मानकों पर खरे नहीं भारत के 71% कोयला बिजली संयंत्र, 10 गुना अधिक कर रहे उत्सर्जन

प्रदूषण नियंत्रण के मानक तय हुए करीब एक दशक बीत चुका है, लेकिन अब तक महज आठ फीसदी बिजली संयंत्रों में फ्ल्यू गैस डीसल्फराइजेशन सिस्टम लगाए गए हैं
मानकों पर खरे नहीं भारत के 71% कोयला बिजली संयंत्र, 10 गुना अधिक कर रहे उत्सर्जन
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सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा जारी विश्लेषण से पता चला है कि देश में 537 में से 380 बिजली संयंत्र यूनिट्स उत्सर्जन संबंधी नियमों का पालन नहीं कर रही। मतलब की देश के करीब 71 फीसदी बिजली संयंत्र उत्सर्जन मानकों पर पूरी तरह खरे नहीं हैं। इतना ही नहीं ये प्लांट सल्फर डाइऑक्साइड के लिए तय सीमा से डेढ़ से दस फीसदी अधिक उत्सर्जन कर रहे हैं।

भारत में कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों में फ्ल्यू गैस डीसल्फराइजेशन (एफजीडी) सिस्टम अनिवार्य किए जाने चाहिए या नहीं इसको लेकर चल रही बहस के बीच सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) ने यह नया विश्लेषण जारी किया है।

इस बारे में जारी सीआरईए रिपोर्ट में भारत में सल्फर डाइऑक्साइड के हो रहे उत्सर्जन, एफजीडी की वर्तमान स्थिति के साथ-साथ आईआईटी दिल्ली और आईआईटी बॉम्बे द्वारा 2025 में प्रकाशित वैज्ञानिक अध्ययनों का विश्लेषण भी किया गया है। इस विश्लेषण के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वे बेहद गंभीर हालात को उजागर करते हैं।

आंकड़ों के मुताबिक 2024–25 में देश के कुल 537 कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में से आठ फीसदी यानी महज 44 संयंत्रों में ही एफजीडी सिस्टम लगाए गए थे। 493 संयंत्रों में अब तक एफजीडी नहीं लगे हैं, इनमें से 380 करीब 77 फीसदी संयंत्र ऐसे हैं जो तय मानकों से कहीं ज्यादा सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे थे।

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वहीं 59 संयंत्र (12 फीसदी) नियमों का पालन कर रहे हैं, जबकि 54 संयंत्रों (11 फीसदी) से जुड़े आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि बड़ी संख्या में बिजली संयंत्र अब भी खतरनाक स्तर पर सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि बिजली संयंत्रों से निकलने वाला प्रदूषण सिर्फ इसके आसपास के क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। विश्लेषण के मुताबिक इन संयंत्रों से निकलने वाला 16 फीसदी प्रदूषण दूरदराज के क्षेत्रों तक भी पहुंच रहा है। मतलब कि यह प्रदूषण उन क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहा है, जहां बिजली संयंत्र मौजूद नहीं हैं।

बढ़ती समय सीमा या नियमों से खिलवाड़?

गौरतलब है कि भारत सरकार ने 2015 में इस बारे में नियम बनाए थे। इसके तहत कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से निकलने वाले सल्फर डाइऑक्साइड को नियंत्रित करने के लिए फ्ल्यू गैस डीसल्फराइजेशन (एफजीडी) सिस्टम लगाना अनिवार्य था। इस नियम को 2017 तक लागू किया जाना था। लेकिन इस दिशा में हो रहे काम की सुस्त रफ्तार को देखते हुए बार-बार समयसीमा बढ़ानी पड़ी।

दिसंबर 2024 में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने चौथी बार समयसीमा को बढ़ाते हुए अब इसे 2029 तक के लिए टाल दिया है।

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मतलब कि प्रदूषण नियंत्रण के मानक तय हुए करीब एक दशक हो चुके हैं, लेकिन अब तक महज आठ फीसदी बिजली संयंत्रों में ही फ्ल्यू गैस डीसल्फराइजेशन (एफजीडी) सिस्टम लगाए गए हैं ताकि सल्फर डाइऑक्साइड के हो रहे उत्सर्जन को कम किया जा सके।

ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि अब भी मंत्रालयों के बीच यह बहस जारी है कि एफजीडी जरूरी हैं या नहीं, जबकि वैज्ञानिक सबूत साफ तौर पर दर्शाते हैं कि सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है।

भारत में प्रदूषण के महीन कणों यानी पीएम2.5 को देखें तो इसके 12 फीसदी के लिए बिजली क्षेत्र जिम्मेवार है, जो करीब-करीब वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है। 

अपनी इस रिपोर्ट में सीआरईए ने आईआईटी दिल्ली और आईआईटी बॉम्बे द्वारा 2025 में प्रकाशित अध्ययन का भी विश्लेषण किया है। आईआईटी दिल्ली द्वारा किए अध्ययन में सामने आया है कि भारत की हवा में प्राइमरी पीएम2.5 की जगह सेकेंडरी पीएम2.5 का प्रभुत्व है। मतलब की मौजूद सूक्ष्म कणों (पीएम2.5) का बड़ा हिस्सा सीधे न होकर सल्फर डाइऑक्साइड जैसी गैसों के रासायनिक प्रतिक्रिया से बनता है।

अध्ययन के मुताबिक लोगों के इस सेकेंडरी पीएम2.5 प्रदूषण के संपर्क में आने की सबसे बड़ी वजह घरेलू गतिविधियां हैं, जो इसके करीब 22 फीसदी के लिए जिम्मेवार हैं। इसके बाद उद्योगों का योगदान 14 फीसदी, जबकि बिजली संयंत्र और परिवहन क्षेत्र से क्रमशः 11-11 फीसदी प्रदूषण हो रहा है।

वहीं आईआईटी बॉम्बे ने अपने अध्ययन में 143 भारतीय शहरों में पीएम2.5 प्रदूषण में बाहरी (ट्रांसबाउंडरी) स्रोतों की हिस्सेदारी का आकलन किया है। मॉडलिंग तकनीक से किए इस अध्ययन से पता चला है कि औसतन 85 फीसदी पीएम2.5 प्रदूषण इन शहरों में बाहर से आता है।

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खासतौर पर, नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम के तहत चिन्हित 122 में से 107 शहरों में 80 फीसदी से ज्यादा प्रदूषण उनकी सीमाओं के बाहर से आ रहा है। इसका मतलब है कि केवल स्थानीय स्रोतों पर नियंत्रण करने पर भी ज्यादातर शहर राष्ट्रीय स्वच्छ वायु गुणवत्ता मानकों को हासिल नहीं कर सकते। ऐसे में इसे नियंत्रित करने के लिए नीतिगत सोच में बड़े बदलाव की जरूरत है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है गया कि ट्रांसबाउंडरी पीएम2.5 के सबसे बड़ा स्रोत जलाई जा रही बायोमास है जो इसके करीब 32 फीसदी के लिए जिम्मेवार है। वहीं ऊर्जा उत्पादन की 16 फीसदी जबकि उद्योगों की इसमें 15 फीसदी हिस्सेदारी है।

इस बारे में राज्यसभा में प्रस्तुत आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं, जिसके मुताबिक कई कोयला आधारित बिजली संयंत्र अब भी बेहद अधिक सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं। जहां मानक सीमा 100 mg/Nm³ होनी चाहिए, वहीं कुछ संयंत्रों में औसत उत्सर्जन 1,068 mg/Nm³ तक दर्ज किया गया—यानी कि यह निर्धारित सीमा से 10 गुना अधिक है।

विश्लेषण के मुताबिक यह समस्या केवल गंगा के मैदानी इलाकों या अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। ताप विद्युत संयंत्रों से निकलने वाला एसओ₂ सैकड़ों किलोमीटर दूर तक असर करता है, संयंत्रों की सीमाओं से कहीं आगे जाकर हवा को जहरीला बना रहा है।

सिर्फ किसानों पर क्यों होती है सख्ती?

प्रदूषण नियंत्रण उपायों में हो रही देरी के चलते भारत में बड़े पैमाने पर नियमों का उल्लंघन हो रहा है। इससे भारत में हवा की गुणवत्ता और आम लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।

विडंबना यह है कि जहां पराली जलाने पर किसानों पर सख्त कार्रवाई होती है, लेकिन सालभर चलने वाले बिजली और औद्योगिक प्रदूषण पर नरमी क्यों बरती जाती है? यदि बिजली संयंत्रों पर भी सख्त नियम लागू किए जाएं और पारदर्शिता से उत्सर्जन आंकड़े जारी किए जाए, तो वायु प्रदूषण में बड़ी कमी लाई जा सकती है।

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