पिछले 6 साल से सरकार लगातार गेहूं के उत्पादन में रिकार्ड तोड़ वृद्धि का दावा कर रही है, लेकिन सच यह है कि देश में गेहूं के उत्पादन और उत्पादकता में ठहराव आ रहा है, जो देश की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। पिछले 50 साल से हरित क्रांति दौर की तकनीकों (उच्च पैदावार देने वाली बौनी उन्नत किस्में - रसायनिक उर्वरक आदि) को अपनाने से मुख्य फसलों गेहूं व धान की पैदावार में लगातार वृद्धि हुई, जिसने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को स्थाायीत्व प्रदान किया है।
भारत में गेहूं की खेती परम्परागत तौर पर उत्तरी प्रदेशों पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश आदि के मैदानी क्षेत्रों मेंं भरपूर मात्रा में होती है. लेकिन पिछले 3 दशकों में सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि होने से देश के मध्य क्षेत्र के प्रदेश राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि भी गेहूं उत्पादक राज्य बन गए हैं। वर्ष 2022- 23 के दौरान, भारत में 110 मिलियन टन गेहूं उत्पादन हुआ और वैश्विक बाजार मेंं 11,826.90 करोड़ रुपए की कीमत पर 4,693,264.09 मीट्रिक टन गेहूं निर्यात किया गया।
दुनिया भर में, भारत गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत में 2000 के बाद से, गेहूं उत्पादन करने वाले क्षेत्र मेंं 17 फीसदी की बढ़़ोतरी हुई है, जबकि गेहूं उत्पादन मेंं 40 फीसदी की वृद्धि हुई है। प्रकृति में, गेहूं की फसल को अच्छी पैदावार के लिए ज्यादा अवधि के सर्दकालीन ठंडे मौसम की जरूरत होती है, इसलिए गेहूं फसल की खेती को दक्षिण व तटिय प्रदेशो में बढ़ाना तकनीकी तौर पर सम्भव नहीं है।
केन्द्र सरकार के सार्वजनिक सुचना ब्युरो द्वारा 14 मार्च 2023 को जारी जानकारी के अनुसार वर्ष 2022- 23 में गेहूं लगभग 31.86 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर उगाया गया और वर्ष 2014 से 2023 के दौरान देश में गेहूं खेती के क्षेत्रफल में मामूली वृद्धि दर्ज हुई, जो मुख्यत मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान आदि मध्य क्षेत्र के प्रदेशों में हुई है, जबकि परम्परागत गेहूं उत्पादक प्रदेशों उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि में गेहूं खेती का क्षेत्रफल पहले से कम हुआ और हरियाणा में तो गेहूं की उत्पदकता में भी कमी दर्ज हुई है।
देश में पिछले 6 साल से 95 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र में होने के बावजूद गेहूं की फसल की उत्पादकता 33-35 किवंटल प्रति हेक्टेयर पर अटकी हुई है, जो देश में गेहूं की उत्पादकता में ठहराव का सूचक है और गेहूं उत्पादन पर आधारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर चेतावनी है।
ऐसे में लगातार बढ़़ती जनसंख्या की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए, वर्ष 2050 तक भारत को 140 मिलियन टन गेहूं की आवश्यकता का अनुमान सरकार द्वारा लगाया जा रहा है, लेकिन भविष्य में गेहूं की खेती के क्षेत्रफल के बढ़ने की ज्यादा संभावना नही है। इसलिए गेहूं फसल की उत्पादकता को मौजूदा 34 से 47 क्विंटल प्रति हेक्टेयर करने का लक्षय रखना होगा। जो कि देश में उपलब्ध उन्नत तकनीक के आधार पर असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर रहेगा, क्योंकि उत्तर भारतीय गेहूं उत्पादक प्रदेशों पंजाब और हरियाणा आदि में गेहूं फसल की औसत पैदावार 45 किवंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास ठहर गई है और मध्य भारत के प्रदेशों में, गेहूं फसल को कम अवधि के सर्द मौसम मिलने से, गेहूं की औसत पैदावार में एक तिहाही की कमी रहती है।
दूर्भागय से, भारत में उपलब्ध फसल उत्पादन के सरकारी आंकडो की विश्वसनीयता पर भी गहरा संकट छाया हुआ है. पिछले कुछ वर्षो से, पहले रिकार्ड तोड फसल उत्पादन के दावों के बाद, सरकार स्वयं ही गेहू जैसी मुख्य फसलों के आंकड़े घटाती रही है। वर्ष 2021-22 में, सरकार ने पहले 111 मिलियन टन से ज्यादा गेहूं उत्पादन का दावा किया था, लेकिन बाद में इन आंकड़ों को लगभग 6 प्रतिशत घटाकर 105 मिलियन टन करना पड़ा था।
इन भ्रमित आंकड़ों के कारण ही सरकार वर्ष 2022- 23 सीजन में 44.4 मिलियन टन लक्षय के मुकाबले मात्र 18.8 मिलियन टन और वर्ष 2023-24 सीजन में 34 मिलियन टन लक्ष्य के मुकाबले मात्र 26 मिलियन टन गेहूं की सरकारी खरीद कर सकी है, जिसके दुष्प्रभाव से सरकार को अचानक गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगाने पड़े थे. 21वीं सदी के डिजिटल युग में, फसल उत्पादन के बारे में आधी अधूरी जानकारी सरकारी तंत्र की गंभीर निर्णय त्रुटि को दर्शाता है।
अमेरिका के कृषि विभाग (यूएसडीए) के अनुसार, भारत में वर्ष 2018 से 2023 के दौरान, गेहूं का कुल उत्पादन औसतन 107 मिलियन टन और उत्पदकता 3.4 टन प्रति हेक्टेयर के आसपास थम गई है। इसी तरह धान की औसत पैदावार भी लगभग 4.1 टन प्रति हेक्टेयर पर ठहरी हुई है। इसी दौरान भारत के कुल धान उत्पादन में दर्ज हुई वृद्धि, धान क्षेत्र के बढ़ने (44 से 47 मिलियन हेक्टेयर) के कारण से हुई है। वर्ष 2023-24 में चावल उत्पादन 132 मिलियन टन रहा, जिसमें से 4.55 मिलियन टन बासमती चावल 38,524 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ।
सभी अनुमानों के अनुसार भारत में घरेलू खपत के लिए 105 मिलियन टन गेहूं और 109 मिलियन टन चावल वार्षिक की आवश्यकता होती है. ज़िसके अनुसार वर्तमान में गेहूं-धान का उत्पादन देश की वार्षिक घरेलू मांग के लगभग बराबर ही पैदा हो रहा है, इसलिए मौसम में बदलाव होने पर, सरकार को घरेलू सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए गेहूं और चावल के निर्यात व स्टाक लिमिट जैसे प्रतिबन्ध बार-2 लगाने पड़ते है।
ऐसे हालात में, सरकार के नीतिकारो द्वारा गेहूं-धान के फसल चक्र की बजाय फसल विविधिकरण की अव्याहवारिक बाते करना राष्ट्रिय हित में नही है. हाल ही हरियाणा और पंजाब सरकारो द्वार बजट सेशन में पेश किये वार्षिक 'इकनोमिक सर्वे रिपोर्ट' भी इन प्रदेशो में पिछले 5 वर्षो में गेहूं उत्पादन और उत्पादकता में ठहराव की पुष्टि करती है। खरीफ सीजन की वर्षा ऋतु से जल भराव से ग्रस्त रहने वाले इन प्रदेशों में तकनीकी तौर पर धान के अलावा कोई भी व्यावहारिक फसल विविधिकरण विकल्प किसानों के लिए उपलब्ध नही है. कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भी किसानों के लिए गेहूं-धान फसल चक्र ही सबसे ज्यादा लाभदायक है।
निसंदेह, देश में गेहूं फसल का क्षेत्रफल, उत्पादन और उत्पादकता संतृप्ति बिन्दु के नजदीक पहुंच गया है, जिसमें निकट भविष्य में कोई महत्वपूर्ण विकास की संभावना बहुत कम नजर आ रही है। ऐसे हालात में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, सरकार को धान और मोटे अनाज की फसलो को प्रोत्साहन देना चाहिए।
यह सर्वविदित है कि हरित क्रांति दौर में, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा देश के उत्तर पश्चिम अर्धशुष्क कम वर्षा वाले प्रदेशों में भूजल सिंचाई के सहारे, धान की रोपाई विधि प्रोत्साहन से भूजल की बडे पैमाने पर बर्बादी हुई. जिसे अब वैज्ञानिको ने सुधारकर पर्यावरण हितेषी सीधी बिजाई धान विधि बनाया है। जिसमें बिन पैदावार नुकसान किए रोपाई विधि के मुकाबले लगभग 40 प्रतिशत भूजल सिंचाई की बचत होती है।
इसलिये धान फसल सीधी बिजाई विधि के साथ भविष्य में राष्ट्रिय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और सदाबहार हरित क्रांति लाने में सक्षम साबित होगी. कियोकि धान की फसल सदियो से भारतीय महाद्वीप में कश्मीर से कन्याकुमारी और पंजाब से मणिपुर तक सफलतापुर्वक उगाई जा रही है. देश के कुछ क्षेत्रो में तो धान की तीन फसल प्रति वर्ष खेती की जाती है. इस लिए सरकार को राष्ट्रिय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भूजल बर्बादी वाली रोपाई विधि पर मध्य और उत्तर भारतीय प्रदेशो में पूर्णयता प्रतिबंध लगाकर, पर्यावरण हितेषी सीधी बिजाई धान विधि को प्रोत्साहन देना चाहिए।
(लेखक डॉ. वीरेन्द्र सिंह लाठर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं)