क्या किसानों की अगली पीढ़ी करेगी खेती?

देश में प्रतिदिन 2,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं, कृषि परिवारों के युवाओं का भी इस प्राथमिक व्यवसाय से मोहभंग हो गया है। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शायद अगली पीढ़ी में कोई किसान नहीं बचेगा
क्या किसानों की अगली पीढ़ी करेगी खेती?
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महामारी के दौरान कृषि एकमात्र ऐसा क्षेत्र रहा, जिसने वृद्धि दर्ज की है। भारत ने खरीफ सीजन में बंपर फसल भी दर्ज की। वहीं, इस बीच देश अपने ही प्रमुख किसानों के विरोध प्रदर्शनों का भी साक्षी बन रहा है। प्रदर्शन करने वाले इन अहम किसानों की मांग क्या है? वे सिर्फ उनकी उपज के लिए न्यूनतम मूल्य का आश्वासन चाहते हैं। यकीनन, हाल के इतिहास में पहली बार हम खेत, खेती और किसानों पर एक राष्ट्रीय बहस का विषय अनुभव कर रहे हैं। यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि देश में हर चौथा मतदाता एक किसान है, जो आर्थिक पतन के कारण संकटग्रस्त किसान बन चुका है।

इसमें कोई संदेह नहीं बचा है कि भारत की कृषि को दोबारा जीवित करना देश का सबसे प्रमुख एजेंडा है। लेकिन जैसे ही हम इस क्षेत्र के बारे में ज्यादा बातचीत करते हैं, हम इसमें और अधिक बीमारियों की तलाश कर लेते हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो अब हमें परेशान करता है, वह यह है कि आखिर कौन इस प्राथमिक आजीविका वाली गतिविधि को आगे बढ़ाएगा? देश में शायद अगली पीढ़ी में कोई किसान नहीं बचा होगा। जनगणना 2011 के अनुसार देश में हर दिन 2,000 किसान खेती छोड़ देते हैं। वहीं, कृषक समुदायों के बीच के युवा शायद ही कृषि में रुचि रखते हैं। यहां तक कि कृषि विश्वविद्यालयों से स्नातक करने वाले अधिकांश छात्र अन्य व्यवसायों में चले जाते हैं। इसे “भारतीय कृषि के समृद्ध दिमागों का पलायन” (एग्रो ब्रेन ड्रेन) कहा जाता है।

जब कृषि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है तो इसका काला साया खेत और गैर-कृषि कार्यबल दोनों पर पड़ रहा है। दिल्ली की एक बिजनेस इन्फॉर्मेशन कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2018-19 में कृषि में सकल मूल्य बीते 14 वर्षों में सबसे कम है जबकि कोविड-19 महामारी इस स्थिति को और गंभीर बनाने जा रही है।

मसलन, वर्ष 2018-19 में अनुमानित 91 लाख नौकरियां ग्रामीण भारत में और 18 लाख नौकरियां शहरी भारत में खत्म हो गईं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत देश की कुल आबादी का दो-तिहाई है लेकिन इसमें 84 फीसदी की नौकरी छूट गई है। इससे पहले नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की उजागर हुई पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2011-12 और 2017-18 के बीच 3 करोड़ कृषि मजदूरों सहित कुछ 3.4 करोड़ अनौपचारिक मजदूरों ने ग्रामीण इलाकों में नौकरियां खो दीं। यह कृषि कार्यबल में 40 फीसदी की गिरावट थी।

भारत मुख्य रूप से ग्रामीण से शहरी अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। इससे लोगों के व्यवसाय और आकांक्षाओं में भी बदलाव आता है। तात्कालिक चिंता यह है कि क्या भारत की खेती-किसानी से जुड़ी आबादी पहले की तरह डटी रहेगी या यह गैर-कृषि व्यवसायों में स्थानांतरित हो जाएगी। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि क्या कृषि अपने किसानों-मजदूरों के अस्तित्व के लिए पर्याप्त आकर्षक होने के कारण जीवित रहेगी? बहुत कुछ ग्रामीण-शहरी स्थिति पर निर्भर होगा।

जनगणना की परिभाषा के मुताबिक, एक बस्ती को तब शहरी (नगरपालिका, निगम, छावनी बोर्ड और एक अधिसूचित नगर क्षेत्र समिति को छोड़कर) घोषित किया जाता है जब उसकी न्यूनतम आबादी 5,000 हो और कम से कम 75 फीसदी कामकाजी पुरुष आबादी गैर-कृषि कार्यों में लगी हुई हो। साथ ही जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी हो। ऐसी बस्तियों को सेंसस टाउन भी कहा जाता है। 2001 और 2011 की जनगणना के बीच ऐसे सेंसस टाउन की संख्या 1,362 से बढ़कर 3,894 हुई है। यह इंगित करता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग खेती छोड़ रहे हैं या गैर-कृषि आजीविका में शामिल हो रहे हैं।

इतिहास में पहली बार हुआ कि 2011 की जनगणना के दौरान ग्रामीण भारत की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की गई है। ऐसे संकेत मिलते हैं कि कई ग्रामीण बेरोजगार होने की दशा में और छोटी भूमि होने के बावजूद खेती नहीं कर रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि भारत एक बड़े बदलाव की कगार पर है। यदि आर्थिक पहलू और रोजगार के नजरिए से देखें तो ग्रामीण भारत अब कृषि प्रधान नहीं है। नीति आयोग के लिए एक शोध पत्र में अर्थशास्त्री रमेश चंद (सरकारी थिंक टैंक के सदस्य) ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का विश्लेषण किया है। उन्होंने अपने निष्कर्ष में कहा कि वर्ष 2004-05 के बाद से भारत एक गैर-कृषि अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है।

किसान खेती छोड़ रहे हैं और गैर-कृषि नौकरियों में शामिल हो रहे हैं। यह एक आर्थिक निर्णय है जो उन्होंने लिया है क्योंकि वे बाद वाले विकल्प से अधिक कमाते हैं। एक किसान की आय एक गैर-किसान के पांचवें हिस्से के आसपास है। यह संरचनात्मक परिवर्तन 1991-92 में आर्थिक सुधारों के बाद आया। चंद के शोध से पता चलता है कि 1993-94 और 2004-05 के बीच कृषि क्षेत्र में वृद्धि 1.87 प्रतिशत तक घट गई जबकि गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में विकास दर 7.93 प्रतिशत तक बढ़ गई। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान में भारी गिरावट के साथ आया।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 1993-1994 में जहां 57 फीसदी था, वहीं 2004-05 में यह 39 प्रतिशत ही बचा। कृषि आय की तुलना में अन्य आय तेजी से बढ़ रही है। कृषि और गैर-कृषि आय के बीच का अंतर 1980 के मध्य में 1:3 के अनुपात से बढ़कर 2011-12 में 1: 3.12 हो गया है। 2004-05 तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि से अधिक गैर-कृषि बन गई। यह चलन अब भी जारी है।

दशकों से ज्यादातर सरकारी नीतियां खेती छोड़ने वाले लोगों को गैर-कृषि क्षेत्रों में खपाने पर केंद्रित हैं। समकालीन नीतिगत ध्यान इन क्षेत्रों में बेरोजगारी से निपटने के लिए है और उन लोगों के लिए आजीविका सुनिश्चित करने के लिए है जो कृषि में जीवित रहने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए ग्रामीण भारत में गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों के सृजन में निर्माण क्षेत्र की वर्ष 2004-05 और 2011-12 के बीच हिस्सेदारी 74 फीसदी थी। बुनियादी ढांचे में निवेश पर सरकार की राजनीतिक समझ इसलिए विकसित हुई है क्योंकि यह वो क्षेत्र है जो ग्रामीण काम करने वालों को जगह देता है। लेकिन यहां एक समस्या है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव के बावजूद गैर-कृषि क्षेत्र नौकरी चाहने वालों को खपाने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि वे आवश्यक दर पर रोजगार पैदा करने में सक्षम नहीं हैं। मिसाल के तौर पर सुधार के पहले चरण के दौरान ग्रामीण रोजगार में 2.16 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई थी। उच्च आर्थिक वृद्धि के बावजूद सुधार के बाद के चरण में इसमें गिरावट हो गई। इसलिए सरकार का 5 खरब डॉलर अर्थव्यवस्था का मुख्य लक्ष्य भले ही हासिल हो जाए लेकिन यह उन क्षेत्रों में नौकरियों का सृजन नहीं करेगा जहां आवश्यकता है।

मौटे तौर पर यह एक बिना नौकरियों का विकास होगा और एक संकट के रूप में सामने आएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि खेती छोड़ने वाले वे लोग कहां खपाए जाएंगे जो वर्तमान में बड़ी संख्या में या तो बेरोजगार हैं या फिर आधे-अधूरे रोजगार में लगे हैं। वे यह जानते हुए भी कृषि से चिपके रहते हैं कि यह लाभकारी नहीं है। लेकिन कोई कब तक नुकसान उठाने वाली आजीविका के भरोसे रह सकता है? सरकार की रणनीति है कि ऐसी ग्रामीण आबादी जो रोजगार की मांग करती है, उसे गैर-कृषि क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाए। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2004-05 और 2011-12 के दौरान लगभग 3.4 करोड़ किसान कृषि से बाहर चले गए। खेती छोड़ने की वार्षिक दर 2.04 प्रतिशत है। नीति आयोग के अनुमान के अनुसार, यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो 2022 यानी जिस वर्ष तक आय दोगुनी करनी है, उस वर्ष तक कुल कार्यबल में किसानों की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत तक होगी।

भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में किसानों की घटती आबादी और कृषि स्रोतों से कम होती आय को लेकर इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट की ओर से हाल ही में जारी “द 2019 रूरल डेवलपमेंट रिपोर्ट” में ग्रामीण युवाओं के बीच बेरोजगारी को लेकर एक नया आयाम जोड़ा गया है। रिपोर्ट में आबादी की प्रवृत्तियों की गणना के कई अध्ययनों को शामिल किया है, साथ ही वैश्विक स्तर पर ग्रामीण युवाओं के आर्थिक भविष्य की भी बात की गई है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि ग्रामीण युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में बढ़ रही है। खासतौर से एशिया और अफ्रीका के विकासशील और विकसित होने की दहलीज पर खड़े देशों में ऐसा दिख रहा है। वहीं, ग्रामीण युवा आबादी में यह वृद्धि ऐसे समय में आई है, जब इन क्षेत्रों में न तो प्रभावशाली आर्थिक विकास हुआ है और न ही आजीविका के विविध साधन हैं। अब प्रश्न उठता है कि इन्हें कहां रोजगार मिलेगा? इस पर विचार करें। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण युवा उन देशों में रहते हैं, जहां कृषि मूल्य-संवर्धन सबसे कम है।

रिपोर्ट में दावा किया गया है, “युवा लोगों के पास इन देशों में कृषि गतिविधियों में संलग्न होकर गरीबी से बचने का काफी कठिन समय है। अधिकांश बेहतर जीवन यापन करने के लिए अन्य क्षेत्रों में जाएंगे। यही प्रवृत्ति भारत में भी देखी गई है।” देश में ग्रामीण युवा बेरोजगारों का एक बड़ा प्रतिशत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पाया जाता है। मुख्य रूप से कृषि से जुड़े राज्यों में युवा आबादी बहुत बड़ी है जो खेती की तुलना में वैकल्पिक आजीविका स्रोतों की तलाश में है। अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत में गैर कृषि रोजगार का स्तर काफी ऊंचा है। ठीक इसी समय पर अध्ययन में तर्क दिया गया है कि कृषि क्षेत्र में नए कार्यबल को जगह देने की भरपूर क्षमता है। करीब 67 फीसदी ग्रामीण युवा आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां कृषि की संभावनाएं हैं।

इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलमेंट (आईएफएडी) के अध्यक्ष गिलबर्ड एफ होंगबो ने कहा कि यदि हम इस पर कार्रवाई करने में विफल होते हैं तो यह बिना आशा और दिशा के मौजूद युवा आबादी को एक गुमराह पीढ़ी तैयार करने का जोखिम पैदा करती है। इसलिए कृषि की संभावना ग्रामीण युवाओं के लिए खेती को एक व्यवसाय के रूप में लेने के लिए विवश करने वाला कारक नहीं बची है। वे न तो अच्छी फसल पाते हैं और न ही कीमतें जो उनके खेती से मुंह मोड़ने का मुख्य कारण है।

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