाफ चेतावनी दी थी।

वायनाड में हाल ही में हुए भूस्खलन के बाद वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन (डब्ल्यूडब्ल्यूए) के जलवायु वैज्ञानिकों ने रिपोर्ट दी कि भूस्खलन की वजह बारिश थी, जो मानव गतिविधियों के कारण हुए जलवायु परिवर्तन से लगभग 10 प्रतिशत अधिक हो गई थी।

अध्ययन में भारी बारिश के साथ-साथ उत्खनन और वन क्षेत्र में 62 प्रतिशत की कमी जैसे कारकों का भी वर्णन किया गया है, जो संभवतः भूस्खलन के लिए ढलानों की बढ़ती संवेदनशीलता को और बढ़ाने में योगदान दे रहे थे।

डब्ल्यूपीएसएस के दस्तावेजों को देखने पर यह स्पष्ट है कि इसका पूर्वानुमान पहले से ही लगाया गया था। समिति के एक सदस्य द्वारा लिखित सामग्री में उत्खनन के पर्यावरणीय परिणामों पर भी बात कही गई है, जिसमें भूस्खलन भी शामिल था। ये दस्तावेज खदानों में आवश्यक कानूनी नियमों , लाइसेंसिंग प्रक्रियाओं और सुरक्षा की आवश्यक मानदंडों के बारे में भी बात करता है।

एक अन्य नोटिस संभवतः 1980 के दशक का है, जिसमें कहा गया है कि पहाड़ी ढलानों पर वनों की कटाई नहीं होनी चाहिए नहीं तो इसके कारण भारी बारिश के दौरान मलबे के प्रवाह के बारे में भी चेतावनी दी गई है। इसके अतिरिक्त 2016 में डब्ल्यूपीएसएस ने वायनाड में ऊंची इमारतों के निर्माण के खिलाफ केरल उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। इसमें वायनाड में भूस्खलन की संभावना, इसके इतिहास और इससे जुड़ी तब तक कि मौतों का विस्तृत उल्लेख किया गया है।

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डब्ल्यूडब्ल्यूए के अध्ययन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते हो रही भारी वर्षा के कारण भविष्य में भूस्खलन की संभावित संख्या के बढ़ने की संभावना का भी संकेत दिया गया है, जिससे अनुकूलन कार्यों की आवश्यकता बढ़ गई है।

इस संदर्भ में पारिस्थितिकी अभियान के कार्यकर्ता एन बदुशा का एक लिखित नोट उल्लेखनीय है, जिसमें कहा गया है कि यह आपदाओं के बाद प्रतिबंधों के बजाय आपदाओं के लिए शमन और निवारक रणनीतियों की आवश्यकता पर जोर देता है।

इन दस्तावेजों को देखने से दशकों से अब तक की जा रही अनसुनी चेतावनियों और मानव निर्मित इस आपदाओं के बीच स्पष्ट संबंध का पता चलता है और यदि ऐतिहासिक दस्तावेजों में कही गई बातों को कायदे से माना गया होता तो इस भीषण घटना को टाला जा सकता था। ऐसे में अब तक कही जाने वाली कहावत “कोई प्राकृतिक आपदा नहीं होती” यहां सच साबित होती नजर आती है।

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