
वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा। ऐसा ही कुछ पिछले महीने मई में भी दर्ज किया गया, जब वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ₂) का स्तर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया। हवाई की मौना लोआ ऑब्जर्वेटरी में वैज्ञानिकों ने पाया कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का मौसमी स्तर बढ़कर 430 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) से ज्यादा हो गया है।
यह जानकारी नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, सैन डिएगो के स्क्रिप्स ओशियानोग्राफी संस्थान के वैज्ञानिकों ने दी है। गौरतलब है कि यह मौना लोआ ऑब्जर्वेटरी वातावरण में मौजूद सीओ2 की निगरानी के लिए दुनिया की सबसे अहम जगह मानी जाती है।
स्क्रिप्स ओशियानोग्राफी के वैज्ञानिकों ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि मई 2025 के दौरान हवा में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत मात्रा 430.2 पीपीएम रही, जो मई 2024 की तुलना में 3.5 पीपीएम अधिक है।
वहीं, नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वैज्ञानिकों ने 430.5 पीपीएम का औसत दर्ज किया, जो पिछले साल से 3.6 पीपीएम अधिक है।
देखा जाए तो कहीं न कहीं वातावरण में बढ़ता कार्बन डाइऑक्साइड का यह स्तर मानवता के लिए बड़े खतरे की घंटी है। बता दें कि इससे पहले मई 2023 में भी सीओ₂ के बढ़ते स्तर ने पिछले आठ लाख वर्षों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया था। बता दें कि मई 2023 में वातावरण में मौजूद सीओ2 का स्तर 424 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) पर पहुंच गया था।
फटने को तैयार ‘कार्बन टाइम बम्ब’
देखा जाए तो यह कोई पहला मौका नहीं है जब कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में इस तरह से वृद्धि हो रही है। इससे पहले भी मई 2021 में महामारी के बावजूद सीओ2 का औसत मासिक स्तर 419.13 पीपीएम पर पहुंच गया था। वहीं मई 2020 में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 417.1 पीपीएम रिकॉर्ड किया गया था।
इस बारे में स्क्रिप्स सीओ₂ प्रोग्राम के प्रमुख राल्फ कीलिंग ने कहा, "हर साल नया रिकॉर्ड बन रहा है, यह चिंता की बात है।"
मौना लोआ ऑब्जर्वेटरी की बात करें तो यह समुद्र तल से 11,141 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और यह उत्तरी गोलार्ध के औसत वातावरण का सबसे सटीक प्रतिबिंब देती है। यहां सीओ₂ की निगरानी 1958 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डेविड कीलिंग ने शुरू की थी। उन्होंने पहली बार यह दिखाया कि सीओ₂ का स्तर हर साल मई में चरम पर पहुंचता है, फिर गर्मियों में पौधों के कारण घटता है, और पतझड़ में दोबारा बढ़ता है। यही आंकड़े कीलिंग कर्व के नाम से जाने जाते हैं।
हालांकि प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक दक्षिणी गोलार्ध में स्थित स्टेशनों ने अभी तक 430 पार्ट्स प्रति मिलियन के स्तर को पार नहीं किया है। वहां सीओ₂ का मौसमी चक्र भी उल्टा है। यदि पिछले आंकड़ों को देखें तो वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर औद्योगिक काल के शुरूआत की तुलना में अब 50 फीसदी तक बढ़ चुका है।
बता दें कि इंसानों द्वारा उत्सर्जित की जा रही ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड एक प्रमुख गैस है, जोकि उत्सर्जन के बाद हजारों वर्षों तक वातावरण और महासागरों में बनी रह सकती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक हम हर साल वातावरण में करीब 4,000 करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ रहे हैं, जो हमारे वातावरण को दूषित कर रही है।
अपने विनाश के लिए इंसान ही जिम्मेवार
विशेषज्ञों के अनुसार, वनों के हो रहे विनाश, सीमेंट, कृषि, परिवहन, बिजली सहित अन्य उद्योगों के लिए जीवाश्म ईंधनों (कोयला, पेट्रोल, डीज़ल आदि) पर बढ़ती निर्भरता वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के लिए जिम्मेवार है।
अन्य ग्रीनहाउस गैसों की तरह कार्बन डाइऑक्साइड भी काम करती है। यह वातावरण में गर्मी को एक कंबल की तरह रोक लेती है और उसे वापस अंतरिक्ष में नहीं जाने देती। इससे पृथ्वी की सतह का तापमान लगातार बढ़ता रहता है। तापमान में होने वाला यह इजाफा जलवायु परिवर्तन के साथ चरम मौसमी घटनाओं को भी जन्म दे रहा है।
इससे जहां मौसम और बारिश का पैटर्न बदल रहा है। वहीं लू, सूखा, जंगलों में आग, भारी बारिश और बाढ़ जैसी चरम घटनाएं भी बढ़ रहीं हैं। इतना ही नहीं वातवरण में कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता स्तर समुद्रों को भी नुकसान पहुंचा रहा है।
यह समुद्र के पानी को पहले से कहीं ज्यादा अम्लीय बना देता है, जिससे झींगे, शंख, सीप और मूंगे जैसे जीवों के लिए अपने मजबूत खोल या कंकाल को बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। इन सबकी वजह से समुद्र में ऑक्सीजन की मात्रा घट रही है, जिसका असर समुद्री जीवों की वृद्धि और जीवन चक्र पर पड़ रहा है।
देखा जाए तो यह नुकसान किसी एक प्रजाति तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरा समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र इसकी चपेट में आ चुका है।
इसका असर साफ तौर पर बढ़ते तापमान पर भी देखा जा सकता है। यही वजह है दुनिया में बढ़ता तापमान नित नए रिकॉर्ड बना रहा है। ऐसे में हम यदि अब भी नहीं चेते तो आने वाली नस्लों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।