उत्पादन में थोड़ा वृद्धि होते ही किसान का प्याज कौड़ि‍यों के भाव बिकने लगा था।
उत्पादन में थोड़ा वृद्धि होते ही किसान का प्याज कौड़ि‍यों के भाव बिकने लगा था।

बंपर उत्पादन बना मुसीबत

किसानों और उपभोक्ताओं को कीमतों में उतार-चढ़ाव की मार से बचाने के लिए बना मूल्य स्थि रता कोष भी बेअसर
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महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के 35 वर्षीय किसान विट्ठल पिसाई ने इस साल अपनी 1.6 एकड़ जमीन में 80 हजार रुपये खर्च कर प्याज लगाया था। करीब 22 टन की अच्छी पैदावार भी हुई, मगर फसल मंडी में ले गए तो हासिल हुए सिर्फ 90 हजार रुपये। नौ महीनों में सिर्फ 10 हजार रुपये की कमाई। जबकि पिछले साल इतनी उपज से उन्हें करीब डेढ़ लाख रुपये की कमाई हुई थी। फिर भी विट्ठल खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्होंने प्याज का दाम 50 पैसे प्रति किलोग्राम तक गिरने से पहले ही फसल बेच दी। उनके तालुका करजत में कई प्याज उगाने वाले कई किसान खुदकुशी कर चुके हैं। विट्ठल की तरह देश के लाखों प्याज किसानों की इस साल यही कहानी है। प्याज की महंगाई राष्ट्रीय खबर बनती है और सरकारों के पसीने छुड़ा देती है, लेकिन जब यही प्याज किसान को रुलाता है तो यह सिर्फ किसान की पीड़ा है।

आंध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले के किसान तो प्याज की कीमतों में भारी गिरावट और बाढ़ की दोहरी मार झेल रहे हैं। वहां सितंबर-अक्टूबर में प्याज 70 पैसे से लेकर 2 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव पर बिका। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर के जीवी रामजनेयुलु बताते हैं कि प्याज की खेती पर प्रति किलोग्राम 6 से 7 रुपये की लागत आती है जो किसानों को मिल रहे भाव से कहीं अधिक है। पिछले एक साल के दौरान प्याज और दालों की महंगाई देश में बड़ा मुद्दा रही है। इसके लिए लगातार दो साल पड़े सूखे और उत्पादन में गिरावट को जिम्मेदार ठहराया गया।

प्याज की आसमान छूती कीमतों को देखते हुए किसानों ने इस साल खूब प्याज उगाया, जिससे प्याज का उत्पादन 11 फीसदी बढ़ा है। देश में प्याज संकट को दूर करने की दिशा में यह किसानों का बड़ा योगदान है, लेकिन इस बंपर उत्पादन से किसान खुद संकट में आ गया। नई फसल बाजार में आते ही 50 पैसे किलो में प्याज बिकने और सड़कों पर प्याज फिंकने की खबरें आने लगीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, महाराष्ट्र की लासलगांव मंडी में गत सिंतबर में प्याज का औसत भाव पिछले 10 साल में सबसे कम 417 रुपये प्रति कुंतल (करीब 4 रुपये किलो) रहा। जबकि पिछले साल सिंतबर में इसी मंडी में प्याज का मॉडल भाव 4130 रुपये प्रति कुंतल यानी 10 गुना अधिक था। इस साल अक्टूबर में भी यहां प्याज औसतन 117 रुपये प्रति कुंतल (करीब एक रुपये किलो) के न्यूनतम भाव पर बिका। दूसरी तरफ, खुदरा बाजार में प्याज का भाव 15-20 रुपये किलो से कम नहीं हुआ।

मूल्य स्थिरता कोष भी बेअसर
केंद्र सरकार ने कीमतों में उतार-चढ़ाव की मार से किसानों और उपभोक्ताओं को बचाने के लिए 500 करोड़ रुपये के मूल्य स्थिरता कोष का ऐलान किया था। मकसद था बंपर फसल के दौरान सीधे किसानों से खरीद सुनिश्चित करना और कमी के मद्देनजर बफर स्टॉक बनाना। इस साल सर्दियों का प्याज बाजार में आते ही कीमतें गिरने लगी थीं। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें किसानों को कीमतों में गिरावट की मार से बचाने में नाकाम रहीं। बल्कि इसके लिए जो थोड़े-बहुत प्रयास हुए वे भी किसानों के लिए प्रतिकूल साबित हो रहे।

मिसाल के तौर पर, महाराष्ट्र में मूल्य स्थिरता कोष के तहत नेफेड के जरिए 5 हजार टन प्याज खरीदा गया। लेकिन यह खरीद सीधे किसानों से न होकर मंडियों से हुई, जो मूल्य स्थिरता कोष की मूल भावना के खिलाफ है। इसी तरह लघु कृषक कृषि व्यापार संघ (एसएफएसी) नाम की एक अन्य सरकारी एजेंसी ने दिल्ली जैसे महानगरों में प्याज आपूर्ति के लिए महाराष्ट्र से प्याज खरीदा। इसके लिए मंडी व्यापारियों से निविदाएं मंगाई गई जिन्होंने करीब 12.5 हजार टन प्याज की खरीद की। यह अधिकांश खरीद सीधे किसानों या कृषक उत्पादक संगठनों से न होकर मंडियों से की गई। मूल्य स्थिरता कोष के तहत हुई प्याज की खरीद में आरटीआई के जरिये कई खामियां उजागर करने वाले अहमदनगर के किसान योगेश थोराट का कहना है कि खुली बोली के जरिये 8 कंपनियों का चयन हुआ था जबकि मध्य प्रदेश की एक कंपनी को बाद मनमाने तरीके से शामिल किया गया।

आरटीआई से मिले दस्तावेज बताते हैं कि बाद में शामिल की गई कंपनियां ज्यादातर मंडी व्यापारियों की थीं, जिन्होंने किसानों से खरीद करने के बजाया बाजार से प्याज खरीदा। थोराट का कहना है कि मूल्य स्थिरता कोष के क्रियान्वयन में खामियों के चलते इसका फायदा न तो किसानों को मिल पा रहा है और न ही उपभोक्ताओं को। एक हालिया सर्वे मंे खुदरा और थोक कीमतों के बीच 150 फीसदी तक का अंतर दिखा है। कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा सवाल उठाते हैं कि फसल का दाम गिरने पर तैयारी स्टॉक मार्केट गिरने जैसी तेज क्यों नहीं होती? इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है। कृषि उपज की कीमतों में गिरावट की समस्या को देखते हुए प्रधानमंत्री किसान रक्षा कोष बनाया जाना चाहिए। 


किसानों पर दोहरी मार
किसानों से खरीदा प्याज उपभोक्ताओं तक पहुंचाना भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती साबित हुआ। मध्य प्रदेश में प्याज की कीमतें 50 पैसे तक गिरने के बाद राज्य सरकार ने करीब 10 लाख कुंतल प्याज किसानों से छह रुपये किलो की दर पर खरीदा था। इस पर करीब 60 करोड़ रुपये का खर्च आया। लेकिन भंडारण और वितरण की पुख्ता व्यवस्था न होने से करीब सात लाख टन प्याज गोदामों में ही सड़ चुका है जिसे निपटाने के लिए सरकार को 6.76 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े। किसानों को उपज का सही दाम दिलाने और उपभोक्ताओं को सस्ता प्याज मुहैया कराने के सरकारी प्रयासों का इससे बुरा हश्र क्या होगा!

मध्य प्रदेश की तरह महाराष्ट्र में भी नेफेड और एसएफएसी द्वारा खरीदे गए 8 हजार टन प्याज में से आधे से ज्यादा सड़ चुका है। एसएफएसी सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में प्याज के दाम कम हो गए इसलिए वहां इस प्याज को बेचने का कोई मतलब नहीं है। यही वजह है कि सरकारी खरीद के प्याज को स्थानीय मंडियों में बेचने का निर्णय लिया गया है। योगेश थोराट बताते हैं कि कई जगह सरकारी स्टॉक का प्याज किसानों की उपज को चुनौती दे रहा है। इस वजह से भी प्याज की मांग और आपूर्ति में असंतुलन बढ़ा है। किसानों पर यह दोहरी मार है। एक तरह बंपर उत्पादन की वजह से कीमतें गिर गईं जबकि दूसरी तरह सरकारी खरीद का सस्ता प्याज भी बाजार में आ रहा है।

रामजनेयुलु मानते हैं कि मूल्य स्थिरता कोष के साथ बुनियादी समस्या यह है कि यह किसानों के बजाय उपभोक्ताओं को महंगाई से बचाने के लिए बना है। जबकि किसानों को उपज का उचित दाम दिलाने के लिए कोई फंड नहीं है।

दालें भी बंपर उत्पादन के दलदल में
महाराष्ट्र के अमरावती जिले के किसान थालचंद बोंडे खरीफ सीजन की शुरुआत में तुहर का खुदरा भाव 200 रुपये देख काफी उत्साहित थे। अच्छे भाव की उम्मीद में उन्होंने पिछले साल से दोगुनी तुहर बोयी। किसानों के दालों की तरफ बढ़े रुझान के चलते इस साल खरीफ में दलहन की बुआई 29 फीसदी बढ़कर 145 लाख हेक्टेअर तक पहुंच गई है और सालाना दलहन उत्पादन 21 फीसदी बढ़कर 2 करोड़ टन तक पहुंचने का अनुमान है। लेकिन प्याज की तरह दलहन का बंपर उत्पादन भी किसानों के लिए मुसीबत साबित हो रहा है।

थालचंद बताते हैं कि जून-जुलाई में जो तुहर 10-12 हजार रुपये प्रति कुंतल के आसपास थी, फसल कटाई से पहले 5-6 हजार रुपये पर आ गई। मूंग की हालत तो और भी खराब है। कई मंडियों में मूंग का भाव सितंबर में 3000 रुपये प्रति कुंतल (30 रुपये किलो से भी कम) से नीचे आ गया था, जबकि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 5225 रुपये प्रति कुंतल है। कृषि मंडियों में दाल के दाम बुआई से कटाई के बीच 50 फीसदी तक टूट गए जबकि खुदरा बाजारों में अब भी मूंग दाल 115-125 और तुहर दाल 120-140 रुपये किलो बिक रही है। मतलब, कौड़ियों के भाव बिकती किसान की उपज के बावजूद उपभोक्ताओं तक उतनी राहत नहीं पहुंची है।

शेतकारी किसान संगठन के नेता प्रकाश पोहरे का मानना है कि दालों की यह दुर्गति गलत सरकारी हस्तक्षेप और नीतियों का नतीजा है। दालों की महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ने प्राइस कंट्रोल ऑर्डर और स्टॉक लिमिट लगाने जैसे फैसले लिए और दालों के आयात को भी बढ़ावा देती रही। गौरतलब है कि वर्ष 2015-16 में देश में दालों का आयात छह साल में सर्वाधिक 58 लाख टन तक पहुंच गया था। 

पूर्व कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री कहते हैं कि हम किसान की लागत, न्यूनतम समर्थन मूल्य और खुदरा कीमतों के बीच के अंतर को देखें तो कृषि संकट की पूरी तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी। सरकार पहले किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिए कहती रही और जब उत्पादन बढ़ा तो किसानों को इसकी सजा मिल रही है। अगर सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दिलवा सकती है तो इसका ऐलान ही क्यों करती है?

विडंबना देखिए, एक तरफ भारत सरकार मोजांबिक और ब्राजील जैसे देशों से दाल आयात करने जा रही है, जबकि दलहन उत्पादन बढ़ाना देश के किसानों के लिए मुसीबत बन गया है। मध्य प्रदेश के किसान केदार सिरोही बड़े अफसोस के साथ हरदा मंडी में 2500 रुपये कुंतल के भाव पर बिकी मूंग की रसीद दिखाते हैं। समर्थन मूल्य पर किसानों से खरीद के दावे भी खोखले साबित हो रहे हैं। सिरोही बताते हैं कि हरदा जिले के करीब एक लाख किसानों ने इस साल 39600 टन से ज्यादा मूंग पैदा की। लेकिन सरकारी एजेंसियां एक महीने में सिर्फ 110 टन दालें किसान से खरीद सकी हैं, जो प्रति किसान एक किलोग्राम से भी कम बैठती है। यही वजह से है कि मध्य प्रदेश के हरदा, सीहोर, देवास, होशंगाबाद, धार, खंडवा और विदिशा जिले में किसान समर्थन मूल्य पर मूंग की खरीद के लिए धरने-प्रदर्शन पर उतारू हैं।

दरअसल, किसानों को नुकसान से बचाने के लिए केंद्र सरकार ने आनन-फानन में नेफेड और एफसीआई के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य पर दालों की खरीद शुरू कराई थी, लेकिन इस तरह के प्रयास बेहद कामचलाऊ और नाकाफी हैं। गत 2 अक्टूबर तक पूरे देश में सिर्फ 3740 टन दालों की सरकारी खरीद हुई थी, जो खरीफ सीजन में कुल 87 लाख टन दलहन उत्पादन को देखते हुए नगण्य है। सरकार ने इस खरीफ सीजन में कुल 50 हजार टन दालों की खरीद का लक्ष्य रखा है जो कुल उत्पादन का एक फीसदी भी नहीं है।

किसी फसल के उत्पादन में बढ़ोतरी, फिर कीमतों में गिरावट और किसानों का मोहभंग होना नई बात नहीं है। खरीफ के कटु अनुभवों को देखते हुए आगामी रबी सीजन में किसान दालों से तौबा कर सकते हैें। कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2013-14 में किसानों को मूंग और उड़द की खेती पर औसतन प्रति हेक्टअर सिर्फ 723 रुपये और 1134 रुपये का शुद्ध लाभ हुआ था। महाराष्ट्र में तो मूंग और उड़द की खेती पर प्रति हेक्टअर क्रमश: 5873 और 6663 रुपये का घाटा उठाना पड़ा।

आयोग के पूर्व अध्यक्ष टी. हक का कहना है कि नई फसल के समय कीमतों में गिरावट का सिलसिला बरसों पुराना है। तकरीबन सभी फसलों में अक्सर ऐसा होता है। इसलिए किसानों को नुकसान से बचाने के लिए सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। लेकिन ज्यादातर उपाय कामचलाऊ हैं। केंद्र और राज्यों की एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी भी दिखाई पड़ती है। मंडी और बाजार व्यवस्था में हमने बहुत से जरूरी सुधार नहीं किए। खरीद, भंडारण और वितरण के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे का भी अभाव है। जब तक इस दिशा में बड़े प्रयास नहीं होते कीमतों के उतार-चढ़ाव के बीच किसान ऐसे ही फंसा रहेगा।

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