
आईआईटी मद्रास के अध्ययन से पता चला है कि इंसानी गतिविधियों के कारण हवा में सूक्ष्म कणों की संख्या बढ़ रही है, जो बादल बनने की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं।
लॉकडाउन के बाद इन कणों की संख्या में 80 से 250 फीसदी तक की वृद्धि हुई, जिससे जलवायु प्रणाली पर इंसानी गतिविधियों का सीधा असर दिखता है।
एयरोसॉल और बादलों की परस्पर क्रिया बेहद जटिल होती है। यह अध्ययन दिखाता है कि इंसानी गतिविधियां इन प्रक्रियाओं को किस गहराई से बदल सकती हैं।
पृथ्वी पर इंसानी गतिविधियों का असर अब प्रदूषण या मौसम तक सीमित नहीं है, यह आसमान में बनने वाले बादलों को भी प्रभावित कर रहा है। आईआईटी मद्रास के नेतृत्व में किए एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से पता चला है कि इंसानी उत्सर्जन हवा में मौजूद सूक्ष्म कणों (एयरोसॉल्स) को गहराई से प्रभावित करता है। गौरतलब है कि यह वही कण हैं जो बादल और बारिश बनने की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाते हैं।
यह अध्ययन भारत के तटीय इलाकों में मार्च से जुलाई 2020 के बीच किया गया और इसमें पाया गया कि हवा में मौजूद यह कण इंसानी गतिविधियों के कारण तेजी से बदलते हैं।
अध्ययन में पाया गया कि खास तौर पर क्लाउड कंडेन्सेशन न्यूक्लिआई (सीसीएन) यानी वे कण जिन पर जलवाष्प जमा होकर बादल बनते हैं, की संख्या लॉकडाउन के बाद 80 से 250 फीसदी तक बढ़ गई। इसका मुख्य कारण था नए कणों का तेजी से बनना।
लॉकडाउन के दौरान जब प्रदूषण घटा और फिर धीरे-धीरे इंसानी गतिविधियां शुरू हुईं, तो इंसानी उत्सर्जन के साथ ही नए कण बड़ी मात्रा में बनने लगे और उन्होंने बादलों के बनने की प्रक्रिया को प्रभावित किया। यह दर्शाता है कि इंसानी गतिविधियां जलवायु प्रणाली पर सीधा असर डालती हैं।
लॉकडाउन के बाद साफ समुद्री हवा की जगह प्रदूषित जमीनी हवा का हावी होना बताता है कि मानव गतिविधियों और एयरोसॉल्स का रिश्ता कितना जटिल है।
विशेषज्ञों के मुताबिक यह खोज बेहद अहम है, क्योंकि अब तक जलवायु मॉडल मुख्य रूप से कंप्यूटर सिमुलेशन पर आधारित रहे हैं। यह अध्ययन असली आंकड़े उपलब्ध कराता है, जो इन मॉडलों को और सटीक बना सकते हैं और भविष्यवाणियों में अनिश्चितता को घटा सकते हैं। इससे मौसम और जलवायु को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी।
भारत के तटीय इलाकों पर किया गया अध्ययन
शोध में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि अब तक जिन जैविक (ऑर्गेनिक) कणों के बारे में माना जाता था कि वो बादल बनने में बाधा डालते हैं, लेकिन शोध से पता चला है कि ये कण कई परिस्थितियों में बादल बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं। यानी इंसानी उत्सर्जन से उत्पन्न ये कण भी मौसम और जलवायु को बदलने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
सच है कि ये कण सतह पर परत बनाकर बूंदों को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन अध्ययन दर्शाता है कि जब इनकी संख्या बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, तो ये बादल बनने में मदद भी करते हैं।
अध्ययन में देखा गया कि भारत के तटीय इलाकों में जैविक कणों की बढ़ोतरी से बादल बनाने वाले कण की संख्या बढ़ गई। पानी को आकर्षित करने की क्षमता भले ही इनमें अकार्बनिक कणों से कम हो, लेकिन इनकी भारी संख्या ने बादल बनने की प्रक्रिया को तेज कर दिया। इसका मतलब है कि जिन्हें हम बादल बनने में बाधक मानते थे, वे भी कुछ परिस्थितियों में बादल और मौसम को आकार देने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
इस अध्ययन के नतीजे अमेरिकी केमिकल सोसाइटी के प्रतिष्ठित ईएसएंडटी एयर जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।
आईआईटी मद्रास में प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता सचिन एस गुनथे ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “इंसानी उत्सर्जन एयरोसॉल्स के व्यवहार को गहराई से प्रभावित करता है। खासकर बादल बनने की प्रक्रिया में। यह खोज मौजूदा जलवायु मॉडल को और सटीक बनाने में मदद करेगी।“
उनके मुताबिक यह अध्ययन यह समझने में भी मददगार साबित होगा कि इंसानी गतिविधियां जलवायु पैटर्न को कैसे बदल रही हैं।
भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव और जलवायु वैज्ञानिक डॉक्टर एम रविचंद्रन, ने इस पर प्रकाश डालते हुए प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “एयरोसॉल और बादलों की परस्पर क्रिया बेहद जटिल होती है। यह अध्ययन दिखाता है कि इंसानी गतिविधियां इन प्रक्रियाओं को किस गहराई से बदल सकती हैं। भविष्य में जलवायु को समझने और संभालने के लिए यह जानकारी बेहद अहम है।“
यह अध्ययन जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितताओं को समझने और भविष्य की रणनीतियां बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है।