अंतरिक्ष तक पहुंचा धरती पर बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड का संकट

स्टडी से पता चला है कि बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड की वजह से ऊपरी वायुमंडल का ठंडा होना सैटेलाइट की कक्षा और रेडियो संचार को प्रभावित कर सकता है
प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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सारांश
  • जापान के क्यूशू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड से न केवल जलवायु में बदलाव हो रहे हैं, बल्कि यह ऊपरी वायुमंडल में रेडियो तरंगों को भी प्रभावित कर रहा है।

  • इससे शॉर्टवेव रेडियो संचार में बाधा आ सकती है, जो हवाई यातायात और समुद्री संचार के लिए खतरनाक हो सकता है।

  • वैज्ञानिकों ने पाया है कि जहां कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने से धरती की सतह पर गर्मी बढ़ रही है। वहीं धरती से करीब 100 किलोमीटर ऊपर स्थित आयनमंडल में इसका उल्टा प्रभाव पड़ रहा है, वहां तापमान घट रहा है।

धरती पर बढ़ते तापमान का असर अब केवल हमारे मौसम या समुद्र तक सीमित नहीं रहा, यह उससे आगे अंतरिक्ष तक पहुंच गया है।

जापान के क्यूशू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ₂) के बढ़ते स्तर से न केवल जलवायु में बदलाव आ रहे हैं, बल्कि यह ऊपरी वायुमंडल में रेडियो तरंगों को भी प्रभावित कर रहा है।

इससे आने वाले समय में शॉर्टवेव रेडियो संचार जैसे हवाई यातायात नियंत्रण, समुद्री संचार और रेडियो प्रसारण में बाधा आ सकती है।

वैज्ञानिकों ने पाया है कि जहां कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने से धरती की सतह पर गर्मी बढ़ रही है। वहीं धरती से करीब 100 किलोमीटर ऊपर स्थित आयनमंडल में इसका उल्टा प्रभाव पड़ रहा है, वहां तापमान घट रहा है। यह ठंडक भले सुनने में अच्छी लगे, लेकिन इसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं।

अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर हुइक्सिन लियू का इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, “ऊपरी वायुमंडल के ठंडा होने से वहां हवा का घनत्व कम हो जाता है। इससे हवा हल्की होकर तेज बहने लगती है। यह बदलाव सैटेलाइट और अंतरिक्ष में मंडरा रहे मलबे की गति को प्रभावित करते हैं, जिससे सैटेलाइट की उड़ान और उसकी उम्र पर असर पड़ सकता है। साथ ही, इसकी वजह से पैदा होने वाले छोटे-छोटे प्लाज्मा विकारों के कारण रेडियो संकेतों में भी रुकावटें आ सकती हैं।“

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ऐसी ही एक गड़बड़ी को ‘स्पोरैडिक-ई’ कहा जाता है। यह एक ऐसी परत होती है जो धरती से 90 से 120 किलोमीटर ऊपर बनती है और इसमें धात्विक आयनों की अधिकता होती है। प्रोफेसर लियू के मुताबिक जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, यह परत अचानक बनती है और इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है। लेकिन जब यह बनती है, तो इसकी वजह से एचएफ और वीएचएफ रेडियो संचार में रुकावट आ सकती है।

कितना खतरनाक है बढ़ता उत्सर्जन

अध्ययन में पाया गया कि जब वायुमंडल में सीओ₂ की मात्रा बढ़ती है, तो यह परत और घनी और सक्रिय हो जाती है। इसके साथ ही यह निचली ऊंचाई पर बनने लगती है और रात में अधिक समय तक टिकी रहती है।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने वायुमंडल का एक सिमुलेशन मॉडल तैयार किया है। इसकी मदद से उन्होंने ऊपरी वायुमंडल में आने वाले बदलावों का अध्ययन किया है। अपने इस मॉडल में उन्होंने दो परिस्थितियों में तुलना की है, एक परिदृश्य में जब कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 315 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) और दूसरे में इसका स्तर 667 पीपीएम था। गौरतलब है कि 2024 में वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का औसत स्तर 422.8 पीपीएम रिकॉर्ड किया गया था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने यह समझने का प्रयास किया कि इन बदलावों से स्पोरैडिक-ई परत को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया, जिसे ‘वर्टिकल आयन कनवर्जेन्स’ कहा जाता है, उसमें किस तरह से बदलाव आता है। इसके जो नतीजे सामने आए हैं वे बेहद चौंकाने वाले थे।

अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि वातावरण में सीओ2 का स्तर बढ़ने से 100 से 120 किलोमीटर की ऊंचाई पर वर्टिकल आयन कनवर्जेन्स प्रक्रिया पूरी दुनिया में और तेज हो जाती है। साथ ही, स्पोरैडिक-ई परतें करीब 5 किलोमीटर नीचे खिसक जाती हैं और उनका दिन-रात का पैटर्न भी बदल जाता है। आगे की जांच में पाया गया कि ये बदलाव ऊपरी वायुमंडल की हवा के कम घनत्व और तेज हवा की गड़बड़ियों की वजह से होते हैं।

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प्रोफेसर लियू के मुताबिक, “यह पहला शोध है जो दर्शाता है कि किस तरह बढ़ता सीओ₂ का स्तर आयनमंडल में सूक्ष्म बदलाव ला सकता है। इसका असर सैटेलाइट, रेडियो तरंगों और संचार प्रणालियों तक पहुंच सकता है।“

सरल शब्दों में कहें तो, जलवायु परिवर्तन अब अंतरिक्ष में होने वाली सूक्ष्म प्रक्रियाओं को भी प्रभावित कर रहा है।

प्रोफेसर लियू का कहना है, “अब समय आ गया है कि दूरसंचार उद्योग अपनी भविष्य की योजनाओं में जलवायु परिवर्तन के इन प्रभावों को भी शामिल करे, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग का असर अब महज धरती तक सीमित नहीं रहा, यह अंतरिक्ष तक फैल चुका है।“

इस अध्ययन के नतीजे जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुए हैं।

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