
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) द्वारा किए एक नए अध्ययन से पुष्टि हुई है कि अंटार्कटिका की ओजोन परत में सुधार हो रहा है। यह दुनिया भर में लोगों द्वारा उन हानिकारक केमिकल्स को कम करने के प्रयासों का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जो ओजोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं। यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि वैश्विक प्रयासों से क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।
गौरतलब है कि इससे पहले भी एमआईटी सहित अन्य वैज्ञानिकों ने ओजोन परत में बहाली के संकेत देखे थे। हालांकि शोधकर्ताओं के मुताबिक यह पहला अध्ययन है जो इस बात की पुष्टि करता है कि यह रिकवरी मुख्य रूप से ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले केमिकल्स में कमी के कारण आई है।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि इसमें मौसम में आते बदलाव या ग्रीनहाउस गैसों की भूमिका नहीं है। इस अध्ययन के नतीजे पांच मार्च 2025 को अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में प्रकाशित हुए हैं।
इस बारे में एमआईटी प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता सुसान सोलोमन का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, “इस बात के बहुत सारे सबूत मिले हैं कि अंटार्कटिका के ओजोन छिद्र में सुधर हो रहा है। लेकिन यह पहला अध्ययन है जिसमें हम 95 फीसदी यकीन के साथ कह सकते हैं कि यह छिद्र ठीक हो रहा है, जो बेहद अच्छी खबर है। यह साबित करता है कि हम पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को हल कर सकते हैं।“
गौरतलब है कि पृथ्वी के चारों ओर विभिन्न गैसों के मिश्रण से बना वायुमंडल है, जो एकसमान ना होकर कई परतों में है। धरती की सतह से वायुमंडल की दूसरी परत जिसे समताप मण्डल यानी स्ट्रेटोस्फियर कहते हैं, में ओजोन गैस 15 से 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर प्राकृतिक रूप से काफी अधिक सघनता में पाई जाती है।
यह इतनी सघन है कि वायुमंडल में पाई जाने वाली 90 फीसदी से अधिक ओजोन यही मौजूद है। इसी को ओजोन परत के रूप में जाना जाता है। हालांकि इस परत की मोटाई, जगह और मौसम के हिसाब से बदलती रहती है।
यह परत पृथ्वी के लिए एक छतरी की तरह काम करती है, जो सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी यानी अल्ट्रा वायलेट किरणों को सोख लेती है। इस तरह पृथ्वी पर पराबैंगनी रहित विकिरण ही पहुंच पाता है। बता दें कि यह पराबैंगनी किरणें मनुष्यों सहित दूसरे जीवों पौधों के लिए बेहद हानिकारक होती हैं।
1985 में, वैज्ञानिकों को अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में एक "छिद्र" का पता चला था, जो हर साल सितंबर से दिसंबर के बीच दिखाई देता है। इस छिद्र की वजह से कहीं ज्यादा पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंच रही हैं, जिससे त्वचा संबंधी कैंसर और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है।
क्या 2035 तक 'गायब' हो जाएगा ओजोन छिद्र
1980 तक ओजोन परत में गिरावट आने की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी थी। साल 1985 में पहली बार ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वेक्षण में अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत के बड़े स्तर पतले होने का पता चला, जिसे ओजोन "छिद्र" का नाम दिया गया।
1986 में, वैज्ञानिक सुसान सोलोमन ने अंटार्कटिका की यात्रा का नेतृत्व किया ताकि यह समझा जा सके कि ओजोन छिद्र किस वजह से बन रहा है। जहां उनकी टीम ने जल्दी ही यह पता लगा लिया कि बढ़ते ओजोन छिद्र के पीछे क्लोरोफ्लोरोकार्बन या सीएफसी का हाथ है।
सीएफसी एक ऐसा केमिकल है, जिसका उपयोग रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर और स्प्रे कैन आदि में इस्तेमाल किया जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक जब यह केमिकल्स समताप मंडल में ऊपर की ओर बढ़ते हैं, तो वे कुछ मौसमी परिस्थितियों में ओजोन को तोड़ सकते हैं।
अगले वर्ष, इस खोज के फलस्वरूप मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का मसौदा तैयार किया गया। यह एक अंतर्राष्ट्रीय संधि थी जिसका उद्देश्य ओजोन छिद्र को भरने की आशा में सीएफसी और अन्य हानिकारक रसायनों के उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना था।
2016 में, सुसान ने एक अध्ययन का नेतृत्व किया, जिसमें दिखाया गया कि ओजोन छिद्र सिकुड़ रहा है, खासकर सितंबर में जब यह आमतौर पर खुलता है। लेकिन अध्ययन पूरी तरह से साबित नहीं कर सका कि यह हानिकारक रसायनों को कम करने के प्रयासों या एल नीनो, ला नीना या ध्रुवीय भंवर जैसे प्राकृतिक मौसम परिवर्तनों के कारण था।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने भी पुष्टि की है कि ओजोन परत में धीरे-धीरे ही सही लेकिन लगातार सुधार आ रहा है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की भूमिका को अहम माना है। डब्ल्यूएमओ द्वारा साझा की गई जानकारी के मुताबिक मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल और उसमें समय-समय पर किए संशोधनों की मदद से ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों के उपयोग को 99 फीसदी तक सीमिति किया जा सका है।
अपने नए अध्ययन में, एमआईटी वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिक ओजोन में आई बहाली के कारणों को समझने के लिए "फिंगरप्रिंटिंग" नामक वैज्ञानिक विधि का उपयोग किया। फिंगरप्रिंटिंग के उपयोग से इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं कि हानिकारक केमिकल्स को कम करने के इंसानी प्रयास ओजोन छिद्र को दुरुस्त करने में मदद कर रहे हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता क्लॉस हैसलमैन द्वारा विकसित यह तकनीक मौसम में आए प्राकृतिक बदलावों से मानव-कारण प्रभावों को अलग करने में मदद करती है। वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए पहले भी इसका उपयोग किया है।
अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों वायुमंडल के सिमुलेशन से शुरुआत की। इसके लिए उन्होंने कंप्यूटर मॉडल का भी उपयोग किया है। उन्होंने अलग-अलग परिदृश्य तैयार किए। उदाहरण के लिए यदि दुनिया से हानिकारक केमिकल्स को हटा दिया जाए।
दूसरे में उन्होंने ग्रीन हाउस गैसों को जोड़ा, जबकि तीसरे परिदृश्य में उन्होंने कोई बदलाव नहीं किए। इन सिमुलेशन से उन्हें यह समझने में मदद मिली कि क्या ओजोन "छिद्र" लोगों के प्रयासों से भर रहा है या इसमें प्राकृतिक मौसम में आते बदलावों की वजह से रिकवरी हो रही है।
वैज्ञानिकों ने यह देखने के लिए इन सिमुलेशन की तुलना की है कि अंटार्कटिका के समताप मंडल में ओजोन मौसम और आकाश में अलग-अलग ऊंचाइयों पर कैसे बदलती है। इस दौरान कई वर्षों तक, उन्होंने ट्रैक किया कि कब, कहां ओजोन के स्तर में सुधार आया। इससे उन्हें एक विशेष पैटर्न को खोजने में मदद मिली, जो दर्शाता है कि यह सुधार मुख्य रूप से हवा में हानिकारक केमिकल्स की गिरावट के कारण आया था।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2005 से लेकर अब तक उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों की भी जांच की है। उनका मकसद यह समझना था कि जो पैटर्न अध्ययन में सामने आया है क्या वो ओजोन छिद्र में भी दिखाई देता है या नहीं।
उन्होंने पाया कि अध्ययन में भी वही पैटर्न सामने आया है। वहीं समय के साथ यह पैटर्न कहीं ज्यादा स्पष्ट होता गया। 2018 तक यह पैटर्न सबसे ज्यादा मजबूत था। उन्हें 95 फीसदी यकीन था कि ओजोन छिद्र सिकुड़ रहा है, क्योंकि लोगों ने हानिकारक रसायनों का उपयोग कम कर दिया है।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यदि यह प्रवत्ति जारी रहती है और ओजोन परत की रिकवरी का पैटर्न मजबूत होता है, तो जल्द ही एक ऐसा साल आएगा, जब ओजोन परत पूरी तरह स्वस्थ हो जाएगी। इसके साथ ही ओजोन छिद्र हमेशा के लिए बंद हो जाएगा।
सुसान के मुताबिक 2035 तक, हम एक ऐसा साल देख सकते हैं जब अंटार्कटिका में ओजोन छिद्र पूरी तरह गायब हो जाएगा। उनका कहना है कि "यह बेहद रोमांचक है कि आप लोग ओजोन छिद्र को पूरी तरह से गायब होते हुए देखेंगे और यह लोगों के प्रयासों की बदौलत मुमकिन होगा।"