16 वर्षों में बढ़ते तापमान का सामना करने को मजबूर होंगें 200 करोड़ से ज्यादा शहरी: यूएन हैबिटेट

शहरों में तेजी से सिकुड़ रहे हैं हरे भरे इलाके, 1990 में दुनिया के शहरों में इन क्षेत्रों की हिस्सेदारी 19.5 फीसदी थी, जो 2020 में घटकर महज 13.9 फीसदी रह गई है
16 वर्षों में बढ़ते तापमान का सामना करने को मजबूर होंगें 200 करोड़ से ज्यादा शहरी: यूएन हैबिटेट
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संयुक्त राष्ट्र संगठन यूएन-हैबिटेट ने अपनी नई रिपोर्ट में चेताया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते 2040 तक शहरों में रह रहे 200 करोड़ से ज्यादा लोगों को तापमान में कम से कम 0.5 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि का सामना करना पड़ सकता है।

“वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट 2024” नामक यह रिपोर्ट वर्ल्ड अर्बन फोरम के दौरान जारी की गई है। इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन और तेजी से पैर पसारते शहरों से उत्पन्न होने वाली गंभीर चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है।

रिपोर्ट के मुताबिक अगले कुछ वर्षों में करोड़ों लोगों को न केवल बढ़ते तापमान बल्कि बाढ़, लू, सूखा, जल संकट जैसी कई समस्याओं से जूझना होगा।

रिपोर्ट का कहना है कि जहां यह शहर जलवायु परिवर्तन में बहुत ज्यादा योगदान देते हैं, वहीं इससे बेहद प्रभावित भी होते हैं। यह शहर ग्रीनहाउस गैसों के हो रहे उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा पैदा कर रहे हैं।

दुनिया के कई बड़े शहर ऐसे हैं जो लाखों लोगों को आवास प्रदान करते हैं, हालांकि उनपर साल दर साल जोखिम गहराता जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक जैसे-जैसे शहर बढ़ते हैं, वे जलवायु से जुड़ी आपदाओं के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील होते जाते हैं। जो भविष्य में गंभीर समस्याओं का कारण बन सकती हैं।

इस बारे में यूएन-हैबिटेट की कार्यकारी निदेशक एनाक्लॉडिया रॉसबाख ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से जानकारी दी है कि कोई भी शहरी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएगा। करोड़ों लोगों को बढ़ते तापमान या जलवायु से जुड़ी अन्य समस्याओं से जूझना पड़ेगा।

उनके मुताबिक दुनिया में आवास को लेकर गहराता संकट 300 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। शहरों में बेघरों की संख्या को सीमित करने और झुग्गी बस्तियों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए सबको मिलकर प्रयास करने होंगें।

उन्होंने ध्यान दिलाया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से जैसी समस्याएं पैदा हुई हैं, उसके अनुरूप शहरों में कार्रवाई नहीं हो पा रही। ऐसे में नाज़ुक हालातों और जोखिमों में रहने को मजबूर लोगों को हर दिन विषमताओं से जूझना पड़ता है।

उनके मुताबिक झुग्गी बस्तियों और अवैध कॉलोनियां आमतौर पर ऐसे इलाकों में स्थित होती हैं, जो पर्यावरण के दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील होते हैं। इन क्षेत्रों में आपदाओं से बचाव के लिए बुनियादी ढांचे का आभाव होता है। ऐसे में अक्सर जलवायु सम्बन्धी आपदाओं या चरम घटनाओं का खामियाजा यहां रहें वाले आम लोगों को भुगतना पड़ता है।

उनका आगे कहना है कि यह समुदाय, न केवल खतरे की जद में रहते हैं, बल्कि आपदा के बाद उन्हें समर्थन मिलने की सम्भावना भी कम होती है। ऐसे में उन्होंने इन झुग्गी झोपड़ियों और अवैध कॉलोनियां का कायापलट करने और शहरों में बेहद संवेदनशील क्षेत्रों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दिए जाने का आग्रह किया है।

बड़ी समस्या को उजागर करते हैं शहरों में घटते हरे भरे क्षेत्र

रिपोर्ट में शहरों के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए मौजूद धनराशि और वित्तीय आवश्यकतों के बीच की खाई को भी उजागर किया गया है।

एक अनुमान के मुताबिक शहरों को सालाना साढ़े चार से 5.4 लाख करोड़ डॉलर की दरकार है, ताकि जलवायु संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिए व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सके। हालांकि उन्हें अभी महज 83,100 करोड़ डॉलर मिल रहे हैं, जो उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए बेहद कम हैं।

इसके कारण शहरों में कमजोर तबके और बेहद संवेदनशील हालातों में रहने को मजबूर लोगों के जोखिम की चपेट में आने की आशंका काफी बढ़ जाती है।

रिपोर्ट के मुताबिक तेजी से फैलते शहरों और उनका उचित प्रबंधन न किए जाने का खामियाजा हरे-भरे क्षेत्रों को भुगतना पड़ रहा है। यह इलाके तेजी से सिकुड़ रहे हैं और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल पनप रहे हैं। इसकी वजह से भी कई समस्याएं पैदा हो रही हैं।

आंकड़ों पर नजर डाले तो दुनिया के शहरों में हरे भरे क्षेत्रों की हिस्सेदारी 1990 में औसतन 19.5 फीसदी थी, जो 2020 में घटकर महज 13.9 फीसदी रह गई है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी चिंता जताई है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जिन उपायों को लागू किया जा रहा है वे या तो कमजोर तबके को बचाने में विफल साबित हो रहे हैं या फिर स्थिति बद से बदतर हुई है।

उदाहरण के लिए जब किसी क्षेत्र में पार्क आदि को बनाया जाता है तो अक्सर उसपर बसी बस्तियों में रहने वाले कमजोर परिवारों को विस्थापित होने को मजबूर होना पड़ता है, या फिर इन क्षेत्रों में संपत्ति की कीमत बढ़ जाने से उनके लिए वहां रहना कठिन हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है मजबूत निवेश और स्मार्ट योजना के साथ, शहरों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने, जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढलने और शहरी आबादी को सतत समर्थन देने की अपार क्षमता है। हालांकि इसके लिए साहसिक निवेश, कारगर योजनाओं व डिजाइन की दरकार होगी।

उनके मुताबिक सैकड़ों शहरों में समावेशी हरित क्षेत्रों का निर्माण हो रहा है, स्मार्ट योजनाओं के जरिए उत्सर्जन में कटौती के प्रयास किए जा रहे हैं और परिवहन समेत अन्य सेवाओं में अक्षय ऊर्जा का उपयोग बढ़ रहा है।

गौरतलब है कि तेजी से बढ़ते शहरों के बीच, किस तरह सुरक्षित और बेहतर शहरी वातावरण सुनिश्चित किया जा सकता है, ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब तलाशने के लिए वर्ल्ड अर्बन फोरम 2024 का आगाज मिस्र के काहिरा शहर में हो चुका है। चार से आठ नवंबर 2024 तक चलने वाली इस फोरम में शहरों से जुड़े कई मुद्दों पर चर्चा होगी।

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