Negotiations at COP28 in Dubai, UAE. Photo: UNclimatechange / Flickr
Negotiations at COP28 in Dubai, UAE. Photo: UNclimatechange / Flickr

कॉप28: तो क्या ऐतिहासिक उत्सर्जकों में शामिल हो जाएगा भारत और चीन?

विशेषज्ञों का कहना है कि वित्त और कोयले से किनारा कई विकासशील देशों के लिए महत्वपूर्ण पहलू हैं
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जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर चर्चा के लिए दुबई में चल रहे अंतराष्ट्रीय सम्मेलन कॉप28 में ग्लोबल स्टॉकटेक के नए ड्राफ्ट में भारत और चीन को ऐतिहासिक उत्सर्जकों की सूची में शामिल करने का सुझाव दिया गया है। यह ड्राफ्ट आठ दिसंबर, 2023 को जारी किया गया। 

अब तक केवल विकसित देशों को ही ऐतिहासिक उत्सर्जक माना जाता था। बता दें कि 27 पेज के इस ड्राफ्ट पर कई आपत्तियां उठी हैं। इस बारे में ड्राफ्ट के पॉइंट 29 के विकल्प एक में लिखा है कि पेरिस समझौते के तहत जो लक्ष्य निर्धारित किया है उसको देखते हुए कार्बन बजट अब बहुत कम बचा है और वो तेजी से घट रहा है।

ड्राफ्ट के मुताबिक चिंता की बात तो यह है कि 1850 से 2019 के बीच हुआ कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन इस कार्बन बजट का करीब 80 फीसदी है।

बता दें कि यह कार्बन बजट वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की संभावनाओं को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है।

विशेषज्ञों के अनुसार, बयान का परोक्ष अर्थ यह है कि बताई गई अवधि के दौरान जिन देशों ने बहुत अधिक उत्सर्जन किया है, उन्हें ऐतिहासिक उत्सर्जकों के रूप में देखा जा सकता है। अब तक, जिन देशों ने 90 के दशक तक उल्लेखनीय रूप से उत्सर्जन किया था, उन्हें क्योटो प्रोटोकॉल के तहत ऐतिहासिक उत्सर्जक माना जाता था। बता दें कि क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतराष्ट्रीय संधि है जिस पर 1997 में हस्ताक्षर किए गए थे।

क्योटो प्रोटोकॉल का लक्ष्य ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देने वाली गैसों के उत्सर्जन को सीमित करना है। इसमें 41 देशों और यूरोपियन यूनियन को छह प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5.2 फीसदी कटौती करने का आह्वान किया गया था।

इस बारे में क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के लिए दस्तावेज का अध्ययन करने वाले नकुल शर्मा का कहना है कि यदि हम 1850 से 2019 की अवधि को उत्सर्जन कीअवधि के रूप में उपयोग करते हैं तो भारत और चीन को ऐतिहासिक उत्सर्जक माना जाएगा। हालांकि अब तक कॉप वार्ताओं में इसकी समयावधि 1850 से 1992 मानी जाती थी।

इस बारे में क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल में वैश्विक राजनीतिक रणनीति के प्रभारी हरजीत सिंह का कहना है कि, “ऐतिहासिक उत्सर्जन की समय सीमा को बढ़ाने का यह कदम विकसित देशों द्वारा जानबूझकर किया गया प्रयास है। वे 2020 से पहले की अवधि को ऐतिहासिक उत्सर्जन के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।“ उनके मुताबिक हालांकि, विकसित देशों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हालिया रिपोर्टें स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं कि वे वैश्विक उत्सर्जन के 80 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार हैं।

वहीं जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक पर किए हालिया अध्ययन का नेतृत्व करने वाले विशेषज्ञ जान बर्क ने स्वीकार किया है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अभी भी वैश्विक औसत के आधे से भी कम है। बता दें कि इस साल जारी जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक 2024 में भारत को सातवें पायदान पर रखा है, हालांकि पहले तीन स्थानों के लिए उपयुक्त दावेदार न मिल पाने के कारण वो केवल तीन देशों से पीछे है।

क्लाइमेट फाइनेंस पर भी अटका पेंच

शर्मा के मुताबिक, "कुछ अन्य क्षेत्र भी हैं जहां समस्याएं हैं और हमें खासकर विकासशील देशों के मामले में आम सहमति तक पहुंचने के लिए काफी चर्चा की जरूरत होगी। उनका आगे कहना है कि जी77 और चीन ब्लॉक ने इस मुद्दे पर विस्तृत और पारदर्शी जवाब मांगा है कि करीब डेढ़ दशक पहले विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को दिए 100 अरब डॉलर के वादे को अब तक क्यों पूरा नहीं किया है।

उनके अनुसार, अब तक वित्त के मुद्दे पर गंभीरता से बात नहीं की गई है।  इसके लिए बस एक और अपील की गई है जो महज खानापूर्ति जैसी लगती है। विश्लेषण से पता चलता है कि ड्राफ्ट के पॉइंट 36 में कोयला और सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से हटाने पर अलग-अलग विकल्पों के तहत अलग से चर्चा की गई है, लेकिन 'तेल' और 'गैस' शब्दों को जानबूझकर छोड़ दिया गया है।

दुबई में एक जलवायु विशेषज्ञ का कहना है कि, "कुछ लोग कह सकते हैं कि सभी तरह के जीवाश्म ईंधन का उल्लेख किया गया है। लेकिन जब 'कोयले' का नाम लिया गया है तो ड्राफ्ट में 'तेल' और 'गैस' का विशेष रूप से उल्लेख क्यों नहीं किया गया? यह विशेष रूप से प्रासंगिक है जब नवीनतम रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले वर्ष जीवाश्म ईंधन की वजह से होने वाले दो-तिहाई उत्सर्जन के लिए तेल और गैस जिम्मेवार थे।"

एक अन्य ने समझाया कि, "भारत और चीन ऐतिहासिक उत्सर्जन की समयसीमा को बढ़ाने पर कभी सहमत नहीं होंगे।" उनके मुताबिक यह सौदेबाजी की रणनीति है। बांग्लादेश के जलवायु दूत और दुबई शिखर सम्मेलन में उसके प्रमुख वार्ताकार सबर हुसैन चौधरी ने स्वीकार किया, "हालांकि व्यापक संरचना मौजूद है, लेकिन अगले कदम के लिए बहुत सारे समायोजन और सख्ती की आवश्यकता है।"

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