फोटो- @airnewsalerts
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वायनाड जैसी आपदाएं कितनी प्राकृतिक, कितनी मानवीय?

प्रकृति के ऑरेंज अलर्ट से बचना है तो इसे हमें सामाजिक जिम्मेदारी मानना तथा स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किए जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करना होगा
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बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं

और नदियों के किनारे घर बने हैं

- दुष्यंत कुमार

पहाड़ों के बीच बसे और हरा भरा स्वर्ग कहे जाने वाले वायनाड में बाढ़ व भूस्खलन से हुई भारी तबाही ने एक बार फिर अनियोजित विकास की ओर हमारा ध्यान खींचा है। पश्चिमी घाट के नजदीक होने की वजह से वहां भूस्खलन का खतरा बना रहता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून का पैटर्न बदल रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री जल के वाष्पित होने से नमी में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ 'एटमॉस्फेरिक रिवर या फ्लाइंग रिवर' बारिश के रूप में नीचे आता है, जो बाढ़ का कारण बन रहा है।

देश के कई हिस्सों में भारी बारिश के चलते तबाही का मंजर है और मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। आकस्मिक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं ने हमारे समक्ष कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

भारत में घटित होने वाली सभी प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक घटनाएं बाढ़ व भूस्खलन की है। वर्षा जल के कुशल प्रबंधन के अभाव में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जब प्राकृतिक जलस्रोतों में अतिरिक्त पानी ले जाने की क्षमता नहीं होती है।

बाढ़ आमतौर पर भारी वर्षा से आती है, यह अन्य घटनाओं, विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों में, उष्णकटिबंधीय चक्रवात व सुनामी के परिणामस्वरूप भी घटित हो सकती है।

उदाहरण के लिए, भूकंप के कारण बांध के टूटने से शुष्क मौसम की स्थिति में भी, निचले क्षेत्र में बाढ़ का कारण बनेगा। अनियोजित नगर नियोजन के साथ-साथ शहर का बारिश के स्वागत की तैयारी को आवश्यक ही नहीं समझना बाढ़ की विभीषिका को आमंत्रण है।

उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक बाढ़ व भूस्खलन की जो घटनाएं हम देख रहे हैं, उनकी एक बड़ी वजह मानवीय गतिविधियां हैं। जिन क्षेत्रों में भूस्खलन हो रहा है वें ऐसी जगह हैं जहां निर्माण की इजाजत न होते हुए भी चैकडैम बनाए गएं या फिर इमारतें खड़ी की गईं।

हम विकास और निर्माण-कार्यों के नाम पर लगातार पहाड़ व पेड़ काट रहे हैं, लेकिन सुरक्षात्मक दीवार जिसे रिटेनिंग वॉल कहते हैं, नहीं बनाते। कुछ जगहें तो नितांत असहाय हैं क्योंकि तेजी से होते शहरीकरण और बुनियादी ढांचों के निर्माण की वजह से बाढ़ की विभीषिका से प्राकृतिक तौर पर रक्षा करने वाली दलदली जमीनें, तालाब और झीलें गुम होती जा रही हैं।

भूस्खलन से दुनिया भर में जितनी मौतें होती हैं, उनमें से 8 प्रतिशत भारत में होती है। इसरो ने देश के 17 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों के उन 147 जिलों की रैंकिंग जारी की है, जहां भूस्खलन होने का सर्वाधिक जोखिम है। इनमें उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग व टिहरी गढ़वाल पहले व दूसरे तथा केरल का त्रिशूर जिला तीसरे स्थान पर हैं। नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के मुताबिक 1998 से 2022 के बीच देश में भूस्खलन की 80 हजार घटनाएं हुई हैं।

वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट द्वारा विकसित एक्वाडक्ट फ्लड टूल का उपयोग करके किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि भारत उन पंद्रह देशों की सूची में सबसे आगे है, जिसकी कुल आबादी की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या बाढ़ से प्रभावित है।

भारत उन देशों की सूची में भी शीर्ष पर है जहां बाढ़ से सबसे अधिक जीडीपी प्रतिशत प्रभावित है - लगभग 14.3 बिलियन अमरीकी डॉलर जबकि बांग्लादेश 5.4 बिलियन अमरीकी डॉलर के साथ दूसरे स्थान पर है।

दुनिया भर में बाढ़ से जितनी मौतें होती हैं, उनका पांचवा हिस्सा भारत में होता है। भारत में औसतन हर साल 75 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है। देश के बहुत रिवर बेसिन तबाही के इलाके साबित हुए हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के मुताबिक भारत में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाओं में बाढ़ सबसे अधिक तबाही का कारण बनती है।

विगत वर्षों में भी केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्य में सदी की सबसे भयावह बाढ़ ने जबरदस्त कहर बरपाया। केरल में बाढ़ को लेकर जितनी थ्योरियां दी जा रही हैं, उनमें एक अहम बिंदु है गाडगिल रिपोर्ट की अनदेखी।

अगस्त 2011 में प्रस्तुत गाडगिल रिपोर्ट जिसके चेयरमैन पर्यावरणविद माधव गाडगिल थे, में चिंता जताई गई थी कि मानव के हस्तक्षेप के चलते पश्चिमी घाट गंभीर खतरे में है और घाट के 37% हिस्से को पारिस्थितिकीय रूप से बेहद संवेदनशील करार देने को कहा गया था। रिपोर्ट में खनन पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की गई थी। इसके अलावा पहाड़ी ढलानों पर खेती न करने व ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाने तथा निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की अनुशंसा की गई थी।

एक शोध के अनुसार, वर्ष 1920 से 1990 तक पश्चिमी घाट के तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के हिस्से के 40 प्रतिशत वनों को या तो खत्म कर दिया या फिर उन्हें खेतों में तब्दील कर दिया गया। पश्चिमी घाट पर गठित विशेषज्ञ पैनल के सदस्य और पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ वी.एस. विजयन कहते हैं, 'केरल असल में मानव निर्मित त्रासदी का शिकार हो रहा है।'

सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक हिमालय की गोद में बसे सुरम्य पहाड़ी नगर भी अब दैवी आपदाओं की दृष्टि से सुरक्षित नहीं रह गये हैं। हिमालय का पारितंत्र जितना अधिक संवेदनशील है, उतना ही अधिक उस पर मानवीय दबाव बढ़ रहा है। जिस कारण पर्यावरण संतुलन बिगड़ने से इस क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ती जा रही है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण आज हमारे सामने जोशीमठ का है, जोशीमठ की धरती अनियंत्रित निर्माण का दबाव सहने लायक नहीं है। हिमालय क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसी बरसात गुजरती हो जब भूस्खलन तथा बाढ़ जैसी आपदाओं में बड़े पैमाने पर जनहानि नहीं हुई हो।

वैज्ञानिकों के अनुसार इन क्षेत्रों में खंडित या दरारों वाली चूने पत्थर की चट्टाने हैं। इनकी दरारों में बरसात में पानी भर जाने के कारण ढाल वाली धरती की सतह धंसने या खिसकने लगती है।

बाढ़ में जितनी मुश्किलें होती हैं, बाढ़ के जाने के बाद उससे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बाढ़ के उपरांत प्रभावित क्षेत्रों में पेयजल की उपलब्धता सबसे बड़ी चुनौती होती है और वहां के निवासियों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

क्या इस तबाही के पीछे इंसान का कोई हाथ नहीं? क्या इस तबाही के लिए अधिक वर्षा जिम्मेदार है या पर्यावरण की परवाह किए बिना विकास की बेतरतीब योजनाएं? क्या अदूरदर्शी सरकारी योजनाओं के चलते ऐसा नहीं हुआ? दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में आने वाली आकस्मिक बाढ़ का प्रमुख कारण बेतरतीब तरीके से होने वाला शहरीकरण है।

प्रकृति मानव पर निरंतर व निश्चयात्मक प्रभाव डालती है तथा इस कार्य में मनुष्य की तरह शोरगल न कर मूक रहती है। लेकिन वर्तमान समय में प्रकृति भी मानवीय क्रिया कलापों को सहन करने की सीमा लांघ चुकी है, अतः यें प्रभाव बड़ी आवाज के साथ प्रकट हो रहे हैं।

प्रत्येक वर्ष बारिश होती है, प्रत्येक वर्ष बाढ़ आती है। बाढ़ अजनबी की तरह नहीं आती, नियति की तरह आती है। बाढ़ आएगी, यह पहले से ज्ञात होता है। किस नदी में, कहां से आएगी, यह भी ज्ञात होता है। लेकिन मान लिया गया है कि हर वर्ष बाढ़ एक स्थाई आयोजन है और राहत एक औपचारिकता।

नदियों का मार्ग सुनिश्चित होता है खासतौर से बाढ़ का रास्ता जिसे फ़्लड-वे कहते है। अगर किसी नदी के कारण आज से एक सदी पूर्व भी बाढ़ आई होगी, तो उस समय उसका जो पथ होगा, वर्तमान में भी बाढ़ की स्थिति में नदी उसी फ्लड-वे का अनुसरण करेगी।

फिर उसके रास्ते में मकान, सड़क, पुल जो भी आएगा उसे प्रबल वेग का सामना करना पड़ेगा। प्राचीन समय में फ़्लड-वे का उपयोग केवल खेती के लिए करते थे न कि स्थायी निर्माण कार्य के लिए। बाढ़ पहले भी आती थी लेकिन इतनी विनाशकारी नहीं।

इसका एक कारण तो यही है कि पहले इतना अनियोजित शहरीकरण, संकेंद्रित आर्थिक गतिविधियां, बढ़ती झुग्गी बस्तियां और निर्माण कार्य नहीं थे। न केवल शहरी क्षेत्रों में ही बल्कि बड़ी नदियों और तटों पर भी उच्च जनसंख्या घनत्व ने बाढ़ के खतरे को बढ़ा दिया है। काबिले गौर है कि विकास के नाम पर नदियों के बहाव क्षेत्र के आर पार बड़े निर्माण कार्य हो रहे हैं।

सुरंग आधारित परियोजनाएं, चौड़ी सड़कें, वन कटान, जैव- विविधता को बड़े पैमाने पर नुकसान, निर्माण कार्यों का मलबा नदियों और जलस्रोतों में उड़ेलना, ठोस कचरे का उचित प्रबंध न होना, अनियंत्रित पर्यटन, नदियों के किनारे अनियंत्रित बहुमंजिला इमारतों का निर्माण ने खतरनाक स्थिति बना दी है।

इससे प्राकृतिक अपवाह तंत्र के अवरुद्ध होने तथा नदी तल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मानव बसाव की वजह से बाढ़ की आवृत्ति, तीव्रता, बाढ़ प्रवण क्षेत्र और विध्वंसता बढ़ जाती है।

कृषि प्रधान देश भारत में बारिश का आगमन किसी पर्व से कम नहीं होता और न ही विकास की गति को रोक कर सभ्यता को पुनः पंद्रहवीं शताब्दी में धकेला जा सकता है। इसके लिए जरूरी है विकास के उस मॉडल को अपनाना जो पर्यावरण व प्रकृति को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाता हो।

किसी विकास योजना को बनाने से पहले उससे होने वाले नुकसान का जायजा लेना भी अनिवार्य है वरना ऐसे मंजर हमें बार-बार देखने को मिलेंगे और हम इन्हें कुदरत का कहर मान मौन बैठे रहेंगे। अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाए जाने चाहिए और इसके साथ ही प्रकृति के मूल चरित्र को अक्षुण्ण रखने की भी आवश्यकता है।

नदियों के फ्लड-वे को चिह्नित किया जाना चाहिए। जनता विकास को खारिज कर जल, जंगल, और जमीन पर अपना अधिकार मांगती हैं। अतः प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का स्वामित्व स्थापित होना चाहिए।

आदि सभ्यताओं में भी मानव जीवन के समस्त क्रियाकलाप प्रकृति की गोद में उसी के साथ तालमेल में रहकर संपन्न होते थे। ऐसे में स्थानीय समुदाय द्वारा नाजुक इको-सिस्टम तथा बायो-डाइवर्सिटी को हानि पहुंचाए बगैर निर्मित बंधिकाएं और वर्षा जल संचयक अप्रबंधकीय विशाल योजनाओं के मुक़ाबले सस्ते और स्वीकार्य हो सकते हैं।

नदी के पानी को रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदला जा सकता है। पर्यावरणविद अनुपम मिश्र इसे ‘फ़्लड वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम’ कहते थे।

भारत ऐसा देश है जो हर साल बाढ़ और सूखे की दोहरी चुनौतियों का सामना करता है। झीलें, तालाब, कुंड, बावड़ी व जोहड़ में बरसाती पानी का संग्रहण रिहायशी बस्तियों में बारिश के समय न केवल तबाही रोकते हैं बल्कि सिंचाई, पेयजल व औद्योगिक जरूरतों के लिए लोगों को वर्ष पर्यन्त पानी उपलब्ध कराते हैं और भूजल स्तर बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

साथ ही प्रभावी शहरी नियोजन, उचित जल निकासी, भूमि उपयोग प्रबंधन, वाटर शेड प्रबंधन, मृदा संरक्षण एवं नदी तटबंधों का निर्माण को भी बढ़ावा देना होगा। नदी प्रबंधन या संरक्षण के अंतर्गत जल के प्रदूषण को कम करने के साथ नदी तल पुनर्स्थापन और गाद प्रबंधन की दिशा में ठोस कदम उठाएं जाने अत्यावश्यक है।

कई देशों में गाद का प्रबंधन आज नदी प्रबंधन कार्यक्रम का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। दुनिया भर में नदियों को जीवंत रखने के लिए इसके तल से ड्रेजिंग व डिसिल्टिंग के माध्यम से गाद निकालने की व्यवस्था की जाती है।

भारत में बाढ़ प्रबंधन सहित सिंचाई, पेयजल आपूर्ति और जल विद्युत उत्पादन के लिए जल संसाधनों के नियंत्रण व संरक्षण क्षेत्र की शीर्ष संस्था केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) को बाढ़ पूर्वानुमान के लिए सुदृढ़ देशव्यापी नेटवर्क विकसित करना होगा।

बाढ़ से होने वाली व्यापक क्षति तथा बाढ़ पर नियंत्रण में विफलता भारत की आपदा प्रबंधन की स्थिति और तैयारियों की अपर्याप्तता को उजागर करते हैं, यह स्थिति एक एकीकृत बाढ़ प्रबंधन प्रणाली की आवश्यकता की तरफ इशारा करती है। एकीकृत बाढ़ प्रबंधन में संरचनात्मक (तटबंध, एनिकट व बांध निर्माण आदि) के साथ-साथ गैर-संरचनात्मक उपायों (प्रशिक्षण, जागरूकता और बाढ़ प्रतिरोधक क्षमता निर्माण) का संयोजन शामिल है।

बाढ़ प्रबंधन का विषय राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है। केंद्र सरकार सभी स्तरों पर आपदा तैयारियों को सुव्यवस्थित और मजबूत करने के लिए समय-समय पर नीतियां और दिशानिर्देश जारी करती है एवं राज्य सरकारों को तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

बाढ़ को नियंत्रित करने हेतु अनुसंधान एवं नीतिगत पहल के लिए केंद्र तथा राज्यों द्वारा मिलकर कार्य किये जाने की आवश्यकता है। प्रकृति के ऑरेंज अलर्ट से बचना है तो इसे हमें सामाजिक जिम्मेदारी मानना तथा स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किए जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करना होगा। हम नदी से जीत नहीं सकते, उसके साथ रहना ही सीख सकते हैं।

डॉ. बबीता और डॉ. सुभाष चंद्र यादव, एलबीएस राजकीय महाविद्यालय, कोटपुतली, जयपुर में क्रमश: भूगोल की प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर हैं। लेखकद्वय एडिलेड विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे हैं।

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