मेरी जुबानी: परंपरा खत्म तो आत्मनिर्भरता खत्म

अपने आसपास के कुदरती संसाधनों पर सरकार का कब्जा होने का सिलिसिला शुरू होने के बाद से कल तक का एक स्वतंत्र ग्रामीण आज शहरी मजदूर बनने को मजबूर है
मेरी जुबानी: परंपरा खत्म तो आत्मनिर्भरता खत्म
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बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हमारे पास दो दर्जन से अधिक मवेशी रहे हैं। दस साल पहले तक हम कभी अपने मवेशी के चारे के लिए नहीं भटके। लेकिन अब हमारे लिए अपने मवेशियों का पेट भरना दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। पहले हम अपने मवेशियों को गांव में फसल के बोने से लेकर उसके कटने तक गांव के पास जंगल-पहाड़ों पर छोड़ आते थे।

यह परंपरा हमारे गांव में न जाने कब से चली आ रही थी। हमारे घर का ही कोई लड़का गांव के चरवाहे के साथ मवेशियों को जंगल हांक कर ले जाता था और फसल कटते ही सभी जानवरों को लौटा लाता था। जंगलों में मवेशियों को पर्याप्त चारा मिल जाता था। हां, जो दुधारू पशु होते थे, उन्हें हम लोग अपने घरों की सार (मवेशियों को रखने की जगह) में ही रखते थे। इससे होता यह था कि गांव के चरवाहों को भी अच्छा-खासा काम मिल जाता था। अब तो वे शहर जाकर मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।

हमारे मवेशी, चरवाहों के साथ हमारे हालात भी तब बदल गए जब दस साल पहले जंगल विभाग ने जंगलों में कंटीली बाड़ें लगा दीं। इसका नतीजा हुआ कि मेरे गांव और आसपास के गांव के लोग अपने मवेशियों को लेकर जंगल में घुसने में नाकाम हो गए। अब मवेशियों को घर में ही बांध कर खिलाना बहुत मुश्किल हो गया क्योंकि रबी या खरीफ की फसल की बुआई और उसके बाद उसके कटने तक अपने मवेशियों को घर की सार में खूंटे में बांधकर खिलाना हर गांव वाले के लिए बहुत खर्चीला हो गया।

नतीजा यह हुआ कि लोगों ने अपने अनुपयोगी हो चुके जानवरों को खुला छोड़ना शुरू कर दिया। अगर गाय दूध दे रही है तो घर पर बांधेंगे और उसके दूध देना बंद करने के साथ ही उसे अपने घर से बाहर ले जाकर खुले में छोड़ देंगे। ऐसे में गांव में आवारा मवेशियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इन आवारा मवेशियों के लिए आसपास कोई चारागाह नहीं है। इसलिए वे खेतों की फसलों पर ही टूट पड़ते हैं।

कहने के लिए सरकार ने करीब चार साल पहले हमारे गांव से तीन किलोमीटर दूर छुट्टा जानवरों के लिए एक गोशाला का निर्माण करवाया था। लेकिन यह प्रयोग अधिक सफल नहीं रहा क्योंकि वहां भी जानवरों को पर्याप्त मात्रा में चारा नहीं मिल पा रहा था। जो चारा आता भी था, वह दो दिन के अंतर से। भूख से मजबूर होकर जानवर वहां से भाग जाते थे। इसके साथ ही हमारे इलाके के आसपास के बूचड़खाने बंद हो गए हैं। ऐसे में जानवरों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है।

प्रकृति और इंसान के बीच के रिश्ते को बचाने व बढ़ाने के लिए जो व्यवस्था तैयार हुई थी, उसका खत्म होना बहुत खतरनाक होता है। अगर आसपास के निवासियों को जंगलों से बहिष्कृत कर दिया जाएगा तो फिर उनका जीवनयापन खतरे में पड़ जाएगा। जंगलों के आसपास बसे गांवों की जीविका बहुत कुछ जंगलों के उत्पाद पर निर्भर करती है। जंगल कुदरती संसाधन हैं जिस पर सरकार अपना मालिकाना हक जता रही है। अपने आसपास के कुदरती संसाधनों पर सरकार का कब्जा होने का सिलिसिला शुरू होने के बाद से कल तक का एक स्वतंत्र ग्रामीण आज शहरी मजदूर बनने को मजबूर है।

कल तक जो चरवाहा अपने गांव में अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम कर लेता था आज वह पेट भरने के लिए शहर की सड़क पर है। जो मवेशी दुधारू न रहने पर घर के बुजुर्ग सदस्यों की तरह घर में रखे जाते थे, उनके लिए अब न तो घर में और न मैदानों में जगह बची है। चरवाहे तो अब जल्द ही सिर्फ किस्से-कहानियों में बच जाएंगे। चरवाहों के खत्म होने का मतलब है, गांव की आत्मनिर्भरता का खत्म होना।

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