

दक्षिण काकेशस में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे जल संकट और प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है।
अजरबैजान ने 77 फीसदी ग्लेशियर खो दिए हैं, जबकि जॉर्जिया में 24 फीसदी की कमी आई है। वहीं आर्मेनिया में ग्लेशियर करीब-करीब खत्म हो चुके हैं। वहां मौसमी बर्फ अब 2000 की तुलना में 11 दिन कम टिकती है और बर्फ की औसत मोटाई भी तीन सेंटीमीटर घट गई है।
रिपोर्ट के अनुसार, अगर तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित किया जाए, तो 40 फीसदी ग्लेशियर बचाए जा सकते हैं।
लेकिन अगर तापमान में हो रही यह वृद्धि तीन डिग्री सेल्सियस तक पहुंची तो सदी के अंत तक दक्षिण काकेशस के अधिकतर ग्लेशियर खत्म हो सकते हैं।
हिमालय की बर्फ हो या आल्प्स के ग्लेशियर, धरती पर जमी यह विरासत तेजी से पिघल रही है। इसी कड़ी में दक्षिण काकेशस भी शामिल हो गया है, जहां दो दशकों में करीब एक चौथाई ग्लेशियर सिकुड़ चुके हैं।
इस बारे में जारी एक नई रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण काकेशस क्षेत्र में मौजूद ग्लेशियर दुनिया के करीब-करीब किसी भी पहाड़ी इलाके की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। इससे न सिर्फ जल उपलब्धता पर खतरा मंडरा रहा है, बल्कि साथ ही बाढ़, भूस्खलन और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का जोखिम भी तेजी से बढ़ रहा है।
'मेल्टिंग हेरिटेज: अडॉप्टिंग टू अ चेंजिंग स्नो एंड आइस कवर इन द साउथ काकेशस' नामक यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के सहयोग से तैयार की गई है।
रिपोर्ट में साझा आंकड़ों के मुताबिक, 2000 से 2020 के बीच दक्षिण काकेशस क्षेत्र में ग्लेशियर अपने कुल क्षेत्रफल का 23 फीसदी हिस्सा खो चुके हैं। हालात सबसे ज्यादा खराब अजरबैजान में है, जहां 77 फीसदी ग्लेशियर सिकुड़ चुके हैं। जॉर्जिया में भी ग्लेशियरों का आकार 24 फीसदी तक घट गया है।
वहीं आर्मेनिया में ग्लेशियर करीब-करीब खत्म हो चुके हैं। वहां मौसमी बर्फ अब 2000 की तुलना में 11 दिन कम टिकती है और बर्फ की औसत मोटाई भी तीन सेंटीमीटर घट गई है।
तापमान बढ़ा तो गायब हुए ग्लेशियर
हालांकि साथ ही रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जताई गई है कि अगर वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को पेरिस समझौते के लक्ष्य यानी 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित कर दिया जाए, तो इस क्षेत्र के करीब 40 फीसदी ग्लेशियर बचाए जा सकते हैं।
लेकिन अगर तापमान में हो रही यह वृद्धि तीन डिग्री सेल्सियस तक पहुंची तो सदी के अंत तक दक्षिण काकेशस के अधिकतर ग्लेशियर खत्म हो सकते हैं।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा जारी ‘एमिशन गैप रिपोर्ट 2025’ के मुताबिक, अगर देशों द्वारा किए उत्सर्जन घटाने के वादे पूरे भी हो जाएं, तो भी वैश्विक तापमान 2.3 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की राह पर है।
जल संकट और बढ़ती आपदाएं
रिपोर्ट बताती है कि क्षेत्र की बर्फ, ग्लेशियर और पर्माफ्रॉस्ट पूरी जल-प्रणाली की रीढ़ हैं। पहाड़ों से पिघलकर बहने वाला पानी नदियों को जीवित रखता है और पारिस्थितिकी तंत्र, कृषि, आम लोगों की जरूरतों और उद्योगों का सहारा बनता है। लेकिन बर्फ और ग्लेशियरों के तेजी से सिकुड़ने से गर्मियों के सूखे में जल संकट के और गंभीर होने का खतरा बढ़ गया है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि 2000 के बाद से आर्मेनिया में भूजल दोहन करीब दोगुना हो चुका है, जबकि अजरबैजान में यह चार गुणा तक बढ़ गया है। रिपोर्ट के अनुसार जब ग्लेशियरों का नुकसान एक निर्णायक सीमा तक पहुंच जाता है, जिसे ‘पीक वॉटर’ कहा जाता है, तो नदियों में ग्लेशियरों से आने वाला पानी घटने लगता है।
इसका असर यह होता है कि स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर जल संकट और बढ़ जाता है।
निगरानी-तैयारी में बड़ी कमी
इसके साथ ही ग्लेशियरों के पीछे हटने से पहाड़ी इलाकों में बाढ़, भूस्खलन, चट्टान गिरने और हिमस्खलन जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं।
रिपोर्ट इस तथ्य को भी उजागर करती है कि पूरे क्षेत्र में बर्फ और ग्लेशियरों से जुड़े आंकड़ों तक मुक्त पहुंच नहीं है। न ही पर्माफ्रॉस्ट या ग्लेशियर झीलों की निगरानी के लिए कोई क्षेत्रीय व्यवस्था मौजूद है। हालांकि देशों के पास जलवायु नीतियां हैं, लेकिन उनमें बर्फ और ग्लेशियरों के नुकसान को अभी पर्याप्त रूप से शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में रिपोर्ट में बर्फ और हिमनदों की निगरानी बढ़ाने, देशों के बीच आंकड़े साझा करने और जलवायु अनुकूलन योजनाओं में पिघलती बर्फ के असर को भी शामिल करने पर जोर दिया गया है।
देखा जाए तो दक्षिण काकेशस में ग्लेशियर महज बर्फ नहीं, जल सुरक्षा की आखिरी दीवार हैं। ग्लेशियरों में 77 फीसदी तक की गिरावट और बढ़ता भूजल दोहन साफ बताते हैं कि समय तेजी से निकल रहा है। अब सवाल यह नहीं कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं, बल्कि यह है कि क्या सरकारें और दुनिया इसे रोकने के लिए तेजी से पर्याप्त कदम उठा रही है?