
जलवायु आपदाओं का व्यक्तिगत अनुभव लोगों को जलवायु परिवर्तन को गंभीर खतरे के रूप में देखने के लिए प्रेरित करता है।
हीटवेव का अनुभव शिक्षा जितना प्रभावशाली कारण बन गया है जलवायु जोखिम को समझने में।
हर देश में अनुभव और सोच का सीधा संबंध नहीं दिखता – मीडिया, राजनीति और संस्कृति अहम भूमिका निभाते हैं।
दक्षिण अमेरिका में सबसे अधिक चिंता, जबकि यूरोप में सबसे कम अनुभव और चिंता देखी गई।
व्यक्तिगत अनुभव एक मनोवैज्ञानिक 'गेटवे' की तरह काम करता है, जिससे जलवायु परिवर्तन की सच्चाई सामने आती है।
आज दुनिया भर में बाढ़, सूखा, लू या हीटवेव और जंगलों में आग जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। वैज्ञानिक इसे जलवायु परिवर्तन का परिणाम मानते हैं। लेकिन क्या आम लोग भी इसे उतनी ही गंभीरता से लेते हैं? हाल ही में एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय के एक शोध में यह जानने की कोशिश की गई कि क्या जो लोग इन आपदाओं को खुद झेलते हैं, वे जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा चिंतित होते हैं।
शोध में कहा गया है कि शोधकर्ताओं ने 142 देशों के 1.28 लाख से ज्यादा लोगों से बातचीत की। यह आंकड़े 2023 में लॉयड्स रजिस्टर फाउंडेशन और गैलप द्वारा किए गए “विश्व जोखिम सर्वेक्षण” से लिए गए हैं।
एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित शोध का मुख्य सवाल था क्या जलवायु आपदाओं का व्यक्तिगत अनुभव किसी व्यक्ति की जलवायु परिवर्तन को लेकर धारणा को बदलता है?
क्या कहते हैं शोध के निष्कर्ष?
1. व्यक्तिगत अनुभव से बढ़ती है गंभीरता की भावना
जिन लोगों ने पिछले पांच सालों में बाढ़, हीटवेव या सूखा जैसी घटनाओं का अनुभव किया, वे जलवायु परिवर्तन को बहुत गंभीर खतरा मानते हैं। यह फर्क उन्हीं देशों में देखा गया जहां कुछ लोगों ने आपदा झेली थी और कुछ ने नहीं। यानी, एक ही देश में, जिन्होंने आपदा झेली, वे दूसरों की तुलना में अधिक चिंतित थे।
2. हीटवेव का असर सबसे ज्यादा
अध्ययन में पाया गया कि हीटवेव का अनुभव लोगों के सोचने के तरीके को बदलने में उच्च शिक्षा जितना प्रभावशाली था। शिक्षा को अब तक जलवायु चेतना का सबसे मजबूत कारक माना जाता रहा है। लेकिन हीटवेव का अनुभव भी लोगों को उतनी ही गंभीरता से सोचने पर मजबूर करता है।
3. हर देश में असर एक जैसा नहीं
हालांकि व्यक्तिगत अनुभव लोगों की सोच को बदलते हैं, पर इसका मतलब यह नहीं कि जिन देशों में ज्यादा आपदाएं आती हैं, वहाँ लोग ज्यादा चिंतित हैं।
उदाहरण के लिए बाढ़ दुनिया की सबसे आम आपदा है, लेकिन कई ऐसे देश हैं जहां अक्सर बाढ़ आती है, फिर भी वहां के लोग जलवायु परिवर्तन को बहुत गंभीर खतरा नहीं मानते। इससे साफ है कि राजनीति, मीडिया और सांस्कृतिक सोच यह तय करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं कि लोग अपने अनुभवों को कैसे समझते हैं।
क्षेत्रीय अंतर
दक्षिण अमेरिका में जहां 75 फीसदी से ज्यादा लोगों ने कहा कि जलवायु परिवर्तन एक गंभीर खतरा है।
यूरोप में लगभग 50 फीसदी लोगों ने इसे गंभीर माना।
ओशिनिया (ऑस्ट्रेलिया और आसपास के क्षेत्र) में जहां सबसे ज्यादा लोगों ने कहा कि उन्होंने किसी न किसी आपदा का अनुभव किया है।
यूरोप में सबसे कम लोगों ने कहा कि उन्होंने ऐसी कोई आपदा झेली है।
शोध पत्र में शोधकर्ताओं के हवाले से कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति खुद किसी बाढ़ या हीटवेव से गुजरता है, तो जलवायु परिवर्तन उसके लिए एक निजी और वास्तविक खतरा बन जाता है। यह अनुभव एक "मनोवैज्ञानिक द्वार" की तरह काम करता है, जो जलवायु परिवर्तन को सिर्फ एक वैज्ञानिक या राजनीतिक मुद्दा नहीं रहने देता, बल्कि उसे व्यक्तिगत समस्या बना देता है।
क्या यह अनुभव काफी है?
हालांकि आपदाएं लोगों की सोच बदल सकती हैं, लेकिन यह बदलाव राष्ट्रीय स्तर पर नीति या सामूहिक कार्रवाई में तब्दील नहीं होता, जब तक कि मीडिया सही जानकारी न दे, नेता जनता को जागरूक न करें और सांस्कृतिक रूप से इसकी गंभीरता को समझा न जाए।
क्यों अहम है यह शोध?
यह अध्ययन अब तक का सबसे बड़ा वैश्विक अध्ययन है, जो यह दिखाता है कि लोग जलवायु परिवर्तन को कैसे समझते हैं। इससे नीति-निर्माताओं को यह समझने में मदद मिलेगी कि केवल आपदाएं आने से लोग जागरूक नहीं हो जाते, बल्कि उन्हें समझाने और जोड़ने की भी जरूरत है।
इस शोध से हमें यह सिखने को मिलता है कि जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को समझाने के लिए आंकड़ों से ज्यादा प्रभावशाली होता है व्यक्तिगत अनुभव। लेकिन यह अनुभव तब ही सामाजिक परिवर्तन में बदलता है जब राजनीतिक नेतृत्व, मीडिया और शिक्षा मिलकर लोगों को सच से जोड़ें।
जलवायु परिवर्तन कोई दूर की बात नहीं है। यह हमारे आस-पास और हमारे जीवन में हो रहा बदलाव है। हमें अपने अनुभवों से सीखकर इसे समझने और इसके खिलाफ कार्य करने की जरूरत है।