कर्ज और जलवायु का रिश्ता: विकासशील देशों को कर्ज नहीं मदद दें विकसित देश

जलवायु के प्रति संवेदनशील देशों में से आधे से ज्यादा देश या तो पहले से ही भारी कर्ज में डूबे हुए हैं, या फिर जल्द ही कर्ज संकट में फंसने के बहुत करीब हैं
पिछले एक दशक में ऐसे देशों की संख्या में 47 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जहां बाहरी ऋण भुगतान स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च को पीछे छोड़ रहा है
पिछले एक दशक में ऐसे देशों की संख्या में 47 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जहां बाहरी ऋण भुगतान स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च को पीछे छोड़ रहा हैफोटो साभार: आईस्टॉक
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जैसे ही स्पेन के शहर सेविल में चौथा इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन फाइनेंसिंग फॉर डेवलपमेंट (एफएफडी4) शुरू हुआ, हमें पता चल रहा है कि कैसे विकासशील देश भारी कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। यह कर्ज उन्हें आगे बढ़ने से रोक रहा है। दुनिया की मौजूदा खराब वित्तीय व्यवस्था भी उनके लिए पैसा जुटाना मुश्किल बना देती है। ऐसे में इन देशों की सरकारों के पास दो ही रास्ते बचते हैं। या तो वे पुराना कर्ज चुकाएं, या अपने लोगों की बुनियादी जरूरतों पर खर्च करें।

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2015 से लगातार निम्न-आय वाले देशों में सकल पूंजी निर्माण (अर्थव्यवस्था की स्थायी परिसंपत्तियां जैसे स्कूल, अस्पताल और कारखाने) जीडीपी का मात्र 22 प्रतिशत बना हुआ है, जो मध्य-आय वाले देशों के 33 प्रतिशत के औसत से काफी कम है। यह जानकारी वैटिकन समर्थित ‘द जुबली रिपोर्ट’ में दी गई है। इस रिपोर्ट को पोप फ्रांसिस के आदेश पर 30 प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने तैयार किया है। गरीबी से उबर चुके और मध्य-आय वाले देशों की बराबरी करने के लिए निम्न-आय वाले देशों को अपने जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा निवेश करना चाहिए।

बढ़ते हुए सरकारी कर्ज की अदायगी और उसके कारण देश की वित्तीय सेहत पर पड़ने वाला बोझ चिंता पैदा करने वाला है। जीडीपी के अनुपात में बाहरी सार्वजनिक ऋण भुगतान की तुलना यदि सरकार के स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च के अनुपात से की जाए, तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आते हैं।

पिछले एक दशक में ऐसे देशों की संख्या में 47 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जहां बाहरी ऋण भुगतान स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च को पीछे छोड़ रहा है।

2013 में नौ देशों में बाहरी सार्वजनिक ऋण के भुगतान का जीडीपी में हिस्सा, शिक्षा पर सरकारी खर्च के जीडीपी में हिस्से से अधिक था। वहीं, 35 देशों का बाह्य ऋण भुगतान का हिस्सा स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च से अधिक था। 2023 तक यह संख्या बढ़कर क्रमशः 17 और 48 हो गई।

इसके अलावा 2023 में 11 देशों में विदेशी सार्वजनिक ऋण भुगतान का जीडीपी में हिस्सा शिक्षा पर सरकारी खर्च के जीडीपी में हिस्से से 1 प्रतिशत अंक से भी अधिक था। इंडोनेशिया के मामले में यह अंतर 2.1 प्रतिशत था, मालदीव में 5.1 प्रतिशत, अंगोला में 5.9 प्रतिशत, जबकि मंगोलिया में यह अंतर 8.2 प्रतिशत तक पहुंच गया।

इसी तरह 21 देशों में बाहरी ऋण भुगतान का जीडीपी में हिस्सा, स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च के जीडीपी में हिस्से से 1 प्रतिशत अंक से अधिक था। इनमें से 13 देशों में यह अंतर 2 प्रतिशत अंक से भी अधिक था। उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया में यह अंतर 1.6 प्रतिशत, कैमरून में 3 प्रतिशत, कांगो में 4.7 प्रतिशत, जॉर्डन में 4.9 प्रतिशत और अंगोला में 6.4 प्रतिशत था। इससे पता चलता है कि ग्लोबल साउथ में विकास पर किए जा रहे खर्च में अस्थिरता बहुत, जिसका कारण बढ़ता सार्वजनिक ऋण संकट है।

अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था एक्शनएड की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार बढ़ता कर्ज देशों को एक नकारात्मक चक्र में फंसा रहा है, जिसके कारण सरकारों को न केवल स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च कम करना पड़ रहा है, बल्कि उन्हें अपने ऋण चुकाने के लिए उन क्षेत्रों में निवेश करना पड़ रहा है जो जलवायु के लिहाज से हानिकारक हैं। घाना जैसे देश अपने ऋण चुकाने के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे अहम क्षेत्रों में फंडिंग में कटौती कर रहे हैं।

ऋण और जलवायु का संबंध

कई सबसे अधिक संवेदनशील देशों के लिए, जलवायु परिवर्तन से निपटने की लागत जलवायु-जनित या जलवायु परिवर्तन की वजह से बदतर हुई मौसमी घटनाओं से हुए नुकसान की लागत के बराबर होती है। उदाहरण के लिए, अतीत में आए चक्रवातों (हैरिकेन) की वजह से डोमिनिका और अन्य कैरेबियाई देश भारी कर्ज के बोझ तले दब गए हैं। वर्ष 2015 में जब डोमिनिका पर हैरिकेन एरिका ने प्रहार किया, तो उससे हुए नुकसान देश के कुल जीडीपी के 90 प्रतिशत तक पहुंच गए थे।

हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र स्तर में वृद्धि के सबसे बड़े जोखिम का सामना कर रहे कई छोटे द्वीपीय देश ऋण राहत की मांग को लेकर एकजुट हुए हैं। इन देशों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह स्पष्ट किया है कि मौजूदा परिस्थितियों में उन्हें राहत की सख्त जरूरत है।

सबसे कमजोर और अत्यधिक कर्ज वाले देशों में शामिल हैती को केवल 2023 में ही "जलवायुगत" प्राकृतिक आपदाओं से कम से कम 432.38 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ।

कर्ज और जलवायु वित्त की चुनौतियां आपस में जुड़ी हुई हैं, इसलिए इनका हल एक साथ निकालना चाहिए।

ऋण और जलवायु संवेदनशीलता के बीच के अंतर्संबंध को समझने के लिए, हमने उन देशों का विश्लेषण किया जो जलवायु प्रभावों के सबसे अधिक जोखिम में हैं और साथ ही सबसे अधिक कर्ज के भार से दबे हुए हैं। नतीजे चौंकाने वाले हैं- जलवायु के लिहाज से सबसे अधिक संवेदनशील निम्न और मध्यम आय वाले देशों में से आधे से अधिक या तो पहले से ही गंभीर ऋण संकट में हैं या फिर उसके उच्च जोखिम में हैं।

ऐसे 36 निम्न और मध्यम आय वाले देश जो जलवायु के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील हैं, या तो पहले से ऋण संकट से जूझ रहे हैं या फिर उस ओर बढ़ रहे हैं। इन देशों के अनुभव यह दर्शाते हैं कि किस तरह ऋण का बोझ उनकी वित्तीय क्षमता को कमजोर करता है और जलवायु जोखिम को और गहरा करता है। साथ ही यह भी कि अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त अब भी इस असंतुलन को दूर करने में नाकाफी साबित हो रहा है।

कर्ज के रूप में न हो जलवायु वित्त

विकासशील देशों को जलवायु कार्रवाई को सक्षम करने के लिए अधिक मात्रा में और न्यायसंगत वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। जो देश जलवायु और आर्थिक दोनों प्रकार के झटकों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं, उन्हें ऋण के रूप में नहीं, बल्कि ऋण-मुक्त जलवायु वित्त की आवश्यकता है।

इस विश्लेषण में शामिल देशों को वर्ष 2012 से 2022 के बीच कुल मिलाकर लगभग 78 अरब डॉलर का विकास वित्त प्राप्त हुआ, जिसमें जलवायु से संबंधित घटक भी शामिल थे। यह सिर्फ एक अंदाजा है, क्योंकि हर प्रोजेक्ट में जलवायु का असर अलग होता है और जो आंकड़े हैं, वो सिर्फ किए गए वादों के हैं। असली पैसा कितना मिलेगा, ये तय नहीं है।

यह तथ्य इस बात को और रेखांकित करता है कि जलवायु वित्त को ऋण के रूप में देना न केवल असंगत है, बल्कि उन देशों के लिए अनुचित भी है जो पहले से ही ऋण संकट और जलवायु आपदाओं की दोहरी मार झेल रहे हैं।

पिछले वर्षों में यह बात सामने आई है कि जलवायु वित्त का वितरण अनुपात सामान्य विकास वित्त की तुलना में कहीं कम होता है। कुछ मामलों में तो केवल आधी राशि ही वास्तव में वितरित होती है। औसतन, इन देशों को प्रतिवर्ष 7.17 अरब डॉलर की राशि प्राप्त हुई है। इसके विपरीत, इन देशों की राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को लागू करने के लिए प्रतिवर्ष 79 अरब डॉलर की आवश्यकता है- यह अंतर बेहद व्यापक है।

इसी दौरान जलवायु आपदाओं से होने वाले नुकसान लगातार बढ़ते जा रहे हैं। जब हम इस स्थिति को सार्वजनिक ऋण संकट के दृष्टिकोण से देखते हैं, तो तस्वीर और भी धुंधली हो जाती है।

इनमें से अधिकांश देश या तो पहले से ही गंभीर ऋण संकट में हैं या फिर उसके उच्च जोखिम में हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार, ऋण संकट उस स्थिति को कहते हैं जब कोई देश अपनी वित्तीय जिम्मेदारियों को निभाने में असमर्थ हो जाता है और ऋण पुनर्गठन आवश्यक हो जाता है।

अगर कोई देश अपने कर्ज का भुगतान नहीं कर पाता और वह डिफाल्टर हो जाता है तो उसे उधार मिलना मुश्किल हो जाता है और ब्याज दरें भी बहुत बढ़ जाती हैं।

इन 36 देशों ने सिर्फ साल 2022 में बाहरी सार्वजनिक कर्ज की किस्तों पर कुल 13.24 अरब डॉलर खर्च किए। यह रकम उस पैसे से 1.8 गुना ज्यादा है, जो उन्हें जलवायु से जुड़े विकास के लिए पूरे साल में मिला। यानी, इन देशों ने जितना पैसा जलवायु कार्यों के लिए पाया, उसका लगभग दोगुना तो सिर्फ बाहरी कर्ज की किस्तों में चला गया।

इस विश्लेषण में जिन 36 देशों को शामिल किया गया है, उनमें से एक-तिहाई देश जलवायु परिवर्तन के सबसे ज्यादा खतरे में हैं और इनकी तैयारी सबसे कम है। जब जलवायु फाइनेंस की जरूरत, मिलने वाली मदद और कर्ज चुकाने की स्थिति को देखा गया तो सामने आया कि जो देश जलवायु संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, उन्हें वित्तीय मदद कम मिलती है, लेकिन कर्ज चुकाने का बोझ बहुत ज्यादा होता है। अक्सर ये देश कर्ज चुकाने में इतना खर्च करते हैं कि शिक्षा या स्वास्थ्य जैसे जरूरी क्षेत्रों पर भी उससे कम पैसा खर्च कर पाते हैं।

हालांकि हर देश की स्थिति अलग है, लेकिन यह हालात दिखाते हैं कि कर्ज, विकास और जलवायु संकट आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं।

इस बात को नीचे दिया गया उदाहरण और साफ करता है। ज्यादातर देशों में, कर्ज चुकाने पर होने वाला खर्च उनकी जीडीपी का इतना बड़ा हिस्सा है कि वह या तो उन्हें मिलने वाले जलवायु फाइनेंस से ज्यादा है या उनके बुनियादी सामाजिक खर्च (जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य) से।

उदाहरण के लिए, चाड, गिनी-बिसाऊ, हैती और सिएरा लियोन में कर्ज चुकाने पर जितना पैसा खर्च होता है, वह उन्हें मिलने वाले जलवायु-विकास फंड से ज्यादा है। यहां तक कि चाड, गिनी-बिसाऊ और हैती में तो कर्ज चुकाने का खर्च सामाजिक खर्च से भी ज्यादा है।

इस अध्ययन में शामिल 36 देशों में से 25 देशों के जलवायु आपदाओं से हुए नुकसान के विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध थे। इन 25 देशों में से लगभग 70 प्रतिशत देशों ने साल 2022 में सार्वजनिक कर्ज चुकाने पर उतना या उससे ज्यादा खर्च किया, जितना कि वे औसतन हर साल जलवायु आपदाओं में खोते हैं।

जाम्बिया, घाना, कैमरून और ताजिकिस्तान जैसे चार देशों में स्थिति और भी गंभीर है — इन देशों ने जलवायु आपदाओं से होने वाले नुकसान की तुलना में 50 गुना ज्यादा पैसा सिर्फ कर्ज चुकाने में खर्च किया।

यह हैरानी की बात नहीं है कि इन चार में से दो देश — घाना और जाम्बिया— पहले ही अपने बाहरी कर्ज को जी20 कॉमन फ्रेमवर्क के तहत पुनर्गठित करवाने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन उन्हें सीमित सफलता ही मिली है।

हालांकि जलवायु से जुड़ी आपदाएं कभी-कभार आती हैं और कर्ज चुकाना एक नियमित खर्च होता है, लेकिन इन दोनों के बीच का यह अंतर दिखाता है कि सरकारों का पैसा कैसे असंतुलित ढंग से बंटा हुआ है।

यह बताता है कि बिना किसी आपदा के भी जलवायु संकट से जूझ रहे देशों का बड़ा हिस्सा पहले से ही कर्ज चुकाने में फंसा होता है — और यह खर्च अक्सर उस नुकसान से भी ज्यादा होता है, जो उन्हें आमतौर पर आपदाओं से होता है। इसका मतलब है कि जब असली जलवायु आपदा आती है, तब उनके पास उससे निपटने के लिए पैसा ही नहीं बचता।

यह तुलना यह नहीं कहती कि कर्ज और जलवायु नुकसान एक जैसे हैं, बल्कि यह दिखाती है कि कितना सख्त और एकतरफा वित्तीय ढांचा है, जिसमें कर्ज चुकाने जैसी तय जिम्मेदारियां, जलवायु जैसी अनिश्चित लेकिन खतरनाक आपदाओं के लिए तैयारी या राहत को पीछे धकेल देती हैं।

चाड, जो दुनिया के सबसे ज्यादा जलवायु संकट से प्रभावित देशों में से एक है, अपनी जलवायु जरूरतों और वित्तीय हालात के बीच भारी असंतुलन का सामना कर रहा है। उसे अपनी जलवायु योजनाओं को लागू करने के लिए हर साल 2.1 अरब डॉलर से ज्यादा की जरूरत होती है, लेकिन पिछले दस सालों में उसे केवल 177 मिलियन डॉलर सालाना जलवायु से जुड़ी विकास मदद मिली है — जो उसकी असली जरूरतों का केवल 8 प्रतिशत है।

इसी दौरान, चाड को हर साल जलवायु आपदाओं से करीब 29 मिलियन डॉलर का नुकसान होता है, जो उसकी कमजोर स्थिति को और बढ़ाता है।

फिर भी, चाड जलवायु या विकास जरूरतों की तुलना में कर्ज चुकाने पर कहीं ज्यादा खर्च करता है। साल 2022 में सरकार ने बाहरी सार्वजनिक कर्ज की किश्तों में 393 मिलियन डॉलर दिए, जो कि उसे जलवायु से जुड़ी विकास मदद से औसतन दो गुना ज्यादा है, और स्वास्थ्य क्षेत्र पर उसके खर्च से सात गुना ज्यादा है (जीडीपी के हिस्से के तौर पर)।

कर्ज चुकाने में खर्च होने वाली राशि सरकार की कुल आय का लगभग 19.15 प्रतिशत है; इसलिए चाड को कर्ज संकट का बहुत बड़ा खतरा माना जाता है। यह स्थिति साफ दिखाती है कि ऐसे देश जो सबसे ज्यादा जलवायु संकट में हैं, उनके लिए बिना कर्ज वाले जलवायु वित्त की और न्यायपूर्ण वित्तीय नियमों की जरूरत है।

अधिक नरमी की जरूरत

कई देशों ने अपनी राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) में साफ लिखा है कि उन्हें अपनी कुल जलवायु जरूरतों का 75 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक अंतरराष्ट्रीय मदद की जरूरत है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी ) जलवायु से जुड़ी विकास फाइनेंस (सीआरडीएफ) के डेटा को इकट्ठा करता है, जिसमें आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) का बड़ा हिस्सा शामिल होता है। ये रकम मुख्य रूप से दुनिया भर के विकासशील देशों को जलवायु फाइनेंस के तौर पर दी जाती है। हालांकि, यह जानना जरूरी है कि सीआरडीएफ और जलवायु फाइनेंस पूरी तरह एक जैसे नहीं हैं। जलवायु फाइनेंस को पहले 100 अरब डॉलर के लक्ष्य के हिस्से के रूप में ट्रैक किया जाता है।

आधुनिक समय में सीआरडीएफ में नॉन कंसेशनल, कम विकास-केंद्रित वित्त की बढ़ती हिस्सेदारी यह दिखाती है कि अब यह मदद उतनी न्यायसंगत और जरूरत-आधारित नहीं रह गई है। यह डेटा दिखाता है कि लगभग 2015 के बाद से नॉन कंसेशनल वित्तीय मदद की मात्रा कंसेशनल मदद से ज्यादा हो गई, और यह रुझान 2022 तक जारी रहा। हालांकि दोनों के बीच का अंतर थोड़ा कम हो रहा है, लेकिन जिन देशों की अर्थव्यवस्था छोटी है, उनके लिए ज़्यादातर कंसेशनल वित्त मदद खासकर जलवायु के लिए, बेहद जरूरी है।

ओईसीडी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में विकसित देशों द्वारा कुल 115.9 अरब डॉलर की जलवायु मदद में से लगभग 69 प्रतिशत रकम कर्ज के रूप में दी गई थी। ऐसे देश जो जलवायु संकट, कम तैयारी और भारी कर्ज के साथ संघर्ष कर रहे हैं, उनके लिए यह तीनों समस्याएं उन्हें अनुकूलन या पुनर्प्राप्ति में निवेश करने का बहुत कम मौका देती हैं।

यह समस्याएं अकेली या सिर्फ सोचने की बात नहीं हैं — ये वैश्विक वित्तीय प्रणाली की जड़ से खामी और असफलताएं हैं। यह विश्लेषण बताता है कि जलवायु और कर्ज के मामले में न्यायपूर्ण नजरिया अपनाना जरूरी है, ताकि जो देश जलवायु संकट का सबसे ज्यादा सामना कर रहे हैं, उन्हें दोहरा दंड न भुगतना पड़े।

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