जलवायु आपदाओं और संघर्ष के बीच पहली बार 10 करोड़ के पार पहुंचा विस्थापितों का आंकड़ा

जलवायु में आते बदलावों के चलते अगले 28 वर्षों में करीब 21.6 करोड़ लोगों को अपनी मौजूदा जिंदगी, जीविका और घरों को छोड़ सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है
बलूचिस्तान के एक शरणार्थी शिविर में बाढ़ से विस्थापित हुए बच्चे; फोटो: मुन्नेर मारी, यूएनडीपी पाकिस्तान
बलूचिस्तान के एक शरणार्थी शिविर में बाढ़ से विस्थापित हुए बच्चे; फोटो: मुन्नेर मारी, यूएनडीपी पाकिस्तान
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इस साल जब पाकिस्तान में रिकॉर्ड मानसूनी बारिश हुई तो उसके चलते आई बाढ़ में देश का एक तिहाई हिस्सा डूब गया। इस बाढ़ में शहजादी ने अपना सब कुछ खो दिया। मजबूरन बेघर होकर शहजादी को एक शरणार्थी शिविर में बसेरा लेना पड़ा। उन्होंने अपनी तकलीफों का जिक्र करते हुए बताया कि, “शिविर में खाना और सिर छुपाने की जगह तो मिली, लेकिन अब सर्दियों में उनके बच्चों को गर्म कपड़ों और कंबल की जरूरत है।“  

ऐसा ही कुछ हाल रिक्शा चालक रहे मुनीर अहमद मेमन का भी है जिन्होंने इस बाढ़ में अपना घर और जीविका को खो दिया। हताश मन से उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी को तुरंत चिकित्सा सहायता की आवश्यकता है, लेकिन वो मजबूर हैं क्योंकि वो इसका खर्च नहीं उठा सकते। अपने गांव भी नहीं लौट सकते क्योंकि वहां भी उनके पास अपने तबाह हुए घर को दोबारा बनाने के लिए पैसा नहीं है।

गौरतलब है कि हाल ही में पाकिस्तान में आई बाढ़ में 1,730 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 3.3 करोड़ लोग इस बाढ़ से प्रभावित हुए थे। देखा जाए तो यह कहानी किसी एक मुमताज या मुनीर की नहीं है यह उन लाखों लोगों की पीड़ा है जिन्हें हर साल आपदाओं, संघर्ष और संकट के बीच अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं। इनके नाम, देश और मजहब भले ही अलग हो सकते हैं लेकिन इनके चेहरे पर विस्थापन की पीड़ा के जो भाव है वो एक से हैं।

इस बारे में यूनिटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) द्वारा जारी नई रिपोर्ट “टर्निंग द टाइड ऑन इंटरनल डिसप्लेसमेंट: ए डेवलपमेंट अप्रोच टू सॉल्यूशंस” के हवाले से पता चला है कि 2022 में, अपने घरों को छोड़ने के लिए मजबूर लोगों का यह आंकड़ा रिकॉर्ड 10 करोड़ को पार कर गया है।

जलवायु आपदाओं, संघर्ष और हिंसा की आग के मारे इनमें से अधिकांश विस्थापित वर्षों और दशकों तक अपने ही देशों में फंसे रहते हैं। हालांकि इसके बावजूद यह आंतरिक रूप से विस्थापित (आईडीपी) शायद ही कभी सुर्खियों में आते हैं। ऐसे में यूएनडीपी का कहना है कि यह अदृश्य संकट, इनके विकास के लिए मिलती सहायता में अंतराल के कारण है।

रिपोर्ट के मुताबिक 2021 के अंत तक करीब 5.91 करोड़ लोग अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर थे। देखा जाए तो यह वैश्विक स्तर पर अब तक का उच्चतम आंकड़ा है जो पिछले 10 साल पहले दर्ज की गई विस्थापितों की संख्या के दोगुने से भी ज्यादा है। इसके चलते न उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकी न उन्हें अच्छा काम मिल सका। उनके पास आय का कोई स्थाई स्रोत न होने की वजह से वो अपना और अपने परिवार का इलाज करवाने तक में असमर्थ थे। यहां तक की वो अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देखा जाए तो इससे महिलाएं, बच्चे और हाशिए पर रहने वाले सबसे ज्यादा पीड़ित हैं।

ऐसी ही त्रासदी यूक्रेन में देखने को मिली, जहां युद्ध के चलते लोग पीड़ा झेल रहे हैं। इस युद्ध ने समुदायों को तबाह कर दिया है। वहां लगभग एक-तिहाई आबादी यानी करीब 1.4 करोड़ से अधिक लोग, अब देश-विदेश में सुरक्षित आश्रय की तलाश में अपने घरों को छोडकर जाने को मजबूर हो गए हैं। वहीं इस युद्ध के बीच 65 लाख से ज्यादा विस्थापित अपने देश में ही फंसे हैं। जिन्हें संकट के इस दौर में बुनियादी सुविधाओं की आस है।

बदलती जलवायु के साथ कहीं ज्यादा गंभीर हो सकती है समस्या

ऐसा नहीं है की यह समस्या सिर्फ इस साल की है। रिपोर्ट में खुलासा किया है कि जिस तरह से जलवायु में बदलाव हो रहे हैं उसके चलते आने वाले वर्षों में समस्या गंभीर हो सकती है। अनुमान है कि आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन के चलते लाखों और लोग विस्थापित हो सकते हैं।

वहीं वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चला है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते अगले 28 वर्षों में करीब 21.6 करोड़ लोगों को अपनी मौजूदा जिंदगी, जीविका और घरों को छोड़ सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।

इस रिपोर्ट में 2,653 आन्तरिक विस्थापितों और उनके आठ मेजबान देशों में किए गए एक सर्वेक्षण का भी उल्लेख किया है। इनमें कोलम्बिया, इथियोपिया, इंडोनेशिया, नेपाल, नाइजीरिया, पापुआ न्यू गिनी, सोमालिया और वानूआतू शामिल थे।

इनमें से एक तिहाई से ज्यादा विस्थापितों का कहना था कि वो अपनी जीविका खो चुके हैं। वहीं 70 फीसदी से ज्यादा का कहना था कि उनके पास घर-परिवार की जिम्मेवारियों को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है। वहीं एक तिहाई का कहना था कि अपने देश से दूर होने के बाद उनका स्वास्थ्य बद से बदतर हुआ है।

ऐसे में रिपोर्ट का कहना है कि यह केवल उन लोगों की ही नहीं बल्कि उनके देश और पूरे वैश्विक समाज की भी समस्या है, क्योंकि आंतरिक विस्थापन से प्रभावित कई देश बिना इस समस्या का समाधान किए बिना, गरीबी शिक्षा, शांतिपूर्ण समाज और लैंगिक समानता जैसे लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएंगे। रिपोर्ट में इससे निपटने के लिए दीर्घकालीन विकास समाधानों की पैरवी की गई है, जिससे आन्तरिक विस्थापन के इन रुझानों को पलटा जा सके।

इस बारे में यूएनडीपी प्रशासक एखिम स्टाइनर का कहना है कि “हाशिए पर जीवन गुजार रहे आन्तरिक विस्थापितों की स्थिति में सुधार के लिए अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता है।“ उनके अनुसार इसके लिए महत्वपूर्ण मानवीय सहायता के साथ-साथ स्थाई तौर पर शान्ति, स्थिरता और पुनर्बहाली की दिशा में विकास को ध्यान में रखकर अपने उपाय महत्वपूर्ण होंगें। 

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