ओजोन परत पर मंडरा रहा नया खतरा, महंगी पड़ सकती है 'स्पेस रेस'

वैज्ञानिकों ने चेताया है कि अंतरिक्ष पर वर्चस्व की बढ़ती जंग धरती की सुरक्षा ढाल के लिए खतरा बन रही है
फोटो: आईस्टॉक
फोटो: आईस्टॉक
Published on

पृथ्वी को सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी (अल्ट्रावायलेट) किरणों से बचाने वाली ओजोन परत अब एक नई चुनौती से जूझ रही है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि तेजी से बढ़ते रॉकेट लॉन्च ओजोन परत की मरम्मत में रुकावट बन सकते हैं। हालांकि इसके बावजूद इस खतरे को अब तक गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।

गौर करने वाली बात यह है कि इन रॉकेटों से हो रहे प्रदूषण के ओजोन परत पर पड़ने वाले प्रभाव की पहचान करीब तीन दशक पहले ही हो चुकी है, लेकिन उस समय इसे मामूली समझकर नजरअंदाज कर दिया गया। लेकिन अब जिस तरह से अंतरिक्ष पर वर्चस्व के लिए जिस तरह से रॉकेट लॉन्च किए जा रहे हैं, उसने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है।

अंतरिक्ष पर वर्चस्व की बढ़ती भूख से बढ़ रही चिंताएं

अध्ययन में साझा किए आंकड़ों पर नजर डालें तो 2019 में वैश्विक स्तर पर महज 97 रॉकेट लॉन्च किए गए जो अंतरिक्ष की कक्षा तक पहुंचे थे, लेकिन 2024 में यह संख्या बढ़कर 258 पर पहुंच गई। आशंका है कि 2030 तक यह आंकड़ा बढ़कर 2,000 को पार कर सकता है।

देखा जाए तो पिछले कुछ वर्षों में अंतरिक्ष उद्योग के तेजी से फलने-फूलने के कारण धरती के चारों ओर सैकड़ों सैटेलाइट्स की भीड़ लग गई है। भले ही यह विकास तकनीकी रूप से रोमांचक लग सकता है, लेकिन चिंता की बात है कि इससे जुड़े पर्यावरण से जुड़े खतरे भी लगातार बढ़ रहे हैं।

यह भी पढ़ें
अंतरिक्ष पर वर्चस्व की जंग जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से कितनी खतरनाक
फोटो: आईस्टॉक

वैज्ञानिको के मुताबिक रॉकेट लॉन्च और अंतरिक्ष में पसरे मलबे के वापस वायुमंडल (मिडल एटमॉस्फियर) में प्रवेश करने से ऐसे प्रदूषक निकलते हैं जो लंबे समय तक वहां बने रहते हैं। यह प्रदूषक ओजोन परत को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह वही परत है जो पृथ्वी को हानिकारक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है।

अध्ययन के मुताबिक वायुमंडल की मध्य और ऊपरी परतों में रॉकेट और वापस गिरते अंतरिक्ष मलबे से निकलने वाले प्रदूषक जमीनी प्रदूषण की तुलना में 100 गुणा अधिक समय तक टिके रहते हैं, क्योंकि वहां उन्हें साफ करने वाली प्रक्रियाएं जैसे बादलों की बारिश मौजूद नहीं होतीं। हालांकि ज्यादातर लॉन्च उत्तरी गोलार्ध में होते हैं, लेकिन वायुमंडलीय हवाएं इन प्रदूषकों को पूरी दुनिया में फैला देती हैं।

यह अध्ययन ईटीएच ज्यूरिख और यूनिवर्सिटी ऑफ कैंटरबरी के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जलवायु-रासायनिक मॉडल की मदद से 2030 तक बढ़ते रॉकेट उत्सर्जन के प्रभावों का अध्ययन किया है। इस बारे में जारी उनके निष्कर्ष दर्शाते हैं कि अगर लॉन्च की संख्या आठ गुणा बढ़ती है, तो ओजोन परत की मोटाई में वैश्विक स्तर पर 0.3 फीसदी की गिरावट आ जाएएगी, जो अंटार्कटिका जैसे क्षेत्रों में बढ़कर 4 फीसदी तक जा सकती है।

गौरतलब है कि ओजोन परत अभी भी पुराने प्रदूषकों जैसे सीएफसीएस से उबरने की कोशिश कर रही है। उम्मीद है कि यह परत 2066 तक पूरी तरह ठीक हो सकती है। लेकिन रॉकेट प्रदूषण से जुड़े यह खतरे इस रिकवरी को सालों या दशकों तक के लिए टाल सकते हैं।

यह भी पढ़ें
क्लोरोफ्लोरोकार्बन में गिरावट के कारण भर रही है धरती के 'सुरक्षा कवच' में आई दरार
फोटो: आईस्टॉक

ईंधन और तकनीक का भी असर

जर्नल नेचर क्लाइमेट एंड एटमोस्फियरिक साइंस में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चला है कि रॉकेटों से निकलने वाला क्लोरीन और कालिख (सूट) ओजोन को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। क्लोरीन रासायनिक रूप से ओजोन को तोड़ता है और कालिख वातावरण को गर्म करके इन प्रतिक्रियाओं को तेज कर देती है।

फिलहाल सिर्फ क्रायोजेनिक ईंधन (तरल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) का इस्तेमाल करने वाले रॉकेट ही सुरक्षित माने जाते हैं, लेकिन इनकी संख्या महज छह फीसदी ही है।

जब सैटेलाइट अपनी उम्र पूरी कर लेते हैं, तो वे वायुमंडल में जलते हुए वापस गिरते हैं। इस दौरान धातु के कण और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसें निकलती हैं, जो ओजोन परैत को और नुकसान पहुंचाते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इन प्रभावों को अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है।

क्या है समाधान?

अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि रॉकेट प्रदूषण को नियंत्रित करना संभव है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हानिकारक ईंधन का उपयोग कम से कम किया जाए। इसके साथ ही साफ और बेहतर ईंधन पर आधारित तकनीकों को बढ़ावा दिया जाए। इनसे जुड़े अंतरराष्ट्रीय नियमों पर भी ध्यान देना जरूरी है।

वैकल्पिक और पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों को बढ़ावा दिया जाए भी अहम है। इसी तरह वैज्ञानिक, नीति-निर्माताओं और अंतरिक्ष उद्योग को इस समस्या से उबरने के लिए मिलकर प्रयास करने चाहिए।

यह भी पढ़ें
अंतरिक्ष से धरती पर गिरती है हर साल करीब 5,200 टन धूल
फोटो: आईस्टॉक

1989 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने यह साबित कर दिखाया था कि वैश्विक सहयोग सीएफसी जैसे प्रदूषकों को नियंत्रित कर ओजोन को बचाया जा सकता है। लेकिन अब जब हम नए अंतरिक्ष युग में प्रवेश कर रहे हैं, तो इसी तरह की दूरदर्शिता और एकजुटता की जरूरत है, ताकि पृथ्वी की इस सुरक्षा ढाल को बचाया जा सके।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in